वेदाभिमुखता से मानवाभिमुखता की ओर जाना है ! – महाश्वेता

‘आलोचना : ‘मानव को वेदाभिमुखता से मानवाभिमुख करना है। वेद में बताया है कि, सभी का आत्मा परमात्मा है। मैं जनजाति में उस परमात्मा को देखती हूं। परमेश्वर ने मेरा जीवन ही जनजाति के लिए नियुक्त किया है। अगला जन्म भी मैं इस जनजाति के लिए ही लूंगी !’ – महाश्वेता

खंडन : महाश्वेता ! जनजाति विशेष कर फासे-पारधी जनजाति के लिए जीवन समर्पित करनेवाली विख्यात विदुषी हैं ! उनके वक्तव्य कितने अयोग्य एवं उनका अज्ञान दर्शानेवाले हैं, यह आगे दी गई बातों से स्पष्ट होगा।

१. ‘वेदाभिमुखता से समाज को मानवाभिमुख करना है। वेद मानवाभिमुख नहीं हैं’, ऐसा वे कहती हैं। उन्हें वेद बिल्कुल ही समझ में नहीं आए हैं। उन्होंने वेद कभी पढे भी हैं ?, ऐसी शंका उपस्थित होती है ! मानव सनातन है, इसलिए वेद ने धर्म को ‘मानव धर्म’, भी कहा है; पर तब भी वेद ने केवल मानव का विचार न कर पूरे जगत का विचार किया है !

२. वे ऐसा कहती हैं कि ‘वेद में सबकी अंतरात्मा को परमात्मा बताया गया है’, इसी समय वे ऐसा भी कहती हैं कि वेद मानवाभिमुख नहीं हैं’, अर्थात उन्हें वेद नहीं चाहिए। ऐसी स्थिति में वे उपरोक्त वेदवचन को कैसे मानती हैं ? महाश्वेताजी धर्म, आत्मा अथवा परमात्मा को नहीं मानती एवं तब भी वे कहती हैं कि ईश्वर ने मेरा जीवन जनजाति के उद्धार के लिए नियोजित किया है। यह कैसे हो सकता है ?

३. वे पुनर्जन्म भी नहीं मानती, तो अगला जन्म वे जनजाति के उद्धार के लिए कैसे लेंगी ?

४. उनके देहली में एवं अन्यत्र विशाल भवन हैं एवं उनका जीवनस्तर उच्च है !’

इस प्रकार परस्पर विरोधी वक्तव्य कर वे सामान्य लोगों को भ्रमित करती हैं। इससे जनजाति के प्रति उनकी आत्मीयता एवं समाजकार्य क्या केवल उनका दिखावा है, यह स्पष्ट नहीं होता ?

वेदज्ञान से मनुष्य गुरु के सानिध्य में धर्माचरण एवं साधना कर ईश्वरप्राप्ति कर सकता है। ऐसा होते हुए भी उनका यह कथन कि मानव को वेदाभिमुखता की ओर से मानवाभिमुख करना है, कितना मूर्खतापूर्ण एवं बचकाना है, यह स्पष्ट होता है !

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, नवंबर २००५)

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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