सारणी
- १. मनुष्यदेहकी अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी
- २. मृत्युके उपरांत जीवकी इच्छाओंमें अटकनेकी प्रक्रिया
- ३. श्राद्धके कारण पूर्वजदोषके (पितृदोषके) कष्टसे रक्षण कैसे होता है ?
- ४. पतिके निधनसे पूर्व मृत स्त्रियोंके श्राद्ध पितृपक्षकी नवमीको (अविधवा नवमीको) ही क्यों करें ?
- ५. दक्षिण दिशाकी ओर ढलानवाला स्थान श्राद्धके लिए अच्छा क्यों माना जाता है ?
- ६. श्राद्धमें पितृतर्पण करते समय तर्जनी एवं अंगूठेके मध्यसे जल क्यों छोडना चाहिए ?
- ७. श्राद्धके उपरांत
- ८. शास्त्रानुसार श्राद्धविधि न करनेसे संभावित हानि
- ९. श्राद्ध करनेसे पितरोंको सदगति प्राप्त हुई,यह जाननेके संदर्भमें लक्षण एवं अनुभूतियां
हिंदु धर्ममें उल्लेखित ईश्वरप्राप्तिके मूलभूत सिद्धांतोंमेंसे एक सिद्धांत ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं समाजऋण, इन चार ऋणोंको चुकाना है । इनमेंसे पितृऋण चुकानेके लिए ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है । माता-पिता तथा अन्य निकटवर्ती संबंधियोंकी मृत्योपरांत, उनकी आगेकी यात्रा सुखमय एवं क्लेशरहित हो तथा उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इस उद्देश्यसे किया जानेवाला संस्कार है ‘श्राद्ध’ । श्राद्धविधि करनेसे अतृप्त पितरोंके कष्टसे मुक्ति होनेसे हमारा जीवन भी सुखमय होता है ।
वर्तमान वैज्ञानिक युगकी युवा पीढीके मनमें ऐसी संभ्रांति उभरती है कि, ‘श्राद्ध’ अर्थात ‘अशास्त्रीय एवं अवास्तव कर्मकांडका आडंबर’ । धर्मशिक्षाका अभाव, अध्यात्मके विषयमें अनास्था, पश्चिमी संस्कृतिका प्रभाव, धर्मद्रोही संगठनोंद्वारा हिंदु धर्मकी प्रथा-परंपराओंपर सतत द्वेषपूर्ण प्रहार इत्यादिका यह परिणाम है । श्राद्धांतर्गत मंत्रोच्चारणमें पितरोंको गति प्रदान करनेकी सूक्ष्म शक्ति समाई हुई है; इसलिए श्राद्धविधिद्वारा पितरोंको मुक्ति मिलना संभव होता है ।
१. मनुष्यदेहकी अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी
अध्यात्मशास्त्रकी दृष्टिसे मनुष्यदेह पांच कोषोंसे बनी है ।
४.१ अन्नमयकोष : अर्थात हमें दिखाई देनेवाली स्थूल देह ।
४.२ प्राणमयकोष : इसमें संपूर्ण देहको शक्ति प्रदान करनेवाले पंचप्राण होते हैं ।
४.३ मनोमयकोष : यह भावनाओं एवं इच्छाओंका स्थान है ।
४.४ विज्ञानमयकोष : यह बुद्धिका स्थान है ।
४.५ आनंदमयकोष : यह सत-चित-आनंदमयी आत्माका स्थान है ।
अन्नमयकोष स्थूल है एवं अन्य कोष सूक्ष्म हैं । मृत्युके पश्चात जीवके अन्नमयकोष एवं प्राणमयकोष नहीं रहते; परंतु मनोमयकोष, विज्ञानमयकोष एवं आनंदमयकोष जीवके साथ रहते हैं । इसलिए मृत्युके पश्चात स्थूलदेह नष्ट हो जानेपर भी जीवका अस्तित्व समाप्त नहीं होता । मनुष्यदेह नष्ट हो जानेपर भी उसकी इच्छाएं समाप्त नहीं होतीं । इसी कारण जीव मृत्युके पश्चात इच्छाओंमें अटक जाता है एवं उसके लिए सदगति प्राप्त होनेमें बाधाएं उत्पन्न होती हैं ।
२. मृत्युके उपरांत जीवकी इच्छाओंमें अटकनेकी प्रक्रिया
मृत्युके पश्चात अपनी इच्छाओंकी तृप्तिके लिए जीव सतत प्रयत्नरत रहता है । इसके लिए वह कभी-कभी दूसरोंकी देहमें भी बलपूर्वक प्रवेश करता है । मनुष्यकी इच्छाएं तो अनंत जन्मोंका अतिविशाल संग्रह हैं, इसलिए इन इच्छाओंके अनेक बंधन तैयार हो जाते हैं । इच्छाओंके कारण मृत्युके पश्चात जीव अपने कर्मके अनुसार अनेक लोकोंमें जाता है । एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जानेके उपरांत भी, उस जीवमें, अपने पूर्व स्थानसे अत्यधिक लगाव रहता है । यह हुई जीवकी ‘मृत्युके पश्चात इच्छाओंमें अटकने’की प्रक्रिया । मृत्युके पश्चात इच्छाओंमें अटकनेकी प्रक्रियाको ही मृत्युके पश्चात सदगतिमें बाधा आना कहते हैं । इन्हीं कारणोंसे मृत व्यक्तिके परिजनोंपर, इच्छाओंमें अटकनेकी इस प्रक्रियासे व्यक्तिको मुक्त करनेका दायित्व आता है ।
३. श्राद्धके कारण पूर्वजदोषके (पितृदोषके) कष्टसे रक्षण कैसे होता है ?
‘श्राद्धद्वारा उत्पन्न ऊर्जामें तथा मृतकोंके लिंगदेहमें समाई हुई त्रिगुणात्मक ऊर्जामें समानता दिखाई देती है; इसलिए अल्पावधिमें श्राद्धसे उत्पन्न ऊर्जाके बलपर लिंगदेह मृत्युलोक पार करती है । ( मृत्युलोक – यह भूलोक एवं भुवलोकके मध्य स्थित है । ) एक बार जो लिंगदेह मर्त्यलोकको पार कर लेती है, वह पुन: लौटकर पृथ्वीपर रहनेवाले सामान्यजनोंको कष्ट देनेके लिए पृथ्वीकी वातावरण-कक्षामें नहीं आ सकता । अत: श्राद्धका अत्यंत महत्त्व है; अन्यथा वासनाओंके फेरेमें फंसी हुई लिंगदेह, व्यक्तिकी साधनामें बाधाएं लाकर उसे साधनासे परावृत्त कर सकती हैं ।’
४. पतिके निधनसे पूर्व मृत स्त्रियोंके श्राद्ध पितृपक्षकी नवमीको (अविधवा नवमीको) ही क्यों करें ?
‘नवमीके दिन ब्रह्मांडमें रजोगुणी पृथ्वी एवं आप तत्त्वोंसे संबंधित शिवतरंगोंकी अधिकता होती है । इसके कारण इन तरंगोंकी सहायतासे श्राद्धविधिसे प्रक्षेपित मंत्रोच्चारणयुक्त तरंगें शिवरूपमें ग्रहण करनेका सूक्ष्म बल उस विशिष्ट संबंधित सुहागनकी लिंगदेहको प्राप्त होती है । इस दिन कार्यरत शिवतरंगों का पृथ्वी एवं आप तत्त्वात्मक प्रवाह संबंधित लिंगदेहके लिए आवश्यक तरंगोंका अवशोषण करनेमें पोषक और पूरक होता है । इस दिन सुहागनमें निहित शक्तितत्त्वका सूक्ष्म शिवशक्तिसे संयोग होनेमें सहायता होती है तथा सुहागनकी लिंगदेह त्वरित उध्र्व गति धारण करती है ।
इस दिन शिवतरंगोंकी अधिकताके फलस्वरूप सुहागनको सूक्ष्मरूपी शिवतत्त्वका बल प्राप्त होता है । उसके स्थूल शिवरूपी पुरुषप्रकृतिसे जुडे पृथ्वीतत्त्वके संस्कारोंसे संबंधित घनिष्ट आसक्ति युक्त तंतुओंका विघटन होता है । इससे उसे पतिबंधनसे मुक्त होनेमें सहायता मिलती है । इसलिए रजोगुणी शक्तिरूपकी प्रतीक सुहागनका श्राद्ध महालयमें शिवतरंगोंकी अधिकता दर्शानेवाली नवमी के दिन करते हैं ।’
५. दक्षिण दिशाकी ओर ढलानवाला स्थान श्राद्धके लिए अच्छा क्यों माना जाता है ?
‘दक्षिणकी ओर प्रबलतासे कार्यरत यमतरंगोंका प्रवृत्ति भूमिसे संलग्न अधिक दबावके उतारदर्शक पट्टेमें, अर्थात जडत्वधारकतासे संलग्न होकर स्थिर होनेकी रहती है । अत: इस पट्टेमें श्राद्धकी विधि करनेसे यमतरंगोंकी कार्यरत अधिकतासे एवं सहायतासे पितरोंको अपना विशिष्ट हविर्भाग शीघ्र प्राप्त कर उन्हें संतुष्ट करना संभव होता है । इसलिए दक्षिणकी ओर उतरता हुआ स्थान श्राद्धविधिके लिए पूरक और पोषक होता है ।’
६. श्राद्धमें पितृतर्पण करते समय तर्जनी एवं अंगूठेके मध्यसे जल क्यों छोडना चाहिए ?
‘अंगूठेपर शिव एवं मीनाक्षी देवताओंके तत्त्वोंका वास होने और मीनाक्षी देवी इच्छाको गति देनेवाली होनेके कारण तर्जनी तथा अंगूठेके मध्यसे जल छोडनेसे शिवरूपी पुरुषतत्त्वसे संबंधित कर्ताको मीनाक्षीरूपी स्वयंचलित इच्छाका शक्ति रूपी बल प्राप्त होकर इच्छित मनोकामना पूर्ण होती है; इसलिए श्राद्धादि कर्म पितरोंसे संबंधित इच्छाधारी विधिमें अंगूठे एवं तर्जनीके मध्यसे जल छोडना महत्त्वपूर्ण माना जाता है । यह इच्छासे संबंधित एक निर्मितिजन्य प्रक्रिया है ।’
७. श्राद्धके उपरांत
अ. पितरोंद्वारा प्रत्यक्ष दृष्टांत देकर संतुष्टिकी पुष्टि करना
आ. लिंगदेहके वातावरणमें भटकते रहनेका आभास कभी भी न होना
इ. मृत्युस्थलपर शांतिका आभास होना अथवा मृत्युस्थलपर प्रसन्नताकी अनुभूति होना (जब लिंगदेह वायुमंडलमें ही भटकती रहती है तब उस स्थलपर चक्रवात जैसी ध्वनि गूंजती अनुभूत होती है । ऐसे स्थलको देखनेसे सिर भारी हो जाता है तथा चक्कर आकर प्राणशक्तिका ह्रास होता है ।)’
८. शास्त्रानुसार श्राद्धविधि न करनेसे संभावित हानि
अ. लिंगदेह एक ही स्थिर कक्षामें अनेक वर्षोंतक अटकी रहती है ।
आ. अटकी हुई लिंगदेह मांत्रिकोंके अधीन होकर उनकी आज्ञानुसार परिवारके सदस्योंको कष्ट दे सकती है । लिंगदेह आगे न जाकर एक नियत कक्षामें अटकी रहनेसे उसके कोषोंसे प्रक्षेपित परिजनोंसे संबंधित आसक्तिदर्शक लेन-देन युक्त तरंगोंसे परिवारके सदस्य प्रभावित होते हैं । इसके कारण उन्हें कष्ट होनेकी संभावना अधिक होती है ।
९. श्राद्ध करनेसे पितरोंको सदगति प्राप्त हुई, यह जाननेके संदर्भमें लक्षण एवं अनुभूतियां
९ अ. श्राद्ध विधि करते समय
१. अत्यधिक उत्साह लगना
२. सूक्ष्म गंधकी अनुभूति होना
३. पिंडके चारों ओर सूक्ष्म तेजोवलय दिखना
४. निम्न प्रकारकी अनुभूतियां होना
९ आ. श्राद्धकी प्रत्येक विधिसे पितरोंकी आत्माएं तृप्त होनेकी अनुभूति होना
‘३.६.२००५ को अपने पिताजीके श्राद्धके समय प्रत्येक विधि करते समय मुझे संतोष हुआ । श्राद्धके लिए सिद्ध (तैयार) किए पिंड अति तेज:पुंजसमान दिखाई दे रहे थे, उसी प्रकार उनपर अर्पित पुष्प भी बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे । पितरोंके नामसे दिया गया ब्राह्मणभोजन संपन्न होनेपर मुझे अपने पिता, उसी प्रकार अन्य पितरोंकी आत्माएं तृप्त होनेकी अनुभूति हुई ।’ – श्री. नितीन सहकारी, गोवा.
९ इ. शास्त्रानुसार विधिके फलस्वरूप तृप्त ससुरजी आशीर्वाद दे रहे हैं, ऐसा लगना
‘३.६.२००५ को मेरे ससुरजीके श्राद्धके समय ससुर, उनके पिता एवं ससुरजीके पितामह, इन तीनोंके अस्तित्वका मुझे अनुभव हुआ । उनके लिए बनाए गए तीनों पिंडोंके चारों ओर हलका पीला प्रकाश दिखाई दिया । शास्त्रानुसार की गई विधियोंके फलस्वरूप ऐसा लगा कि तीनों ही तृप्त होकर आशीर्वाद दे रहे हैं ।’ – श्रीमती श्रुती नितीन सहकारी, गोवा.
(हिंदु धर्ममें पिताके श्राद्धके समय पितामह व प्रपितामह इनके नामसे भी पिंडदान किया जाता है । साधिकाको हिंदु धर्मद्वारा बताए तात्त्विक भागकी प्रायोगिक अनुभूति हुई । इससे हिंदु धर्मद्वारा बताए शास्त्रकी सत्यता ज्ञात होती है । – संकलनकर्ता)
श्राद्धादि करनेपर पिंडको स्पर्श करनेके लिए कौएको बुलाना पडता है; किंतु पिताके श्राद्धके समय तीन-चार कौए पहलेसे ही आकर पेडपर बैठे थे ।’ – श्री. नितीन सहकारी, गोवा.
९ ई. ‘साधारणत: कोई भी धार्मिक कृति करते समय उसके पीछेका भाव महत्त्वपूर्ण होता है । भावसहित की गई कृतिका फल अधिक मिलता है । इस नियमानुसार श्राद्धकर्म केवल यंत्रवत करनेकी अपेक्षा ‘पूर्वज तृप्त हों और उन्हें शीघ्र गति मिले’, इस तीव्र इच्छासे श्राद्धकर्म करनेपर उसका फल अधिक मिलता है । हमारी सदिच्छा और हमारेद्वारा अर्पित अन्न पूर्वजोंकी लिंगदेहोंको सूक्ष्मसे प्राप्त होता है; परंतु दृश्यस्वरूपमें हमारे लिए उसकी पुष्टि प्राप्त करना संभव नहीं होता ।
(प्राय: आस-पासके रज-तमात्मक वातावरणको भेदकर पूर्वजोंकी लिंगदेहोंको पिंडोंमें आना कठिन होता है; परंतु यहां पूर्वजोंका व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्तर, विधि करनेवालेका भाव एवं पूर्वजोंको गति प्राप्त हो, इसके लिए श्री दत्तगुरुसे प्रार्थना करनेके कारण, वातावरणमें चैतन्य निर्मित होकर पूर्वजोंका आगमन सरल हुआ । – संकलनकर्ता)
संदर्भ – सनातनके ग्रंथ – ‘श्राद्ध (महत्त्व एवं शास्त्रीय विवेचन)’ एवं ‘श्राद्ध (श्राद्धविधिका शास्त्रीय आधार)’