आलोचना : वेद ऋषि पृथ्वी को समतल मानते थे ! ‘पृथ्वी गोल है’, उन्हें यह ज्ञात ही नहीं था ।
खंडन :
१. ऋग्वेद में यज्ञप्रसंग का एक संवाद है ।
यजमान : पृथ्वी का अंत कहा होता है ? भुवनों की नाभि कहां है ?
पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः ।
पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः । ऋग्वेद १.१६४.३४
अध्वुर्य (यज्ञ की वेदी दर्शाते हुए) : यह यज्ञवेदी ही पृथ्वी का अंत है एवं यह यज्ञ सब भुवनों की नाभि है ।
यजमान : भरतखंड में सर्वत्र सहस्रों यज्ञ होते हैं । अतः प्रत्येक यज्ञवेदी पृथ्वी का अंत हो जाएगी, ऐसा कहना बचपना है ।
अध्वुर्य : पृथ्वी गोल है । ऋषियों को यह ज्ञात था । गोल वस्तु का आदि एवं अंत नहीं होता । जहां से आरंभ करेंगे, वहीं पर अंत भी है । लंबाई तथा चौडाई वाली समतल वस्तु का आरंभ एवं अंत बताना संभव है; परंतु गोल पृथ्वी का आदि एवं अंत कैसे हो सकता है ? जहां से प्रदक्षिणा का आरंभ किया, वहीं अंत है । पृथ्वी का आरंभ-अंत क्या पूछते हो ? पृथ्वी गोल होने से प्रत्येक स्थान आरंभ है एवं अंत भी है ।
इससे स्पष्ट दिखाई देता है कि वेदकाल में ऋषियों को ज्ञात था कि पृथ्वी गोल है । उलटे पश्चिमी लोगों ने ही आरंभ में ‘पृथ्वी समतल है’, ऐसा सिद्धांत प्रस्तुत किया था; परंतु जब पृथ्वी गोल है, दिखाई दिया तब उन्होंने वह सिद्धांत परिवर्तित किया ।
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक सनातन चिंतन, १ मई २००८)