जीवनभर प्राथमिक चरण की साधना कर भी अपेक्षित उन्नति न होने के कारण

कई लोग कहते हैं, ‘‘मैं अनेक वर्षों से प्रतिदिन १-२ घंटे ग्रंथों का पठन करता हूं अथवा मंदिर की परिक्रमा करता हूं । ऐसा करनेवाले अधिकांश लोगों की साधना में उन्नति होते नहीं दिखाई देती । इसके कारण निम्नानुसार हैं –
१. उपर्युक्त कृत्य करना साधना के शिशुविहार में शिक्षा लेने जैसा है । हम जीवनभर शिशुविहार में ही नहीं जाते, अपितु आगे-आगे जाकर सिखते हैं ।
२. ग्रंथ का पठन करने की अपेक्षा ग्रंथ में जो कहा गया है, उसको वास्तविकता में लाना साधना में अपेक्षित होता है; क्योंकि साधना प्रत्यक्ष क्रियान्वयन का शास्त्र है । ग्रंथ में जो कहा गया है, उसे वास्तविकता में नहीं लाया गया, तो यह ग्रंथपठन आध्यात्मिक स्तर का न रहकर वह केवल मानसिक स्तर का रह जाता है तथा उससे मन में ‘मैं साधना करता हूं’, इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होता है ।

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