गोरक्षा एवं तत्संबंधी कानूनी समस्याओंका समाधान !

ज्येष्ठ कृष्ण १२, कलियुग वर्ष ५११५ 

सारणी


वक्ता : अधिवक्ता देवदास शिंदे, हिंदू स्वाभिमान प्रतिष्ठान, पुणे.

१. भारतीयोंको दरिद्र बनानेके लिए अंग्रेजोंने गोहत्या आरंभ करवाई !

अंग्रेजोंने भारतमें आनेपर देखा कि मुसलमानोंने भारतीयोंको १ सहस्र वर्षतक लूटा, उनपर ‘जजिया कर’ लगाया, फिर भी वे दरिद्र नहीं हुए । उसी प्रकार, हमने भी इनपर कर लादे, तब भी ये द्ररिद्र नहीं हो रहे हैं । इसका क्या रहस्य है ? बहुत सोच-विचारके पश्चात अंग्रेजोंके ध्यानमें आया कि भारतीयोंके पास ‘गाय’ है । एक गोमाता पूरे परिवारका भरण-पोषण करती है । इन्हें बाहरसे कुछ नहीं लाना पडता । एक गोमाताके कारण इतना सब होता है, यह उनके ध्यानमें आनेपर उन्होंने भारतीयोंको निर्धन बनानेकी अपनी योजना सफल बनानेके लिए गायोंको कटवाना आरंभ कर दिया । आपको यह बात झूठ लग सकती है; किंतु इस बातका उल्लेख अंग्रेजोंके ही ‘गजट’में है ।

 

२. भारत कृषिप्रधान देश होनेपर भी गोमाताकी हत्या
होने देनेवाले यहांके दिशाहीन शासक भारतीय हैं अथवा अंग्रेजोंके वंशज ?

चीन  अरुणाचलप्रदेशसे भारतीय गोवंश और देशी गायोंको एकत्र कर रहा है । उनके यहां गोवंशकी हत्या नहीं की जाती । ईरानमें भी गायोंकी हत्या नहीं की जाती । फिर भारत तो कृषिप्रधान देश है, इस देशके कृषकोंकी माता ‘गोमाता’की हत्या यहां क्यों की जाती है ?

३. आलू-प्याजके निर्यातके लिए नहीं, अपितु गायोंकी हत्या कर
उससे निर्मित वस्तुओंके निर्यातके लिए शासनद्वारा कसाइयोंको
अनुदान दिया जाना, भारतमें गोहत्याको राजाश्रय मिलनेका लक्षण !

हमारे देशमें गायोंको काटकर उनसे निर्मित वस्तुएं संपूर्ण विश्वमें निर्यात की जाती हैं । इस निर्यातके लिए हमारा शासन कसाइयोंको अनुदान (सब्सीडी) देता है । होना तो यह चाहिए कि हमारा देश कृषिप्रधान होनेके कारण शासन आलू-प्याजके निर्यातको प्रोत्साहन देनेके लिए अनुदान दे; किंतु वह किसे दे रही है, ‘गोमांसके निर्यात’को !

 

४. दूधको ‘राष्ट्रीय पेय’ घोषित करनेपर गोरक्षा करनी
पडेगी इस कारण शासनद्वारा चायको ‘राष्ट्रीय पेय’ घोषित किया जाना

भारतमें ‘गाय’से संबंधित विषयकी अत्यधिक अनदेखी की जा रही है । प्रत्येक धर्मका विशिष्ट प्रतीक होता है । हिंदू धर्मका प्रतीक गोमाता है । भारतमें चायको तो ‘राष्ट्रीय पेय’ घोषित किया जाता है; किंतु शासन दूधको राष्ट्रीय पेय क्यों घोषित नहीं कर सकता ? इसका कारण यह है कि ऐसा होनेपर शासनको गायकी रक्षा करनी पडेगी । दूधको ‘राष्ट्रीय पेय’ घोषित न करना हमारे लिए लज्जाकी बात है ।

५. शासनद्वारा पारित, ‘एनिमल्स प्रिजर्वेशन एक्ट १९७६’का
प्रचार न होनेके कारण अनेक वर्षोंतक अबाध गोहत्या होती रहना

