संस्कृत को आधुनिक परिवेश से जोड़ना होगा : प्रो. शास्त्री

ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष १३, कलियुग वर्ष ५११६

"संस्कृत को जब तक हम आधुनिक परिवेश में नहीं देखेंगे और नए संदर्भ से नहीं जोड़ेंगे, तब तक संस्कृत का सुधार नहीं होगा।"

यह कहना है, राष्ट्रीय संस्कृत आयोग के अध्यक्ष, जाने-माने विद्वान, संस्कृत के प्रथम भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक और पद्मभूषण से सम्मानित प्रो. सत्यव्रत शास्त्री का। आम धारणा है कि सरकारी आयोग अथवा संस्थान बंधे-बंधाए ढांचे और लीक पर चलने के अभ्यस्त होते हैं।

किसी नएपन की उम्मीद उनसे नहीं की जाती। प्रो. शास्त्री इससे उलट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे संस्कृत आयोग के कामकाज और भूमिका को प्रासंगिक बनाना चाहते हैं।

इसलिए संस्कृत के  उपयोगिता को नए सिरे से परिभाषित करते हैं। राष्ट्रीय जन-जीवन में उपेक्षित हो चली संस्कृत की महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए वे 84 वर्ष की आयु में भी किसी युवा की तरह संकल्पबद्ध नजर आते हैं।

हाल ही में वे जयपुर आए तो उनसे मुलाकात का सुयोग मिला। वे धाराप्रवाह बोलते हैं। उनकी स्मरण शक्ति गजब है। श्लोक, कविताएं, उद्धरण आदि उन्हें खूब याद रहते हैं। बातचीत में वे इनका भरपूर उपयोग करते हैं।

वे संस्कृत के परम्परागत पंडितों से अलग दिखाई पड़ते हैं और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की गतिविधियों पर पूरी पकड़ रखते हैं। केन्द्र सरकार ने 58 साल बाद संस्कृत आयोग का फिर से गठन किया। दिसंबर २०१३ में आयोग बनाया गया और उन्हें अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व सौंपा।

वे बताते हैं, १९५६ में पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने पहला संस्कृत आयोग गठित किया था। उस दौर का भारत अलग था। अब नया भारत है।

आज की आवश्यकताएं बदल गई हैं। इसलिए आयोग को भी अपना नजरिया बदलना होगा। देश में संस्कृत की रीति-नीति निर्धारित करने का आयोग पर वृहत्तर उत्तरदायित्व है।

प्रो. शास्त्री संस्कृत आयोग की भूमिका और उद्देश्य को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं। वे आयोग को वैचारिक उदारता और समन्वयवादी स्वरूप देना चाहते हैं, जो आज की परिस्थितियों के अनुकूल हो।

वे संस्कृत की रीति-नीति निर्धारित करने में देश में व्यापक जन-भागीदारी के समर्थक हैं। उन्होंने एक प्रश्नावली तैयार करवाई है जो देश भर में संस्कृत विद्वानों, संस्थाओं और संस्कृत में रूचि रखने वाले प्रत्येक समूह को भेजी जा रही है।

वे चाहते हैं कि संस्कृत को आधुनिक संदर्भो से जोड़ने के लिए आयोग को पर्याप्त संख्या में सुझाव प्राप्त हो। उनका मानना है कि संकीर्ण और कट्टरपंथी दुराग्रहों से संस्कृत का नुकसान ही अधिक हुआ है।

जब तक हम संस्कृत को आधुनिक परिवेश में नहीं देखेंगे, तब तक सुधार नहीं होगा। आज के वैश्विक युग में वही भाषा टिक सकती है जो समय की जरूरतों को पूरा करे।

तो क्या संस्कृत में आज की आवश्यकताओं को पूरा करने का सामर्थ्य है ?

"बिल्कुल है। संस्कृत अत्यन्त समृद्ध भाषा है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की ऎसी कोई शाखा-प्रशाखा नहीं है जो संस्कृत में मौजूद नहीं।" वे कहते हैं, संस्कृत में विशाल साहित्य लिखा गया है। संस्कृत में खगोल शास्त्र है, गणित है, नक्षत्रों के बारे में समृद्ध जानकारियां हैं।

कृषि विज्ञान पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। संस्कृत में पेड़-पौधों के बारे में इतनी विस्तृत सूचनाएं हैं जो संभवत: आज के वनस्पति शास्त्र (बोटनी) में भी नहीं होगी। संस्कृत में हवाई जहाज (विमान शास्त्र) पर सदियों पहले ग्रंथ लिखे गए हैं। चिकित्सा-विज्ञान में तो भरपूर साहित्य है।

लाखों ग्रंथ पांडुलिपियों के रूप में मौजूद हैं जिनका अभी पूरी तरह से अध्ययन ही नहीं हुआ है। वे बताते हैं कि भारत सरकार के पास ५० लाख पांडुलिपियों की सूचना है जिनमें अकेले संस्कृत की ३० लाख पांडुलिपियां हैं। इनमें ज्ञान-विज्ञान की भरपूर सामग्री समाहित है।

प्रो. शास्त्री मानते हैं कि एक भाषा के रूप में संस्कृत में वे तमाम संभावनाएं हैं जिनकी आज जरूरत है। कमी इस बात की है कि हम संस्कृत में निहित शक्ति और संभावनाओं को आज के समाज के साथ जोड़ कर नहीं चल पा रहे।

"क्या इसीलिए संस्कृत समाज से कट गई है? आज का युवा संस्कृत में भविष्य और रोजगार की संभावनाएं क्यों नहीं देखता ?"

