नवरात्रिके अन्य दिनोंका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

सारणी


नवरात्रिके नौ दिनोंमें घटस्थापनाके उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमीका विशेष महत्त्व है । पंचमीके दिन देवीके नौ रूपोंमें से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुरसुंदरीका व्रत होता है । शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं । इन तिथियोंपर चंडीहोम करते हैं । नवमीपर चंडीहोमके साथ बलि समर्पण करते हैं ।

१. नवरात्रिकी पंचमीपर ललितापूजन

नवरात्रिकी कालावधिमें पंचमीकी तिथिपर ब्रह्मांडमें शक्तितत्त्वकी गंधतरंगें अधिक मात्रामें कार्यरत रहती हैं । शक्तितत्त्वकी इस गंधतरंगोंकी गंधमयताको `ललिता’ के नामसे जानते हैं । यही कारण है कि, नवरात्रिके कालमें आनेवाली पंचमीको `ललितापंचमी’ कहते हैं । पंचमीके दिन देवीपूजन करनेसे ब्रह्मांडमें विद्यमान ये गंधतरंगें पूजास्थानकी ओर आकृष्ट होती हैं । इन गंधतरंगोंके कार्यके कारण पूजकके मनोमयकोषकी शुद्धि होती है ।

२. नवरात्रिकी षष्ठी तिथिका महत्त्व

षष्ठीके दिन देवीका विशेष पूजन किया जाता है और देवीकी आंचलभराई भी की जाती है । इस कालमें भक्त रातभर जागरण करते हैं, जिसे उत्तर भारतमें जगराता भी कहते हैं। यह देवीकी उपासनाका एक अंग है । जिसमें देवीसंबंधी भजन-कीर्तन होता है । उसी प्रकार महाराष्ट्रमें कुछ लोग `वाघ्या-मुरळी’के गीत एवं भारूडके नामसे प्रचलित संत एकनाथजीके भजन गाते हैं । इस जागरणको महाराष्ट्रमें `गोंधळ’ कहते हैं । देवीकी स्तुतिवाले भजन गानेके लिए विशेष लोगोंको बुलाया जाता है । देवीका पूजन किया जाता है । लकडियोंपर वस्त्र लपेटकर विशेष दीप बनाए जाते हैं । ऐसे दीपको `दिवटी’ कहते हैं । इन दीपोंका पूजन कर प्रज्वलित करते हैं । विशेष तालवाद्यके साथ गीत गाते हैं ।

२ अ. नवरात्रिमें जागरण करनेका शास्त्रीय आधार

जागरण करना, यह देवीकी कार्यस्वरूप ऊर्जाके प्रकटीकरणसे संबंधित है । नवरात्रिकी कालावधिमें रात्रिके समय श्री दुर्गादेवीका तत्त्व इस कार्यस्वरूप ऊर्जाके बल पर इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान शक्तिके माध्यमसे व्यक्तिको कार्य करनेके लिए बल प्रदान करता है । जागरण करनेसे उपवासके कारण सात्त्विक बने देहद्वारा व्यक्ति वातावरणमें कार्यरत श्री दुर्गादेवीका तत्त्व इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान इन तीनों स्तरोंपर सरलतासे ग्रहण कर पाता है । परिणामस्वरूप उसके देहमें विद्यमान कुंडलिनीके चक्रोंकी जागृति भी होती है । यह जागृति उसे साधनापथपर अग्रसर होनेमें सहायक सिद्ध होती है । यही कारण है कि, शास्त्रोंने नवरात्रिकी कालावधिमें उपवास एवं जागरण करनेका महत्त्व बताया है ।

२ आ. बंगालमें दुर्गापूजनमें षष्ठीके दिन करनेका विशेष पूजनविधि

बंगालमें शारदीय दुर्गापूजा दस दिन मनाते  हैं । प्रतिपदाके दिन संध्याकालमें श्री दुर्गादेवीका आवाहन कर बेलके वृक्षमें उनकी स्थापना करते हैं । इसे `श्री दुर्गादेवीका अधिवास’ अथवा `छोटी बिल्लववरण’ कहते हैं । छठे दिन अर्थात षष्ठी तिथिको बेलके वृक्षमें उनका पूजन करते हैं । इस पूजनमें देवीको विभिन्न प्रकारके फल, फूल, पत्र तथा अनाज अर्पण करते हैं । इस पूजनमें बेलके फूलोंका विशेषरूपसे उपयोग करते हैं । इस पूजनको `बडी बिल्लववरण’ कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि, मां दुर्गा नवरात्रिके प्रथम दिनसे षष्ठीतक बेलके वृक्षमें वास करती हैं अर्थात इस कालमें शक्तितत्त्व बेलके वृक्षमें आकर्षित होकर संचयित रहता है । षष्ठीके दिन देवीका विशेष पूजन एवं अनुष्ठान करते हैं ।

