आजाद हिंद सेना : स्वतंत्रतासंग्रामका क्रांतिकारी पर्व


सारणी


        आजाद हिंद सेनाके संस्थापक नेताजी सुभाषचंद्र बोस उग्रमतवादी थे । अंग्रेजोंको परास्त करनेके लिए भारतकी स्वतंत्रता संग्रामकी अंतिम लडाईका नेतृत्व नियतीने नेताजीके हाथों सौंपा था । नेताजीने यह पवित्र कार्य असीम साहस एवं तन, मन, धन तथा प्राणका त्याग करनेमें तत्पर रहनेवाले हिंदी सैनिकोंकी ‘आजाद हिंद सेना’ संगठनद्वारा पूर्ण किया । इस  संगठनका अल्पसा परिचय !

१. ब्रिटिश सेनाके हिंदी सैनिकोंका नेताजीने बनाया संगठन

        अंग्रेजोंकी स्थानबद्धतासे भाग जानेपर नेताजीने फरवरी १९४३ तक जर्मनीमें ही वास्तव्य किया । वे जर्मन सर्वसत्ताधीश हिटलरसे अनेक बार मिले और उसे हिंदुस्थानकी स्वतंत्रताके लिए सहायताका आवाहन भी किया । दूसरे महायुद्धमें विजयकी ओर मार्गक्रमण करनेवाले हिटलरने नेताजीrको सर्व सहकार्य देना स्वीकार किया । उस अनुसार उन्होंने जर्मनीकी शरणमें आए अंग्रेजोंकी सेनाके हिंदी सैनिकोंका प्रबोधन करके उनका संगठन बनाया । नेताजीrके वहांके भाषणोंसे हिंदी सैनिक देशप्रेममें भावविभोर होकर स्वतंत्रताके लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते थे ।

२. आजाद हिंदी सेनाकी स्थापना और ‘चलो दिल्ली’का नारा

        पूर्व एशियाई देशोंमें जर्मनीका मित्रराष्ट्र जापानकी सेना ब्रिटिश सेनाको धूल चटा रही थी । उनके पास भी शरण आए हुए, ब्रिटिश सैनाके हिंदी सैनिक थे । नेताजीके मार्गदर्शनानुसार वहां पहलेसे ही रहनेवाले रासबिहारी बोसने हिंदी सेनाका संगठन किया । इस हिंदी सेनासे मिलने नेताजी ९० दिन  पनडुब्बीसे यात्रा करते समय मृत्युसे जूझते जुलाई वर्ष १९४३ में जापानकी राजधानी टोकियो पहुंचे । रासबिहारी बोसजीने इस सेनाका नेतृत्व नेताजीके हाथों सौंपकर दिया । ५ जुलाई १९४३ को सिंगापुरमें नेताजीने ‘आजाद हिंद सेना’की स्थापना की । उस समय सहस्रों सैनिकोंके सामने ऐतिहासिक भाषण करते हुए वे बोले, ‘‘सैनिक मित्रों ! आपकी युद्धघोषणा एक ही रहे ! चलो दिल्ली ! आपमें से कितने लोग इस स्वतंत्रतायुद्धमें जीवित रहेंगे, यह तो मैं नहीं जानता; परंतु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि अंतिम विजय अपनी ही है। इसलिए उठो और अपने अपने शस्त्रास्त्र लेकर सुसज्ज हो जाओ । हमारे भारतमें आपसे पहले ही क्रांतिकारकोंने हमारे लिए मार्ग बना रखा है और वही मार्ग हमें दिल्लीतक ले जाएगा । ….चलो दिल्ली ।”

३. भारतके अस्थायी शासनकी प्रमुख सेना

        सहस्रों सशस्त्र हिंदी सैनिकोंकी सेना सिद्ध होनेपर और पूर्व एशियाई देशोंकी लाखों हिंदी जनताका भारतीय स्वतंत्रताको समर्थन मिलनेपर नेताजीने २१ अक्टूबर १९४३ को स्वतंत्र हिंदुस्थानका दूसरा अस्थायी शासन स्थापित किया । इस अस्थायी शासनको जापान, जर्मनी, चीन, इटली, ब्रह्मदेश आदि देशोंने उनकी मान्यता घोषित की । इस अस्थायी शासनका आजाद हिंद सेना, यह प्रमुख सेना बन गई ! आजाद हिंद सेनामें सर्व जाति-जनजाति, अलग-अलग प्रांत, भाषाओंके सैनिक थे । सेनामें एकात्मताकी भावना थी । ‘कदम कदम बढाए जा’, इस गीतसे समरस होकर नेताजीने तथा उनकी सेनाने आजाद हिंदुस्थानका स्वप्न साकारनेके लिए विजय यात्रा आरंभ की ।

४. ‘रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट’की स्थापना

        नेताजीने झांसीकी रानी रेजिमेंटके पदचिन्होंपर महिलाओंके लिए ‘रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट’की स्थापना की । पुरुषोंके कंधेसे कंधा मिलाकर महिलाओंको भी सैनिक प्रशिक्षण लेना चाहिए, इस भूमिकापर वे दृढ रहे । नेताजी कहते, हिंदुस्थानमें १८५७ के स्वतंत्रतायुद्धमें लडनेवाली झांसीकी रानीका आदर्श सामने रखकर महिलाओंको भी स्वतंत्रतासंग्राममें अपना सक्रिय योगदान देना चाहिए ।’

