५०० वर्ष प्राचीन है ‘शून्य’ की कहानी, भारत यूं ही नहीं था ‘विश्व गुरु’ !

नई देहली : भारतीय दर्शन में शून्य और शून्यवाद का बहुत महत्व है ! शून्य के आविष्कार को लेकर पश्चिमी जगत के विद्वान ये मानने को तैयार नहीं थे कि शून्य के बारे में पूरब के लोगों को जानकारी थी । परंतु सच ये है कि न केवल अंकों के मामले में विश्व, भारत का ऋणी है, बल्कि भारत ने अंकों के अलावा शून्य की खोज की ! शून्य का अपने आप में महत्व शून्य है । परंतु ये शून्य का चमत्कार है कि यह एक से दस, दस से हजार, हजार से लाख, करोड़ कुछ भी बना सकता है । शून्य की खासियत है कि इसे किसी संख्या से गुणा करें अथवा भाग दें, परिणाम शून्य ही रहता है ! भारत का ‘शून्य’ अरब जगत में ‘सिफर’ (अर्थ- खाली) नाम से प्रचलित हुआ फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में ‘झीरो’ (zero) कहते हैं !

बख्शाली पांडुलिपि और शून्य का इतिहास

बोडेलियन पुस्तकालय (आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय) ने बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग के जरिए शून्य के प्रयोग की तिथि को निर्धारित किया है । पहले ये माना जाता रहा है कि आठवीं शताब्दी (८०० एडी) से शून्य का उपयोग किया जा रहा था । परंतु बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग से पता चलता है कि शून्य का प्रयोग चार सौ साल पहले यानि की ४०० एडी से ही किया जा रहा था । बोडेलियन पुस्तकालय में ये पांडुलिपि १९०२ में रखी गई थी ।

शून्य के प्रयोग के बारे में पहली पुख्ता जानकारी ग्वालियर में एक मंदिर की दीवार से पता चलता है । मंदिर की दीवार पर लिखे गए लेखों (९०० एडी) में शून्य के बारे में जानकारी दी गई थी । शून्य के बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्कस डी सुटॉय कहते हैं कि, आज हम भले ही शून्य को हल्के में लेते हैं, परंतु सच ये है कि, शून्य के कारण से फंडामेंटल गणित को एक आयाम मिला । बख्शाली पांडुलिपि की तिथि निर्धारण से एक बात तो साफ है कि, भारतीय गणितज्ञ तीसरी-चौथी शताब्दी से शून्य का उपयोग कर रहे थे । इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि, भारतीय गणितज्ञों ने गणित को एक नई दिशा दी !

बख्शाली पांडुलिपि १८८१ में अविभाजित भारत के बख्शाली गांव (अब पाकिस्तान) में मिली थी । इसे भारतीय गणित शास्त्र के पुरानतम किताब के तौर पर देखा जाता है । हालांकि इसकी तारीख को लेकर विवाद था । पांडुलिपि में शब्दों, अक्षरों और लिखावट के आधार पर जापान के शोधकर्ता डॉ. हयाशी टाको ने इसकी तिथि ८००-१२०० एडी के बीच निर्धारित की थी । बोडेलियन पुस्तकालय के लाइब्रेरियन रिचर्ड ओवेडेन ने कहा कि, बख्शाली पांडुलिपि की तिथि का निर्धारण करना गणित के इतिहास में महत्वपूर्ण कदम है !

जानकार की राय

पूर्वांचल विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर रहे डॉ. अनिरुद्ध प्रधान ने बताया कि, इसमें संदेह नहीं कि, भारत ने तोहफे के रूप में शून्य दिया । जहां तक प्रमाणिक तौर पर शून्य के प्रयोग की बात है, पश्चिमी जगत तिथि को लेकर अपने हिसाब से व्याख्या करता रहा है । परंतु ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के बोडेलियन पुस्तकालय ने कार्बन डेटिंग के जरिए बख्शाली पांडुलिपि की तिथि को मुकर्रर कर दी है । इसके बाद अब सभी तरह के कयासों पर विराम लग जाएगा !

भारतीय दर्शन में शून्य का उल्लेख

यूनानी दार्शनिक सृष्टि के ४ तत्व मानते थे, जबकि भारतीय दार्शनिक ५ तत्व । यूनानी दार्शनिक आकाश को तत्व नहीं मानते थे । उनके अनुसार आकाश जैसा कुछ नहीं है जबकि भारतीय दार्शनिकों के अनुसार, जो नहीं है जैसा दिखाई देता है वही शून्य है । पाइथागोरस ने इस बात को स्वीकार किया था । आकाश को नथिंग (कुछ नहीं) कहते थे । नथिंग का अर्थ शून्य होता है । २५०० वर्ष पूर्व बुद्ध के समकालीन बौद्ध भिक्षु विमल कीर्ति और मंजूश्री के बीच जो संवाद हुआ था वह शून्य को लेकर ही था । बौद्धकाल के कई मंदिरों पर शून्य का चिह्न अंकित है !