वर्ष १९७६ में महाराष्ट्र शासनने गोरक्षाके संदर्भमें ‘एनिमल्स प्रिजर्वेशन एक्ट, १९७६’ नामक एक्ट पारित किया था । उसमें गायको बहुत सुरक्षा दी गई है । परंतु यह अधिनियम जनताके सामने नहीं आने दिया गया; शासनके कार्यालयमें ही धूल खाता पडा रहा । इस अधिनियमका कभी प्रचार नहीं किया गया । इसकी जानकारी किसीको नहीं दी गई । इस अधिनियमकी प्रतिलिपि किसी थानेमें भी नहीं भेजी गई । इसलिए पुलिस इस अधिनियमका अध्ययन नहीं कर पाई । परिणामतः वर्ष १९७६ से २००२, अर्थात २६ वर्षतक निरंतर गोहत्या होती रही ।

६. गोहत्यासे संबंधित परिवाद लिखनेमें पुलिसकी उदासीनता !

वर्ष २००२-२००३ से विविध समितियोंकी स्थापना कर उनकेद्वारा, ‘गोरक्षा दलोंकी’ स्थापना की गई । गोरक्षामें पहली बाधा यह होती है कि पुलिस आपका परिवाद लिखती ही नहीं; क्योंकि पुलिसको प्रमाण चाहिए । आप क्या प्रमाण देंगे ? गायोंको ले जाया जा रहा है; किंतु उन्हें काटनेके लिए ही ले जाया जा रहा है, इसका कोई प्रमाण नहीं होता ।

७. काटनेके लिए ले जाई जा रही गायोंकी दयनीय अवस्था !

१.    ३ मई २००८ को महाराष्ट्र शासनने एक परिपत्र निकाला, जिसके अनुसार एक ट्रकमें एक गायके लिए २.७५ मीटर स्थान होना पर्याप्त है, वह देना आवश्यक है । इस आधारपर थानेमें परिवाद (प्रथमदर्शी सूचना प्रतिवेदन (एफ.आई.आर्.)) प्रविष्ट करना संभव होता है ।
२.    एक गाडीमें १०-१०, १२-१२ गायें इस प्रकार भरी जाती हैं कि वह दृश्य देखकर किसी हिंदूको भोजन करनेकी भी इच्छा नहीं होगी ।
३.    गायोंको गाडीसे नीचे उतारनेके पश्चात, उन्हें जबतक विश्वास नहीं होता कि हमें काटा नहीं जाएगा, तबतक वे लगभग ८-१० घंटे पानी नहीं पीतीं; चारा खाना तो दूरकी बात है । गायोंको काटनेसे पहले उन्हें ८–८ दिन पीनेको पानी भी नहीं दिया जाता । क्योंकि उनका मल-मूत्र कहां फेकेंगे ? सभी पशुवधगृह नगरोंमें हैं ।

८. गोहत्याका परिवाद थानेमें लिखवाकर शांत न बैठें !

पुलिसको प्रमाण चाहिए । गायोंको काटा ही जाएगा, यह आप परिवादमें (एफ.आई.आर्. में) कैसे लिखावाएंगे ? हम पुलिसपर किसी प्रकार दबाव डालकर परिवाद लिखवा लेते हैं । आगे हमारा ‘गोरक्षा दल’ शांत बैठ जाता है । यहीं चूक होती है; क्योंकि अगली कार्यवाही तुरंत करना आवश्यक होता है ।

९. गोरक्षाके संदर्भमें न्यायालयीन प्रक्रिया कैसे होती है ?

१.    थानेमें प्रथमदर्शी सूचना (एफ.आई.आर्.) प्रविष्ट होनेके पश्चात, तुरंत गोशालावालोंको सूचित करना चाहिए । इसी प्रकार, तुरंत प्रथम वर्ग न्यायदंडाधिकारी (जे.एम्.एफ.सी.) के न्यायालयमें प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करना चाहिए । तत्पश्चात, न्यायालय दूसरे पक्षका मत मंगवाता है । (‘अदर साइड टू से’ की मांग करता है ।) प्रकरणकी जांच करनेवाले पुलिस अधिकारी और सहायक सरकारी वकील (गवर्नमेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) की बात सुननेके पश्चात, उन गायोंको देखभाल करनेके लिए हमें सौंपा जाता है ।

