सांप्रदायिक हिंसा कानूनः कवच या दुधारी तलवार

मार्गशीर्ष शुक्ल ५, कलियुग वर्ष ५११५


न कोई सही न कोई गलत

हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों पर विचार-विमर्श के दौरान कुछ लोगों ने इस बात को उठाया था कि केंद्र सरकार ने सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक को पास कर दिया होता तो ये हिंसा नहीं हो पाती।
व्यावहारिक सच यह है कि इस कानून को पास कराना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। हाल में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने संकेत दिया था कि सरकार ने इस कानून पर काम शुरू कर दिया है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रहमान ख़ान का कहना है कि इस मामले में आम सहमति बनाने की कोशिश हो रही है।


आलोचना भी सराहना भी

जेडीयू के नेता केसी त्यागी ने इस क्लिक करें कानून का विरोध करने वाले नरेंद्र मोदी की आलोचना की है। क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि उनकी पार्टी इस विधेयक को पारित कराने में मदद करेगी? इस कानून का प्रारूप राष्ट्रीय विकास परिषद (एनएसी) ने तैयार किया है।
प्रस्तावित कानून के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारों को ज़िम्मेदारी दी गई है कि वे अनुसूचित जातियों, जन जातियों, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके की गई हिंसा को रोकने और नियंत्रित करने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करें। इस मसौदे में हिंसा की परिभाषा, सरकारी कर्मचारियों द्वारा कर्तव्य की अवहेलना की सज़ा और कमांड का दायित्व भी तय किया गया है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने १४ जुलाई २०१० को इस विधेयक का खाका तैयार करने के लिए एक प्रारूप समिति का गठन किया था और २८ अप्रैल २०११ की एनएसी की बैठक के बाद नौ अध्यायों और १३५ धाराओं में इसे तैयार किया गया। २२ जुलाई २०११ को यह सरकार को सौंप दिया गया।


राज्यों ने किया विरोध

इस मामले में सबसे बड़ा पेच केंद्र-राज्य संबंध है। सितंबर २०११ में राष्ट्रीय एकता परिषद की १३ वीं बैठक में इसपर बात ही नहीं हो पाई क्योंकि कई राज्यों के मुख्यमंत्री इसके ख़िलाफ़ थे। बैठक में पाँच मुख्यमंत्री शामिल नहीं हुए। नरेन्द्र मोदी का शामिल न होना समझ में आता था क्योंकि ये विधेयक गुजरात जैसी परिस्थिति को सामने रखकर ही बनाया गया है।
लेकिन ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता और नीतीश कुमार भी नहीं आए। विधेयक के खिलाफ भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री तो बोले ही, भाजपा से रास्ता अलग कर लेने वाले उड़ीसा के नवीन पटनायक भी बोले। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी इसके पक्ष में नहीं हैं।
अब उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार है लेकिन मुलायम सिंह ने इसके बारे में खुली राय ज़ाहिर नहीं की है। गुरुवार को सपा नेता रामगोपाल यादव ने इस विधेयक पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुए कहा कि ऐसे किसी विधेयक के पेश होने की इस बार संभावना नहीं है। कांग्रेस तब किस आधार पर इस विधेयक को संसद में पेश करना चाहती है?


गहरे राजनीतिक अर्थ भी हैं

सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ साल २००५ का एक विधेयक पहले से राज्य सभा में पड़ा है। उसके मुकाबले एनएसी के इस प्रारूप विधेयक के तेवर काफ़ी तीखे हैं और इसके राजनीतिक निहितार्थ काफ़ी गहरे हैं। हालांकि यूपीए को इस मामले में सीपीएम तक का समर्थन तक नहीं मिला है।
सीपीएम सांप्रदायिकता के खिलाफ कानून बनाने के पक्ष में है लेकिन यह मामला देश की संघीय भावना के खिलाफ भी जा रहा है। सांप्रदायिक हिंसा को कानून-व्यवस्था का मामला माना जाता है, जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। प्रस्तावित विधेयक से यह मामला सीधे केन्द्र सरकार के पाले में आ जाएगा।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में इस विधेयक पर विचार के दौरान संविधान के अनुच्छेद ३५५ और ३५६ के अधीन कार्रवाई करने की सलाह भी दी गई। यानी यदि राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा रोकने में दिक्कत हो तो केन्द्र हस्तक्षेप करे। सांप्रदायिक हिंसा कानून के इस मसौदे में अल्पसंख्यकों को 'समूह' कहा गया है।
ये अल्पसंख्यक समूह धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। इन समूहों की रक्षा के लिए ये कानून प्रस्तावित है। इसके तहत अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों की रक्षा के उपबंध भी हैं।
इसमें यह भी व्यवस्था है कि यदि किसी पर हिंसा का आरोप लगता है तो उसके लिए साक्ष्य आरोप लगाने वाले को नहीं देने हैं बल्कि जिसपर आरोप है, उसे खुद को निर्दोष साबित करना होगा।


जहाँ फर्क कम है, वहाँ क्या?

कानून हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं करता बल्कि सिद्धांत रूप में जहाँ हिंदू अल्पसंख्या में होंगे वहाँ उन्हें इस कानून का लाभ मिलेगा। लेकिन उन इलाकों में जहाँ संख्या का अंतर ज़्यादा नहीं है, किस तरह से कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं है। कई जगह स्थिति ऐसी है कि अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच ६०:४० का अनुपात है।
कई जगह अनुसूचित जाति-जनजाति को बहुसंख्यक माना जाएगा और व्यावहारिक रूप से जब उन्हें जातीय आधार पर लक्षित किया जाएगा तो वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह भी स्पष्ट नहीं है कि एक से अधिक अल्पसंख्यक 'समूहों' के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा।
भारतीय जनता पार्टी इस बात को इस रूप में रख रही है कि इस कानून की मानें तो सांप्रदायिक हिंसा केवल बहुसंख्यक वर्ग ही करता है।
सांप्रदायिक दंगों के आँकड़े यही बताते हैं कि अस्सी से नब्बे फीसदी दंगा-पीड़ित मुसलमान और कुछ जगहों पर ईसाई होते हैं। ऐसे में पुलिस का व्यवहार भी अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ होता है। इसकी वजह यह भी है कि पुलिस में अल्पसंख्यकों की संख्या बेहद कम है।


असुरक्षित अल्पसंख्यक मन को संतोष

इस कानून का लाभ कांग्रेस उठा पाएगी या नहीं लेकिन भारतीय जनता पार्टी अपने बिछुड़े हिंदू आधार को वापस पाने की कोशिश ज़रूर करेगी। वर्ग विशेष के ख़िलाफ़ दुर्भावना, घृणा और दुष्प्रचार रोकने के लिए भी सरकार को विशेष अधिकार प्राप्त होंगे। लेकिन इसके नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का प्रयास भी हो सकता है।
असुरक्षित अल्पसंख्यक मन को संतोष देने के लिए यह विचार सही है लेकिन लगता है कि इसकी व्यावहारिकता के बारे में ज्यादा सोचा नहीं गया है। अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समूहों की भी होती है। यदि शुरुआत से ही उन्हें दो समूहों में बाँट देंगे तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।
देश में सांप्रदायिक सद्भाव तैयार करने के लिए राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव प्राधिकरण भी बनाने का प्रस्ताव है। इसके सात में से चार सदस्य इन अल्पसंख्यक समूहों के होंगे। प्राधिकरण के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी इन समूहों के होंगे।


कई दांव पेंच भी हैं यहां

विधेयक के विरोधियों का कहना है कि यदि कोई हिंसा मुसलमानों और अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों के मध्य होती है तो उस स्थिति में यह विधेयक मुस्लिमों का साथ देगा और इस प्रकार दलितों की रक्षा के लिए बना हुआ दलित एक्ट भी अप्रभावी हो जाएगा।
प्रस्तावित विधेयक की धारा छह में स्पष्ट किया गया है कि इस विधेयक के अंतर्गत अपराध उन अपराधों के अलावा है जो अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, १९८९ के अधीन आते हैं। विधेयक के विरोधी पूछते हैं कि क्या किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित किया जा सकता है?
धारा सात के अनुसार सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में बहुसंख्यक समुदाय से संबद्ध महिला के साथ बलात्कार होगा तो यह इस नियम के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा। बहुसंख्यक महिला 'समूह' की परिभाषा में नहीं आएगी। आईपीसी के तहत वह बलात्कार होगा लेकिन इस कानून के अंतर्गत नहीं।
इसी प्रकार धारा आठ के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी 'समूह' या 'समूह' से संबंध रखने वाले व्यक्ति के विरूद्ध घृणा फैलाएगा तो अपराध माना जाएगा। 'समूह' द्वारा बहुसंख्यकों के विरुद्ध घृणा फैलाने की स्थिति में यह विधेयक मौन है।

स्त्रोत : अमर उजाला 

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