शून्य की कहानी का दिलचस्प इतिहास

पिंगलाचार्य

भारत में लगभग २०० (५००) ईसा पूर्व छंद शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य हुए हैं, जिन्हें द्विअंकीय गणित का भी प्रणेता माना जाता है । इसी काल में पाणिनी हुए जिनको संस्कृत व्याकरण लिखने का श्रेय जाता है । अधिकतर विद्वान पिंगलाचार्य को शून्य का आविष्कारक मानते हैं । पिंगलाचार्य के छंदों के नियमों को यदि गणितीय दृष्टि से देखें तो एक तरह से वे द्विअंकीय (बाइनरी) गणित का कार्य करते हैं और दूसरी दृष्टि से उनमें दो अंकों के घन समीकरण तथा चतुर्घाती समीकरण के हल दिखते हैं । गणित की इतनी ऊंची समझ के पहले अवश्य ही किसी ने उसकी प्राथमिक अवधारणा को भी समझा होगा । अत: भारत में शून्य की खोज ईसा से २०० वर्ष से भी पुरानी हो सकती है !

भारत में उपलब्ध गणितीय ग्रंथों में ३०० ईस्वी पूर्व का भगवती सूत्र है जिसमें संयोजन पर कार्य है तथा २०० ईस्वी पूर्व का स्थनंग सूत्र है जिसमें अंक सिद्धांत, रेखागणित, भिन्न, सरल समीकरण, घन समीकरण, चतुर्घाती समीकरण तथा मचय (पर्मुटेशंस) आदि पर कार्य हैं । सन २०० ईस्वी तक समुच्चय सिद्धांत के उपयोग का उल्लेख मिलता है और अनंत संख्या पर भी बहुत कार्य मिलता है !

गुप्तकाल की मुख्य खोज नहीं है शून्य

गुप्तकाल की मुख्‍य खोज शून्य नहीं बल्कि शून्ययुक्त दशमिक स्थानमान संख्या प्रणाली है ! गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है । इस युग में ज्योतिष, वास्तु, स्थापत्य और गणित के कई नए प्रतिमान स्थापित किए गए । इस काल की भव्य इमारतों पर गणित के अन्य अंकों सहित शून्य को भी अंकित किया गया है । शून्य के कारण ही शालिवाहन नरेश के काल में हुए नागार्जुन ने शून्यवाद की स्थापना की थी । शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिका नामक विभाग का मत या सिद्धांत है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है !

४०१ ईसवी में कुमारजीव ने नागार्जुन की संस्कृत भाषा में रचित जीवनी का चीनी भाषा में अनुवाद किया था । नागार्गुन का समय १६६ ईस्वी से १९९ ईस्वी के बीच का माना जाता है । नई संख्या पद्धति के प्राचीन लेखों से प्राप्त सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रमाण ‘लोक विभाग’ (४५८ ई.) नामक जैन हस्तलिपि में मिलते हैं । दूसरा प्रमाण गुजरात में एक गुर्जर राजा के दानपात्र में मिलता है । इसमें संवत ३४६ दर्ज किया गया है !

आर्यभट्ट और शून्य

आर्यभट्ट ने अंकों की नई पद्धति को जन्म दिया था । उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में भी उसी पद्धति में कार्य किया है । आर्यभट्ट को लोग शून्य का जनक इसलिए मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ आर्यभटीय के गणितपाद २ में एक से अरब तक की संख्याएं बताकर लिखा है । ‘स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात’ अर्थात प्रत्येक अगली संख्या पिछली संख्या से दस गुना है ! उनके ऐसे कहने से यह सिद्ध होता है कि, निश्चित रूप से शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है !

पूरब से लेकर पश्चिम तक बजा भारत का डंका

७वीं शताब्दी में ब्रह्मगुप्त के समय में शून्य से संबंधित विचार कम्बोडिया तक पहुंच चुके थे । दस्तावेजों से पता चलता है कि, कम्बोडिया से शून्य का विस्तार चीन और अरब जगत में भी हुआ । मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया । यही नहीं १२वीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुंचा !

ब्रह्मगुप्त ने अपने ग्रंथ ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ में शून्य की व्याख्या अ-अ=० (शून्य) के रूप में की है ! श्रीधराचार्य अपनी पुस्तक ‘त्रिशविका’ में लिखते हैं कि, ‘यदि किसी में शून्य से जोड़ दे तो उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है और यदि किसी संख्या में शून्य से गुणा करते हैं तो गुणनफल भी शून्य ही मिलता है !’

१२वीं शताब्दी में भाष्कराचार्य ने शून्यद्वारा भाग देने का सही उत्तर दिया कि, उसका फल अनंत है । इसके अलावा दुनिया को ये बताया कि, अनंत संख्या में से कुछ घटाने पर या कुछ जोड़ने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है !

स्त्रोत : जागरण

Leave a Comment

Notice : The source URLs cited in the news/article might be only valid on the date the news/article was published. Most of them may become invalid from a day to a few months later. When a URL fails to work, you may go to the top level of the sources website and search for the news/article.

Disclaimer : The news/article published are collected from various sources and responsibility of news/article lies solely on the source itself. Hindu Janajagruti Samiti (HJS) or its website is not in anyway connected nor it is responsible for the news/article content presented here. ​Opinions expressed in this article are the authors personal opinions. Information, facts or opinions shared by the Author do not reflect the views of HJS and HJS is not responsible or liable for the same. The Author is responsible for accuracy, completeness, suitability and validity of any information in this article. ​