५. आजाद हिंद सेनाद्वारा धक्का

        आजाद हिंद सेनाका ब्रिटिश सत्ताके विरोधमें सैनिकी आक्रमण आरंभ होते ही जापानका सत्ताधीश जनरल टोजोने इंग्लैंडसे जीते हुए अंदमान एवं निकोबार ये दो द्वीप आजाद हिंद सेनाके हाथों सौंप दिए । २९ दिसंबर १९४३ को स्वतंत्र हिंदुस्थानके प्रमुख होनेके नाते नेताजी अंदमान गए और अपना स्वतंत्र ध्वज वहां लहराकर सेल्युलर कारागृहमें दंड भोग चुके क्रांतिकारकोंको आदरांजली समर्पित की । जनवरी १९४४ में नेताजीने अपनी सशस्त्र सेना ब्रह्मदेशमें स्थलांतरित की ।

        १९ मार्च १९४४ के ऐतिहासिक दिन आजाद हिंद सेनाने भारतकी भूमिपर कदम रखा । इंफाल, कोहिमा आदि स्थानोंपर इस सेनाने ब्रिटिश सेनापर विजय प्राप्त की । इस विजयनिमित्त २२ सितंबर १९४४ को किए हुए भाषणमें नेताजीने गर्जना की कि, ‘‘अपनी मातृभूमि स्वतंत्रताकी मांग कर रही है ! इसलिए मैं आज आपसे आपका रक्त मांग रहा हूं । केवल रक्तसे ही हमें स्वतंत्रता मिलेगी । तुम मुझे अपना रक्त दो । मैं तुमको स्वतंत्रता दूंगा !” (‘‘दिल्लीके लाल किलेपर तिरंगा लहरानेके लिए तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा”) यह भाषण इतिहासमें अजरामर हुआ । उनके इन हृदय झकझोर देनेवाले उद्गारोंसे उपस्थित हिंदी युवाओंका मन रोमांचित हुआ और उन्होंने अपने रक्तसे प्रतिज्ञा लिखी ।

६. ‘चलो दिल्ली’का स्वप्न अधूरा; परंतु ब्रिटिशोंको झटका

        मार्च १९४५ से दोस्तराष्ट्रोंके सामने जापानकी पराजय होने लगी । ७ मई १९४५ को जर्मनीने बिना किसी शर्तके शरणागति स्वीकार ली, जापानने १५ अगस्तको शरणागतिकी अधिकृत घोषणा की । जापान-जर्मनीके इस अनपेक्षित पराजयसे नेताजीकी सर्व आकांक्षाएं धूमिल हो गइं । ऐसेमें अगले रणक्षेत्रकी ओर अर्थात् सयाम जाते समय १८ अगस्त १९४५ को फार्मोसा द्वीपपर उनका बॉम्बर विमान गिरकर उनका हदयद्रावक अंत हुआ । आजाद हिंद सेना दिल्लीतक नहीं पहुंच पाई; परंतु उस सेनाने जो प्रचंड आवाहन् बलाढ्य ब्रिटिश साम्राज्यके सामने खडा किया, इतिहासमें वैसा अन्य उदाहरण नहीं । इससे ब्रिटिश सत्ताको भयंकर झटका लगा । हिंदी सैनिकोंके विद्रोहसे आगे चलकर भारतकी सत्ता अपने अधिकारमें रखना बहुत ही कठिन होगा, इसकी आशंका अंग्रेजोंको आई । चतुर और धूर्त अंग्रेज शासनने भावी संकट ताड लिया । उन्होंने निर्णय लिया कि पराजित होकर जानेसे अच्छा है हम स्वयं ही देश छोडकर चले जाएं । तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्रीने अपनी स्वीकृति दे दी ।

७. ब्रिटिश भयभीत हो गए और नेहरू भी झुके

        स्वतंत्रताके लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाली नेताजीकी आजाद हिंद सेनाको संपूर्ण भारतवासियोंका उत्स्फूर्त समर्थन प्राप्त था । नेताजीने ब्रिटिश-भारतपर सशस्त्र आक्रमण करनेकी घोषणा की, तब पंडित नेहरूने उनका विरोध किया; परंतु नेताजीकी एकाएक मृत्युके उपरांत आजाद हिंद सेनाके सेनाधिकारियोंपर अभियोग चलते ही, संपूर्ण देशसे सेनाकी ओरसे  लोकमत प्रकट हुआ । सेनाकी यह लोकप्रियता देखकर अंतमें नेहरूको झुकना पडा, इतना ही नहीं उन्होंने स्वयं सेनाके अधिकारियोंका अधिवक्तापत्र (वकीलपत्र) लिया । अंततः आरोप लगाए गए सेनाके ३  सेनाधिकारी सैनिक न्यायालयके सामने दोषी ठहराए गए; परंतु उनका दंड क्षमा कर दिया; क्योंकि अंग्रेज सत्ताधीशोंकी ध्यानमें आया कि, नेताजीके सहयोगियोंको दंड दिया, तो ९० वर्षोंमें लोकक्षोभ उफन कर आएगा । आजाद हिंद सेनाके सैनिकोंकी निस्वार्थ देशसेवासे ही स्वतंत्रताकी आकांक्षा कोट्यवधी देशवासियोंके मनमें निर्माण हुई ।

संदर्भ : ‘झुंज क्रांतीवीरांची : स्वातंत्र्यलढ्याचा सशस्त्र इतिहास’, लेखक : श्री. सुधाकर पाटील

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