३. नवरात्रिकी सप्तमी काे देवीमांके `कालरात्रि’ रूपका पूजन

सप्तमीके दिन देवीमांके दैत्य-दानव, भूत-प्रेत इत्यादिका नाश करनेवाले `कालरात्रि’ नामक रूपका पूजन करते हैं।

बंगालमें दुर्गापूजाकी सप्तमीपर नदी अथवा किसी जलाशयसे पांच कलशोंमें जल लाकर श्री गणेश, श्री महालक्ष्मी, कार्तिकेय, सरस्वती देवी तथा दुर्गादेवीके लिए घटस्थापना करते हैं । यहां उल्लेखनीय भाग यह है कि, इस दिनसे केलेके पेडको/तनेको पीली साडी पहनाकर श्री गणेशजीकी प्रतिमाके साथ रखते हैं और श्री गणेशकी शक्तिके प्रतीकके रूपमें उसका पूजन करते हैं ।

दुर्गाष्टमी आैर देवीसमक्ष गागर फूंकना दृश्यपट (Navratri Video)

४. दुर्गाष्टमी (महाष्टमी)

दुर्गाष्टमीके दिन देवीके अनेक अनुष्ठान करनेका महत्त्व है । इसलिए इसे `महाष्टमी’ भी कहते हैं । अष्टमी एवं नवमीकी तिथियोंके संधिकालमें अर्थात अष्टमी तिथि पूर्ण होकर नवमी तिथिके आरंभ होनेके बीचके कालमें देवी शक्तिधारणा / शक्ति धारण करती हैं । इसीलिए इस समय श्री दुर्गाजीके ‘चामुंडा’ रूपका विशेष पूजन करते हैं, जिसे `संधिपूजन’ कहते हैं ।

महाष्टमीके दिन बीजरूपी धारणासे सरस्वतीतत्त्वका ब्रह्मांडमें तेजस्वी आगमन होता है । इसीको `सरस्वती तत्त्वका आवाहनकाल’ कहते हैं । इस कालमें शक्तिका रूप प्रज्ञारूपी प्रगल्भतासे संचारित रहता है । ये शक्तिकी तारक रूपकी तरंगें होती हैं । इस कालमें सरस्वतीकी तारक तरंगाेंके स्पर्शसे जीवकी आत्मशक्ति जागृत होती है और वह प्रज्ञामें रूपांतरित होती है । इसलिए पूजकको आनंदकी अनुभूति होती है ।

४ अ. आनंदकी अनुभूति देनेवाली देवीमांके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए बंगाल और महाराष्ट्र प्रांतोंमें अष्टमी मनानेकी पद्धतियां

बंगालमें अष्टमीके दिन देवीमांका षोडष उपचार पूजन करते हैं । इस पूजनमें माताको कमलके १०८ फूल अर्पित किए जाते हैं । कहीं-कहीं इस पूजनमें सोलह प्रकारके व्यंजन बनाकर देवीमांको `शोडष भोग’ भी चढाया जाता है । अष्टमीके दिन प्रात: शूचिर्भूत होकर वस्त्र, शस्त्र, छत्र, चामर इत्यादि राजचिन्हों सहित देवी भगवतीका पूजन करनेका विधान है । उस समय भद्रावतियोग होनेसे यह पूजन सायंकालमें करते हैं । अर्धरात्रिको बलि समर्पित करते हैं । इसमें इक्षु अर्थात गन्ना, कुम्हडा एवं केला इत्यादिकी बलि अर्पित करते हैं ।

महाराष्ट्रमें अनेक स्थानोंपर अष्टमीके दिन देवीका विशेष पूजन होता है । इसमें चावलके आटेकी सहायतासे देवीका मुखौटा बनाते हैं । खडी मुद्रामें देवीके इस रूपको विशेषकर लाल रंगकी साडी पहनाते हैं । इस देवीका पूजन करते हैं और देवीके सामने धूप दिखाई गई गागर फूंकते हैं । गागर फूंकनेसे पूर्व उसे हलदी-कुमकुम अर्पण कर उसका भी पूजन करते हैं । पूजनके उपरांत गागरको धूपपर धरते हैं । यह धूप दिखाई गागर फूंकते हैं । नवरात्रिकी अष्टमीपर रात्रिमें श्री महालक्ष्मी देवीके सामने गागर फूंकी जाती है । वस्तुत: यह धार्मिक नृत्यका एक प्रकार है ।

