आलोचना : ऋग्वेदकाल के प्राचीन समय में मानवी रक्त का मूल्य सौ गायों जितना था। उस समय लेन-देन में गाय की संख्या अधिक थी। गाय केवल दुधारु पशु होने के कारण भारतीयों को उसके संदर्भ में गौरव प्रतीत होता था !’ – कीथ (संदर्भ : Cambridge History of India (vol.1.Page 102)
खंडन : ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में गोपूजन है। ऋग्वेद में ‘गाय अवध्य है’, ऐसा स्पष्ट निर्देश है। अति प्राचीन काल से गाय के संदर्भ में भारतीयों को परमप्रेम है। गाय के लिए यहां युद्ध भी हुए हैं। पुराण एवं महाभारत में गाय के लिए प्राणार्पण करने के अनेक निर्देश हैं। हिन्दुओं के लिए गोवध महापाप है। विष्णुपुराण में ‘पृथ्वी गाय बनी। पृथु वेन ने उसका दोहन किया’, ऐसी कथा है; इसलिए पृथ्वी को ‘गौ’ कहते हैं। गाय एवं वाणी एकरूप हैं; इसलिए वाणी को भी ‘गौ’ कहते हैं। गृह्यसूत्र के अनुसार गाय रुद्र की माता एवं वसू की कन्या है। आदित्य की बहन है। अमृतत्त्व की नाभि है; इसलिए निरीह गाय को न मारे एवं महापाप के भागीदार न बनें !’
इतनी स्पष्टता से ऋग्वेद में गाय की महिमा बताई गई है। फिर भी उपरोक्त मिथ्या वक्तव्य कर समाज में भ्रम उत्पन्न करने का पश्चिमी लोगों का षडयंत्र स्पष्ट होता है !’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक सनातन चिंतन, २८.८.२००८)
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात