‘नेता’ इस उपाधिका सार्थ प्रतीक : नेताजी सुभाषचंद्र बोस

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नेता’ इस उपाधिका सार्थ प्रतीक : नेताजी सुभाषचंद्र बोस

        भारतीय स्वतंत्रताके इतिहासमें अनेक क्रांतिकारियोंने अपने बलिदानसे अपना एक विशेष स्थान निर्माण किया है; परंतु इन सभी क्रांतिकारियोंमें केवल भावनाके स्तरपर न रहते हुए विवेकबुद्धिकी सहायतासे, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा !’ इस ललकारके साथ अपने प्रखर क्षात्रतेजका तथा संगठन कुशलताके परिचायक तथा ‘नेता’ इस उपाधिको सर्वथा सार्थ करनेवाला केवल एक ही नाम है, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ! भारतीयोंको संगठित कर उन्हें शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्यके विरुद्ध सशस्त्र क्रांतिकी ओर ले जानेवाले इस महानायकको इतिहास सदैव नेताके रूपमें ही जानेगा । हे भारतवासियों ! हिन्दुस्थानी शासन सदा ही क्रांतिकारियोंकी उपेक्षा करता आया है; परंतु आप उनके प्रति कृतघ्न ना हो !

        आज भारत स्वतंत्र है, तो भी आज चीन, पाकिस्तान ये बाह्यशत्रु तथा यहीं रहनेवालोंकी राष्ट्र एवं धर्मद्रोही शक्तियोंसे भारत प्रतिक्षण खोखला होता जा रहा है; इसीलिए इस देशमें आज भी, देशवासियोंको संगठित करके उनमें राष्ट्रतेज जागृत करनेकी आवश्यकता है । नेताजीकी ओर देखते समय उन्हें एक व्यक्तिके रूपमें देखनेकी अपेक्षा राष्ट्रभक्तिकी एक मूर्ति उदाहरणके रूपमें देखनेसे ही उनका उचित सम्मान होगा । आजकी परिस्थितिमें भी नेताजीका जीवन संपूर्ण भारतवर्षके लिए दीपस्तंभ जैसा मार्गदर्शक है । नेताजी राष्ट्रजागृतिके लिए आवश्यक दैवी गुणोंका भंडार ही थे । राष्ट्रभक्ति जगानेके लिए इन गुणोंका अभ्यास करके वे गुण अपनेमें लाना यही उनके चरणोंमे खरी आदरांजली होगी ।

उत्कट राष्ट्रभक्तिका ध्येय एवं उसके प्रति अटूट निष्ठा

        नेताजीके जीवनका केवल एक ही ध्येय था, भारतमाताकी स्वतंत्रता ! जीवनके अंततक अनेक प्रकारकी बाधाएं आनेपर भी वे अपने ध्येयसे कभी भी विचलित नहीं हुए । इस संदर्भमें १८ वर्षकी आयुमें एक मित्रको भेजे हुए पत्रमें वे लिखते हैं, ‘मुझे दिन-प्रतिदिन ऐसा लगने लगा है, कि मेरे जीवनका एक निश्चित ध्येय है । लोगोंकी वर्तमान मतप्रवाहकी धारामें बहनेवाला मैं नहीं हूं । लोग मुझे बुरा-भला जो भी कहे, वह तो संसारका न्याय ही है; परंतु मैं अपनी सद्विवेक-बुद्धिसे चलनेवाला हूंं, इसीलिए मैं कभी भी विचलित नहीं हो सकता ।’

दुर्दम्य आशावाद एवं विजिगिषु वृत्ति

        दूसरे महायुद्धमें जर्मनी एवं जापानकी हार होनेपर हताश न होते हुए उन्होंने अपने सहयोगियोंसे कहा था, ‘मित्रो इस आपात स्थितिके प्रसंगमें मैं आपसे केवल इतना ही कहूंंगा कि, यदि हम पराभूत होते हैं तो भी उस पराजयका वीरोंकी भांति स्वाभिमानसे एवं संयमसे स्वीकार करें । हिन्दुस्थानकी भावी पीढियां जब स्वतंत्र होंगी तब वे आपके इस महान त्यागको स्मरण कर आपको धन्यवाद देते हुए बडे गौरवसे विश्वको बताएगी कि, हमारे पूर्वज मणिपुर, असम, ब्रह्मदेशमें लडते हुए यदि वे उस समय पराभूत हुए तो भी तत्कालीन पराभवसे ही उन्होंने हमारे लिए अंतिम यश एवं कीर्तिमानका मार्ग खोल दिया है । भारतकी स्वतंत्रतापर मेरी अटल श्रद्धा है । आप अग्रणी स्वतंत्रता सैनिक हो, आप अपने प्राणोंका मूल्य देकर भी राष्ट्रकी प्रतिष्ठा बनाए रखेंगे इसमें मुझे कोई आशंका नहीं ।’ इससे नेताजीकी पराजयमें भी विजयकी ओर देखनेकी विजिगिषु वृत्ति तथा सकारात्मक दृष्टिकोण ध्यानमें आता है, जो उनके नेतृत्वको बहु आयामी बनाता है ।

निर्भयताकी परिसीमासे बनी अद्भुत साहसी वृत्ति

        नेताजीकी साहसी वृत्तिके परिचायक अनेक प्रसंग उनके जीवनमें आए । उनका संपूर्ण जीवन ही अद्भुत साहस एवं निर्भयताकी परिसीमासे ओत-प्रोत है । उनकी साहसी वृत्तिकी पराकाष्ठा अर्थात हॉलवेल स्मारकके प्रकरणमें अंग्रेजोंके बंदिवाससे उनका पलायन । इस बंदिवासमें उनकी मनःस्थिति अत्यंत विचलित थी । उस समय किए विचारमंथनके पश्चात उन्होंने अपनी भूमिका प्रकट की है, जो आज भी प्रत्येक व्यक्तिके लिए उद्बोधक है । वे कहते हैं, ‘पूर्ण विचारोंपरांत मेरी बुद्धिने परिस्थितिको शरण जानेवाली भीरु वृत्तिको हृदयसे पूर्णतः हटा दिया है; क्योंकि स्वयं अन्यायी आचरण करनेसे भी बलपूर्वक अपनेपर लादे गए अन्यायके सामने झुकना यह अत्यंत निंदनीय पाप है । अर्थात अन्यायका प्रतिकार करना ही चाहिए ।’

        आगे क्या होगा, वैâसे होगा इसका तनिक भी विचार न करते हुए उन्होंने विदेश जाकर अंग्रेजोंके विरुद्ध सशस्त्र क्रांति करनेका निर्णय लिया । इससे ही उनकी निर्भयता ध्यानमें आती है । ध्येयप्राप्तिके लिए कोई भी संकट उठानेको वे तत्पर रहते थे ।

नेताजीके आत्मसमर्पणका तत्त्वज्ञान

        स्वतंत्रताप्राप्तिके लिए आत्मसमर्पण करनेको सदैव तैयार रहनेवाले नेताजीके विचार इस प्रकारके हैं । ‘आत्मयज्ञ कभी भी निष्फल नहीं होता । सर्व कालमें, सर्व राष्ट्रोंमें एक ही शाश्वत नियम विजयी हुआ है, वह है ‘हुतात्माओंके रक्तमांससे ही देशभक्तिके यशोमंदिर खडे होते हैं !’ इस नश्वर जगत्में प्रत्येक पदार्थमात्र नाशवान है । केवल विचार एवं ध्येय नाशवान नहीं । एक सद्विचारके कारण किसी व्यक्तिकी मृत्यु हो सकती है; परंतु उसकी मृत्युके पश्चात वही विचार सहस्त्रों लोगोंमें स्फुरण निर्माण करेगा । यह विश्वचक्र ही ऐसा है । एक पीढीका तत्त्वज्ञान आत्मसात करके ही दूसरी पीढी सफल होती है । अपने सिद्धांतका पुनर्जन्म होगा इससे अधिक संतोषकी बात और क्या होगी ? अतः त्यागसे कभी भी, कुछ भी तथा किसीकी भी हानि नहीं होती; क्योंकि उसका फल समय आनेपर अनंत गुना मिलता है । एक व्यक्तिकी मृत्युसे यदि राष्ट्र जीवित रहता है, तो उस व्यक्तिको अपना बलिदान अवश्य देना चाहिए । हिन्दुस्थान स्वतंत्र होनेके लिए आज मैं मृत्युके मुखमें जा रहा हूं !’ ऐसा जिसका तत्त्वज्ञान है, उसकी दृष्टिमें राष्ट्रके लिए मृत्यु अर्थात राष्ट्रके लिए एक गौरवशाली उपलब्धि ही होगी ।

ईश्वरीय अधिष्ठानके बलपर कार्य करनेसे

ही प्रतिकूल परिस्थितिपर मात करनेकी क्षमता होना

        नेताजीपर बचपनसे ही रामकृष्णादि अवतारोंके तत्त्वज्ञानका संस्कार था । इसलिए उनके कार्यको स्वभावतः ही ईश्वरीय अधिष्ठान था, यह उनके वक्तव्यसे बार-बार स्पष्ट होता है । मंडालेके कारागृहके वास्तव्यमें इस विषयमें उनके विचार अत्यंत चिंतनीय हैं । ‘मेरी मनःस्थिति अत्यंत शांत है । जो होगा वो भगवानकी इच्छासे होगा, वह स्वीकारनेकी क्षमता भी मुझमें आयी है अर्थात इसका सर्व श्रेय उसी जगन्नियंताको ही है । मेरे विचार, कल्पनाएं तथा ध्येय कल्पनामें भी नष्ट नहीं होंगे । आनेवाली पीढियोंको उसका अवश्य उपयोग होगा । इसी आत्मविश्वासके बलपर मैं सब क्लेश एवं आपदाएं सह सकता हूं!’

        आजाद हिन्द सेनाके सैनिकोंको संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, – ‘ईश्वरकी कृपा होगी तो शत्रुके घेरेमें रहकर भी हम अपना मार्ग ढूंढ सकते हैं ।’ ‘जो स्वतंत्रताके मार्गपर चल रहे हैं उनके पीछे स्वयं भगवान खडे रहते हैं, वही हमें यश देंगे !’

सातत्य, दृढता तथा पराक्रमकी पराकाष्ठा

        स्वतंत्रता आंदोलनमें उतरनेसे लेकर मृत्युद्वारा गले लगानेतक उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्तिके लिए अविरत परिश्रम किए । अपने स्वास्थ्यका कभी विचार नहीं किया । ब्रिटिश साम्राज्यके विरुद्ध अविरत लडनेवाले योद्धाके रूपमें लोग उनकी ओर देखते थे । स्वयं गांधीजीने कहा था, ‘नेताजीका साहस एवं पराक्रम मुझे उनके हिन्दुस्थान छोडनेपर ज्ञात हुआ !’

अपार संगठन कुशलता

आजाद हिन्द सेनाके साथ नेताजी

आजाद हिन्द सेनाके साथ नेताजी

         शूर पुरुष अकेला होनेपर भी सूर्यकी तेज समान सर्व भूमंडलमें व्याप्त होता है, वैसे ही नेताजीके इसी तेजका दर्शन होनेपर गांधीजीने कहा, ‘नेताजीके संगठन कौशलकी तथा धैर्यकी कल्पना उनके हिन्दुस्थानसे जानेके पश्चात हुई ।’ ब्रिटिश साम्राज्यके कालमें भारतके बाहर जाकर अकेले शत्रुराष्ट्रसे मंत्रणा करके उनकी सहायतासे ब्रिटिश साम्राज्यको ध्वस्त करनेके लिए संगठन सुगठित करना इससे उनकी राजनीति ध्यानमें आती है ।