"क्योंकि हमने संस्कृत को परम्परागत शिक्षण और कर्मकांड तक सीमित करके रख दिया है। या फिर संस्कृत शिक्षा को इतना दुरूह बना दिया है कि सीखने की रूचि ही खत्म हो जाए। युवा पीढ़ी संस्कृत में तब तक उदासीन रहेगी, जब तक हम संस्कृत को आज की जरूरतों और भविष्य की संभावनाओं से नहीं जोड़ देते।

संस्कृत को कम्प्यूटर से जोड़ा जाए। संस्कृत का की-बोर्ड बन गया है, लेकिन उसे संचालित करने वाले ऑपरेटर नहीं है। हमें संस्कृत शिक्षा और आधुनिक सूचना तकनीक के बीच तालमेल बिठाना होगा। संस्कृत शिक्षण भी सरल बनाना होगा।" प्रो. शास्त्री का स्पष्ट मत है कि संस्कृत में रोजगार की संभावनाएं कम नहीं हैं।

अगर हम उन पर विचार करें तो कई नए द्वार खुल सकते हैं। संस्कृत का एक अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप है। हम इसे पर्यटन से भी जोड़ सकते हैं। जैसे चीन, जापान और कंबोडिया, ताइवान, थाईलैंड आदि द. पूर्व एशियाई देश भारत में धार्मिक पर्यटन के लिए खूब आते हैं।

वे भारत में बुद्ध से संबंधित स्थलों का भ्रमण करते हैं। इन पर्यटकों को यह कमी बहुत खलती है कि इन धर्म स्थलों की जानकारी कोई उन्हें अपनी भाषा में बताए। हम युवा पर्यटक गाइड तैयार कर सकते हैं। इसके लिए संस्कृत विद्यार्थियों को इन देशों की भाषाओं का ज्ञान कराया जाना चाहिए। संस्कृत विद्यार्थी के लिए इनकी भाषा सीखना बहुत आसान है। क्योंकि द.पूर्व एशियाई देशों की भाषा में संस्कृत के शब्द बहुतायत में है।

चीनी भाषा में संस्कृत के ३६०० शब्द हैं। संस्कृत जानने वाला थाईलैण्ड की भाषा समझ सकता है। साथ ही संस्कृत की शिक्षण प्रक्रिया भी सरल करनी होगी। हमें बच्चे की समझ और रूझान को देखना होगा और भारी-भरकम शब्दों की बजाय सरलीकरण पर जोर देना होगा।

प्रो. शास्त्री उदाहरण से समझाते हैं— "बच्चे को संस्कृत का ज्ञान शुरू में उन शब्दों से कराएं जिनसे वह परिचित है। जैसे गौ (गाय) जंगल (वन), घास (चारा) आदि शब्दों से निर्मित वाक्य— गो जंगले घासं खादति। इस वाक्य का हर शब्द बच्चा जानता है। इसी तरह दूध के लिए संस्कृत का दुग्ध बच्चे का परिचित शब्द है। ऎसे जाने-माने शब्दों का उपयोग करके पाठ्यक्रम तैयार हो तो संस्कृत सीखना उसके लिए आसान होगा और वह सीखने में रूचि भी लेगा।"

प्रो. शास्त्री कहते हैं कि संस्कृत शिक्षा को भारतीय भाषाओं से जोड़ा जाए। प्रत्येक भारतीय इससे जुड़ेगा। संस्कृत जानने वाला अधिकांश भारतीय भाषाओं को समझ सकता है चाहे मराठी हो या तेलुगु, मलयालम हो या कन्नड़, तमिल हो या बंगाली या फिर उडिया—सभी में संस्कृत की बड़ी हिस्सेदारी है। इन भाषाओं को संस्कृत परस्पर जोड़ती है। संस्कृत सारी भाषाओं की कड़ी है। इसीलिए राष्ट्रीय जन-जीवन में सर्व-स्वीकार्य है।

प्रो. शास्त्री न केवल संस्कृत आयोग अध्यक्ष के रूप में बल्कि एक विद्वान के तौर पर भी संस्कृत को आधुनिक जन-जीवन से जोड़ने के प्रबल पक्षधर है। २९ सितंबर १९३० को जन्मे प्रो. शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन संस्कृत के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा है। उन्होंने १९५५ में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया। अपने चालीस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने विभागाध्यक्ष व कला संकायध्यक्ष का पदभार भी संभाला।

वे जगन्नाथ विश्वविद्यालय, पुरी के कुलपति भी रहे। उन्होंने जर्मनी, कनाडा, बेल्जियम, फ्रांस, अमरीका, इंग्लैण्ड सहित द. पूर्वी एशियाई अनेक देशों में भ्रमण किया और संस्कृत के प्रसार में योगदान किया। उन्होंने थाईलैण्ड के राजपरिवार को संस्कृत शिक्षा से जोड़ा और वहां के शिल्पाकोर्न विश्वविद्यालय में संस्कृत अध्ययन केन्द्र खुलवाया। उनको संस्कृत सेवाओं के लिए थाईलैण्ड, इटली, रोमानिया और कनाडा के कई महत्वपूर्ण पुरस्कार मिल चुके हैं।

देश में ही उनके नाम पुरस्कार और मान-सम्मान तथा अलंकरणों की एक लम्बी फेहरिस्त है। उनके नाम करीब ६५ पुरस्कार दर्ज हैं। संस्कृत साहित्य रचनाओं में उनका अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी में गद्य और पद्य में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनमें सर्वाधिक चर्चित पुस्तक "श्रीरामकीर्ति महाकाव्यम्" है जिसके लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।

वे मानते हैं कि हमारे अतीत को समझने के लिए ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं को जानने-समझने के लिए भी संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत के जरिए ही हम कई देशों की जड़ों को पहचान सकते हैं। संस्कृत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सदियों पहले थी।

स्त्रोत : राजस्थान पत्रिका

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