४ आ. नवरात्रिकी अष्टमीपर चावलके आटेके मुखौटेवाली, खडी मुद्रामें देवीकी मूर्ति बनाकर उनका पूजन

नवरात्रोत्सव मनाना, अर्थात आदिशक्तिके मारक रूपकी आराधना करना । नवरात्रिमें प्रतिदिन श्री दुर्गादेवीका मारक तत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ता है । अष्टमीपर ब्रह्मांडमें आनेवाली श्री दुर्गादेवीकी मारक तरंगोंमें तांबिया अर्थात रैडिश रंगकी तेज-तरंगोंकी अधिकता होती है । ये तेज-तरंगें अधिकांशत: वायु एवं आकाश तत्त्वोंसे संबंधित होती हैं, इसलिए इस दिन देवीको चावलके आटेसे बने मुखौटेसहित लाल साड़ीमें खड़ी मुद्रामें स्थापित करते हैं । चावल सर्वसमावेशक हैं अर्थात चावलमें देवताकी सगुण एवं निर्गुण दोनों प्रकारकी तरंगोंको समान मात्रामें आकृष्ट करनेकी क्षमता होती है। इसी कारण अष्टमीके दिन ब्रह्मांडमें विद्यमान शक्तितत्त्वकी तेजप्रधान तरंगें चावलके आटेसे बने देवीके मुखौटेद्वारा अधिक मात्रामें आकृष्ट होती हैं । जिसका लाभ दर्शनार्थियोंको उनके भावानुसार प्राप्त होता है।

४ इ. नवरात्रिकी अष्टमी तिथिपर श्री महालक्ष्मीदेवीकी स्थापना एवं पूजनका परिणाम

देवतापूजन एवं मंत्रपठनके कारण वास्तुशुद्धि होती है । वातावरण सत्त्वकण ग्रहण करनेके लिए पोषक बनता है ।

४ र्इ. नवरात्रिकी अष्टमीपर देवीसमक्ष गागर फूंकना

नवरात्रिकी अष्टमीपर रात्रिमें श्री महालक्ष्मी देवीके सामने गागर फूंकी जाती है । गागर फूंकनेसे पूर्व उसका भी पूजन करते हैं । पूजनके उपरांत गागरको धूपपर धरते हैं । यह धूप दिखाई गागर फूंकते हैं । वस्तुतः यह धार्मिक नृत्यका एक प्रकार है ।

नवरात्रिकी अष्टमी पर रात्रिके समय देवीसमक्ष गागर फूंकनेका उपचार किया जाता है । गागर फूंकनेपर, वायुतत्त्वकी  सहायतासे उत्पन्न नादसे धूपकी अग्नि प्रदीप्त एवं कार्यमान होती है । इस कारण गागरमें निर्मित तप्त ऊर्जाको गति प्राप्त होती है । इससे वायुमंडलमें प्रक्षेपित सूक्ष्म नादके कारण देवीकी मूर्तिमें आया देवत्व प्रकट होकर, वायुमंडलमें विद्यमान  अनिष्ट शक्तिका निर्दलन तेजतत्त्वके आधारसे करता है । गागरसे प्रक्षेपित तेज-तरंगोंके कारण, साथ ही धूपसे प्रक्षेपित सूक्ष्म-वायुके कारण जीवकी प्राणदेहकी, साथ ही प्राणमयकोषकी शुद्धि होती है । पंचप्राणोंको गति प्राप्त होनेसे वायुमंडलमें आधिक्यमें विद्यमान तेजतत्त्वरूपी देवीतत्त्व अधिकाधिक मात्रामें ग्रहण करना जीवके लिए संभव होता है । गागर फूंकना, अर्थात धूपकी सहायतासे नादात्मक तेजतत्त्वरूपी ऊर्जासे देवीके मारक तत्त्वका आवाहन कर जागृत करना ।

नवरात्रिकी अष्टमी तिथिपर श्री महालक्ष्मीदेवीकी स्थापना एवं पूजन कर गागर फूंकनेके परिणाम