आदर्श नेता

        कोई भी नेता अपने अनुयायियोंके सामने आदर्श रख सकता है, ऐसे ही उनके आचार-विचार थे । युद्धभूमिमें भी वे सैनिकोंके साथ होते थे । एक बार लडाकू विमानमें से मशीनगनसे गोलियां चल रही थी, तब भी वे अपने सहयोगियोंके साथ रणक्षेत्रमें खडे थे । सहयोगी उन्हें सुरक्षित स्थानपर जानेकी विनती कर रहे थे, तब मना करते हुए उन्होंने कहा, ‘यदि मेरे साथ ३ सहस्त्र सैनिक निर्भयतासे यहां खडे हैं, तो मैं क्यों नहीं रह सकता ?’ किसी भी प्रसंगमें कार्यको अधिक महत्त्व देकर अपने स्वास्थ्यकी उपेक्षा की । उनका भोजन भी अलग नहीं होता था, सैनिक जो भोजन लेते वही भोजन वे लेते थे । इस प्रकार नेताजी जन्मजात नेता थे । लो. तिलक एवं छत्रपति शिवाजी महाराज उनके आदर्श थे ।

(संदर्भ : ‘सुभाष’, ले.- भा. कृ. केळकर, काँटिनेंटल प्रकाशन, पुणे.
प्रथमावृत्ती १९४६)

कांग्रेसके गांधीवादी विचारोंका विरोध

       स्वतंत्रता संग्राममें कांग्रेस ही एक बडा संगठन था । इसीके माध्यमसे नेताजीको नेतृत्वका अवसर मिला था । उन्होंने पूरे संगठनको भिन्न दिशा देनेका साहस दिखाया । कांग्रेसकी सौम्य तथा विरोध न करनेकी नीति थी । नेताजीने कांग्रेसकी इस नीतिका विरोध किया । यह विरोध अर्थात कांग्रेसके गांधी विचारोंका ही विरोध है ऐसा माना जाने लगा । जिससे गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसादको यह अच्छा नहीं लगा । परिणामस्वरूप उन्होंने नेताजीको विरोध करना आरंभ किया ।

नेताजीके विरुद्ध कांग्रेसका षड्यंत्र

        नेताजीके प्रत्येक निर्णयका विरोध करना, उनकी अवमानना करना, यही कार्य कांगे्रसके कार्यकर्ता करते रहते । इस षड्यंत्रके कारण नेताजीको पग-पगपर अडचनोंका सामना करना पड रहा था, जिससे उनकी घुटन होने लगी । एक बार तो ‘नेताजी विरुद्ध संपूर्ण कांग्रेस’ ऐसा प्रसंग निर्माण हुआ था । उस समय कांग्रेस दलका प्रथम निर्वाचन (चुनाव) हुआ था । उस समयतक गांधीके गुटके व्यक्ति अध्यक्षके पदपर निर्वाचित होते थे; परंतु इस बार नेताजी बहुमतसे निर्वाचित हुए । गांधी गुटकी अवमानना होनेसे उन्होंने दलके कार्यका तथा स्वतंत्रताका ध्येय एवं चिंतन छोडकर अपनी सारी शक्ति केवल नेताजीको विरोध करनेमें लगायी ।

नेहरूकी ओरसे नेताजीका विरोध

        जब आजाद हिन्द सेना भारतपर आक्रमणकी तैयारी कर रही थी, तब नेहरूने कहा, ‘‘सुभाष यदि अपनी सेना लेकर भारतपर आक्रमण करेगा, तो सबसे पहले मैं उसका विरोध करने हेतु अपने हाथमें तलवार लेकर खडा रहूंगा ।’’

(सौजन्य दैनिक सनातन प्रभात)

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