व्यष्टि एवं समष्टि साधना परस्परों के लिए अनुपूरक !

व्यष्टि एवं समष्टि साधना परस्परों के लिए अनुपूरक !

१. व्यष्टि साधना : इस साधना को करनेवालों का आध्यात्मिक स्तर ८० प्रतिशत होनेतक उनका ध्यान अपनी स्वयं की प्रगति की ओर ही होता है । उसके आगे जानेपर उनके अज्ञानवश ही उनके अस्तित्व के कारण उनके द्वारा समष्टि का कार्य होने लगता है । जैसे ईश्‍वर के केवल अस्तित्व के कारण अनंत कोटि ब्रह्मांड का कार्य चलता है, उस प्रकार से कार्य होने लगता है ।

२. समष्टि साधना : कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि, व्यष्टि साधना करने की अपेक्षा समष्टि साधना करना अर्थात अधिकाधिक लोग साधना करें अर्थात माया में लिप्त लोग सात्त्विक हों, इसके लिए प्रयास करना अधिक महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि उसके कारण व्यापकता आती है । यहां यह ध्यान में लेना होगा कि, व्यष्टि साधना की नींव अच्छी होने के बिना समष्टि साधना अच्छी नहीं होती । अपनी व्यष्टि साधना न होते हुए भी ऐसा जो करते हैं, उनके द्वारा समष्टि साधना न होकर केवल कार्य होता है तथा उसके लिए ईश्‍वर का आशीर्वाद न होने से उसकी फलनिष्पत्ति भी अल्प होती है ।

संक्षेप में हम ऐसा कह सकते हैं कि, शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति हेतु व्यष्टि एवं समष्टि ये दोनो साधनाएं परस्परों के लिए अनुपूरक हैं ।

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