२.    यदि हमने उन गायोंको किसीके आग्रहपर यहां-वहां दे दिया, तो हमारे लिए समस्या उत्पन्न हो सकती है; क्योंकि गोशालामें अच्छी गाय आनेपर उसे प्राप्त करनेके लिए अनेक लोग प्रयत्न करने लगते हैं और गोसेवक उसे दे भी देते हैं । उसके पश्चात वह गाय जिसकी होती है, वह जनपद न्यायालयमें जाता है और कभी-कभी उसे उसकी गाय वापस करनेका आदेश भी दिया जाता है ।

१०. जनपद न्यायालयमें परिवाद प्रविष्ट करते समय
उसमें प्रतिवादियोंके नामका उल्लेख न कर
एकपक्षीय आदेश प्राप्त करनेवाले धूर्त मुसलमान !

मुसलमानोंके अतिरिक्त और कोई पशुवधगृह चलानेका व्यापार नहीं करता । ये इतने धूर्त होते हैं कि जनपदके न्यायालयमें परिवाद प्रविष्ट करते समय गोरक्षकोंको न्यायालयसे सूचना (नोटिस) न मिले, इस हेतु अभियोगमें प्रतिवादी गोरक्षकोंके नाम नहीं डालते और स्वयंके पक्षमें आदेश प्राप्त कर लेते हैं ।

११. उच्च न्यायालयमें जानेसे पहले अनेक प्रकारकी
बाधाएं आना तथा उस स्थितिमें पुलिससे सहयोग न मिलना

हमें जनपद न्यायालयके निर्णयके विरुद्ध उच्च न्यायालयमें ही जाना पडता है । इसके लिए केवल ८-१० दिनकी अवधि दी जाती है । याचिका प्रविष्ट करनेकी भागदौडमें विलंब होता ही है । तबतक, जिस न्यायालयने हमें गायें दी हैं, वह हमारे विरोधमें आदेश जारी करता है । ‘इन गायोंको आपने कुछ गडबड कर प्राप्त किया है, उन्हें आप तुरंत लौटा दें ।’ इस प्रकार, न्यायालयके आदेशके कारण भी गोरक्षकोंको अनेक समस्याओंका सामना करना पडता है । भारतमें इतनी कठिन परिस्थितिका मुख्य कारण है, पुलिसका असहयोग ।

१२. गोमाताके विषयमें थोडा भी प्रेम न होनेके
कारण केवल दर्शककी भांति आचरण करनेवाले हिंदू !

जब गोरक्षक गायोंको पकडकर रखते हैं, उस समय उनके समीपसे जानेवाला एक भी हिंदू उनकी ओर नहीं देखता । चार लोग जोर-जोरसे घोषणा करते हैं, ‘गोमाताकी जय, भारतमाताकी जय ।’ फिर भी उस ओर न कोई देखता है और न वहां रुकता है ।

१३. न्यायालयद्वारा गाय लौटानेपर भी उन गायोंको पुनः हस्तगत करना आवश्यक !

एक बार मूल न्यायालयने (ओरिजनल ट्रायलने) हमें गायें दीं, उस निर्णयको प्रतिपक्षीने जनपद न्यायालयमें चुनौती (अपील) दी । इस बीच पुलिस और मुसलमान गोशालासे गायोंको ले जानेका प्रयत्न कर रहे थे ।

१४. न्यायालयद्वारा मुसलमानोंके पक्षमें निर्णय देनेके पश्चात भी युक्तिपूर्वक की गई गोरक्षा !

एक बार न्यायालयके आदेशपर गायोंको अपने नियंत्रणमें लेनेके लिए मुसलमानोंका एक झुंड और पुलिस तुरंत दौडे-दौडे आए । उल्लासमें उन लोगोंने पुनः वही चूक की । उन्होंने गायों और बैलोंको ट्रकमें ठूंसा । गाडी बाहर आनेपर हमने पुनः उसे रोका । उस समय बहुत हडकंप मचा और नया प्रतिवाद (एफ.आई.आर्.) लिखना पडा । तत्पश्चात हमने उनसे तुरंत कहा, ‘‘अब इन गाय-बैलोंको गोशालामें जाने दीजिए ।’’ गायें गोशालामें पुनः लौटनेसे उनकी रक्षा हुई । यह घटना इसलिए बता रहा हूं कि इससे भविष्यमें गोरक्षा करते समय न्यायालयने गायोंको लौटानेका आदेश हमें दिया, तो उन्हें पुनः प्राप्त करनेके लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए, यह ज्ञात रहना चाहिए ।

१५. गोरक्षाके लिए सक्षम होकर प्रत्येक गांवमें गोशाला बनाएं !