  • देवतापूजन एवं मंत्रपठणके कारण वास्तुशुद्धि होती है ।
  • वातावरण सत्त्वकण ग्रहण करनेके लिए पोषक बनता है ।
  • श्री महालक्ष्मीदेवीका पूजन करनेके उपरांत गागरका पूजन करनेसे गागरमें श्री दुर्गादेवीका तत्त्व आकृष्ट होता है ।
  • गागरमें धूप दिखानेके कारण वायुतत्त्वसे संबंधित सात्त्विकता गागरमें संचयित होती है ।
  • तथा गागरमें आकृष्ट देवीतत्त्वको भी धूपकी सहायतासे गति प्राप्त होती है ।
  • फूंक लगानेपर गागरमें संचयित सात्त्विकता कार्यरत होती है और नाद तरंगोंके साथ गागरद्वारा प्रक्षेपित होती है ।
  • उसी प्रकार गागरमें आकृष्ट देवीतत्त्व गागर फूंकनेवाली स्त्रीकी आवश्यकतानुसार तारक अथवा मारक रूपमें कार्यरत होता है ।
  • गागरद्वारा तारक चैतन्य एवं मारक शक्ति किरणोंके रूपमें प्रक्षेपित होती है ।
  • नाद वायुसे भी सूक्ष्म होनेके कारण यह सात्त्विकता अल्प समयमें ही वातावरणमें संचारित होती है । इससे वातावरणकी भी शुद्धि होती है ।

इन सर्व बातोंसे यही समझमें आता है कि, अध्यात्म सूक्ष्मका शास्त्र है । इस शास्त्रको प्रत्येक व्यक्ति साधना कर अपनी क्षमतानुसार अनुभूत कर पाता है। साथही यह भी ध्यानमें आता है कि, जगतका कल्याण करनेवाली हमारी इस श्रेष्ठ धरोहरको संजोए रखना हमारा प्रथम कर्त्तव्य बनता है ।

५. नवरात्रिकी अष्टमी एवं नवमी पर सरस्वतीपूजन

‘विजयादशमीसे एक दिन पूर्व, अर्थात नवमी पर सरस्वतीकी उत्पत्तिसे संबंधित उद्देश्यसे पूजन करें; परंतु विजयादशमीपर सरस्वतीका तत्त्व अधिक मात्रामें कार्यकारी सगुण भाव धारण कर सुप्तावस्थामें विलीन होता है; इसलिए उस दिन  सरस्वतीपूजन प्रधानतासे करें । सरस्वतीका प्रत्यक्ष आवाहनकाल आश्विन शुक्ल अष्टमीपर मनाया जाता है; क्योंकि इस दिनसे सरस्वतीतत्त्वात्मक तरंगोंकी बीजात्मक धारणाका आरंभ होता है । नवमीपर यह धारणा पृथ्वीमंडलमें स्थित होकर कार्य करती है । इसके लिए वह दिन पूर्ण सगुणधारी, अर्थात उत्पत्तिविषयक सरस्वतीपूजनका होता है; अतएव इस दिन देवीके मूर्तस्वरूपकी ओर उपासकका खिंचाव बढता है । विजयादशमीपर सरस्वती पुनः सगुणका आधिक्यभाव धारण करती है ।  तदुपरांत वह लयात्मक अर्थात सुप्तावस्था प्राप्त होनेके कारण, पहले पूजन एवं फिर सरस्वती विसर्जनकी विधि  विजयादशमीपर संपन्न की जाती है ।

अष्टमीसे विजयादशमीतक, शक्तिरूप प्रज्ञारूपी प्रतिभासे सुशोभित होता है । सरस्वतीके तारक तरंगोंके स्पर्शसे उपासककी आत्मशक्ति जाग्रत होती है और प्रज्ञाके प्रवाहमें रूपांतरित होती है । इस ज्ञानात्मक आलंबनके कारण उसे आनंदकी अनुभूति होती है ।’

शस्त्रपूजन करते समय ईश्वर एवं गुरुको प्रार्थना करते हैं  – हे ईश्वर, हे गुरुदेव, यही प्रार्थना है कि, हम जिन अस्त्रों एवं शस्त्रोंका स्थूल रूपसे उपयोग कर रहे हैं, उनके साथ सूक्ष्म अस्त्र एवं शस्त्र भी कार्यरत हो जाएं और हमें आपसे शक्ति एवं चैतन्य प्राप्त हो ।

प्रार्थना करनेसे ईश्वर एवं गुरुदेवका आशीर्वाद प्राप्त होता है । आशीर्वादके साथ उनकी संकल्पशक्ति भी कार्यरत होती है । इस प्रकार व्यक्तिद्वारा किए प्रयत्नोंको ईश्वरीय बल प्राप्त होता है और उचित फलप्राप्ति होती है । इससे व्यक्तिको ईश्वर एवं गुरुकी महानताका परिचय अनुभूत होता है और उसमें लीनता एवं व्यापकता जैसे ईश्वरीय गुण बढने लगते हैं । जिससे व्यक्तिद्वारा सभीके कल्याणके लिए प्रयत्न होने लगते हैं ।

नवमीके दिन यजमान परिवारके कल्याणके लिए देवीकी मंगल आरती करते हैं ।

संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र‘, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘देवीपूजनसे संबंधित कृत्योंका शास्त्र‘ एवं अन्य ग्रंथ

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