नए परिवाद (एफ.आई.आर्.)के कारण पुनः अभियोग आरंभ हुआ; किंतु हमारे यहां ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं ? क्या हम अपनी गोमाताकी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं ? हम अपने किसानोंसे क्यों नहीं कहते कि गायोंको न बेचें ? अन्यथा गोशालाको दें ? इस कार्यके लिए गोशालाएं भी उतनी सक्षम होनी चाहिए । यदि गोशाला न हों, तो प्रत्येक गांवमें एक गोशाला बनानी चाहिए । हम इतना पैसा रखकर क्या करनेवाले हैं ? हम कहते हैं ‘३३ कोटि देवता गायके पेटमें होते हैं’, और हम ही इन्हें काटनेको देते हैं ।

१६. गोवंशकी हत्या करनेके लिए मुसलमान
नियमोंकी त्रुटियोंसे लाभ उठाते हैं, इस कारण न्यायालयीन लडाई
करनेकी अपेक्षा प्रत्येक गांवमें ‘गोरक्षा दल’ स्थापित करना आवश्यक !

वर्ष २०१० के एक प्रकरणमें १७ पशु (गोधन) पकडे गए थे । उन्हें हमारी गोशालामें रखा गया था । निचले न्यायालयमें अभियोगकी सुनवाई आरंभ हुई । न्यायाधीशने कहा, ‘जिनके पास अभी गायें हैं, उन्हींके पास रहने दें ।’ तब एक मुसलमानने इस प्रकरणमें जिला न्यायालयमें पुनर्विलोकन याचिका (रिविजन) दायर की । किंतु जनपद न्यायालयके समन्स (न्यायालयमें उपस्थित रहनेका आदेश) हमें नहीं मिला । क्योंकि इस अभियोगमें हमें प्रतिवादी बनाया ही नहीं गया और अकस्मात २ वर्षके पश्चात हमें न्यायालयका आदेश प्राप्त हुआ, ‘१७ अच्छे देशी बैल काटनेके लिए भेजिए ।’ अब जिनके पास वह गोवंश है, वे उच्च न्यायालयमें चुनौती देनेके लिए (अपील करनेके लिए) और उस आदेशपर स्थगन आदेश (स्टे) प्राप्त करनेके लिए भागदौड करने लगे । स्थगन आदेश न मिलनेपर गायें हाथसे निकल जाती हैं । ऐसेमें गोशालाके संचालकोंको लाखों रुपए देकर पशु क्रय कर उस मुसलमानको लौटाना पडता है; क्योंकि पशु न मिलनेपर नया अभियोग चलाया जाता है । इसमें हम अकेले क्या कर सकते हैं ? इसके लिए न्यायालयीन प्रक्रिया है । सत्र न्यायालय है, उच्च न्यायालय है; किंतु, केवल न्यायालय होना पर्याप्त नहीं है तथा इससे कुछ विशेष लाभ भी नहीं होता । यह सब करनेकी अपेक्षा हमें प्रत्येक गांवमें एक गोरक्षा दलका गठन करना चाहिए ।

१७. गोमाताके कारण पहाडपर पानी मिलना

गोपालनका एक दूसरा लाभ है कि गोमाताको पहाडपर बांधकर वहांके वातावरणमें वर्षभर रहने दिया जाए, तत्पश्चात वहां खोदनेपर पानी मिलता है । अतः गोवंशकी रक्षा हेतु हमें आगे आना चाहिए ।

१८. गुजरातकी भांति गोहत्या प्रतिबंधक अधिनियम सर्वत्र बनानेका प्रयत्न करें !

महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात आदि स्थानोंपर गोरक्षाके प्रयत्न जारी हैं । गुजरातमें गोवंशकी हत्या करनेवालोंको ७ वर्षका कारावास दिया जाता है । महाराष्ट्रमें भी इस प्रकारकी कठोर दंड व्यवस्था हो, इसके लिए शासनपर दबाव बढाना चाहिए ।

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