भाद्रपद शुक्ल पंचमी अर्थात् ऋषिपंचमी

Rishi Panchami Video

         हमारा देश ऋषियों-मुनियों एवं संत महात्माओं का देश है, जिन्होंने तपस्यासे पवित्र हुए ज्ञानसे न केवल आध्यात्मिक शक्तिकी ज्योति जलाई अपितु अपने श्रेष्ठ मर्यादित शील, आचरण, अहिंसा, सत्य, परोपकार, त्याग, ईश्वरभक्ति आदिके द्वारा समस्त मानव जातिके समक्ष जीवन जीनेका एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया ।

इन्हींके बताए मार्गपर चलकर, उसका आचरण करके भारत किसी समय ज्ञान-विज्ञान, भक्ति और समृद्धिके चरम शिखरतक पहुंचा था । इस देशमें इतने ऋषि-मुनि और संत-महात्मा हुए हैं कि उनका नाम गिनना संभव नहीं है । कौन कितना जेष्ठ और श्रेष्ठ था, इसका मूल्यांकन करना भी संभव नहीं है ।

महर्षि कश्यपके कारण ही सर्ग एवं सृष्टिका विकास हुआ । हम सभी उन्हीं की संतान हैं । विष्णु पुराण, मारकंडेय और मत्स्य पुराणमें ऋषियोंके सर्गका विवरण है ।

अपने पूर्वजों अर्थात् ऋषियोंने संपूर्ण मानवजातिके कल्याणके लिए स्वयं अपार त्याग एवं तपश्चर्याद्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान हमें धरोहरके रूपमें दिया है । इसलिए उनके श्रीचरणों में कृतज्ञतापूर्वक शत्-शत् प्रणाम करें और यह प्रार्थना करें कि उन्होंने दिया हुआ ज्ञान दिनोदिन हमारे आचरणमें आए ! साथ ही  इसका महत्त्व हमारे सभी हिंदु भाई- बहनोंको भी देनेका व्रत लें । जिससे हमारा देश पुनः वह गौरव प्राप्त कर सके । इसीसे हम उनके ऋणसे मुक्त हो सकते हैं ।

इन्हीं ऋषियोंने हमारे यहां ब्रह्मा से प्राप्त ज्ञानकी विविध शाखाओंको उन्नत किया । महर्षि भारद्वाजके ‘यंत्र सर्वस्व’में विभिन्न ऋषियोंके अनुसंधानसे विमान विद्या, जल विद्या, वाष्प विद्या, स्वचलित यंत्र विद्या जैसे विविध विज्ञानोंके विकासकी जानकारी मिलती है । वायु पुराणके मतानुसार वास्तु ग्रंथ समरांगण सूत्रधारके महासर्गादि अध्यायमें वृक्षोंके साथ रहनेवाले मानव समुदायके विज्ञान सम्मत विकासका वर्णन है, जिन्होंने कभी देवतारूपमें तो कभी ऋषिरूपमें अनुभव लिया । उन्होंने सर्वप्रथम अनाजके रूपमें सांवाको (शाली तंडुल) आहारके रूपमें लिया और ज्ञानार्जनमें अपनेको लीन किया । इसीलिए ऋषिपंचमीको ऋषिधान्यके रूपमें सांवाकी खिचडी (कृसरान्न) अथवा खीर बनाकर आहार किया जाता है ।

अपने परिवारमें पुत्र-पुत्रियोंके ऋषिप्रज्ञा होनेकी कामनासे सप्तऋषियोंकी पूजा की जाती है । एक प्रकारसे यह ऋषियोंकी प्रज्ञाको सम्मान देनेका स्मृति पर्व है । इसलिए अंगिरा, गर्ग, दधिची आदिका पूजन भी किया जाना चाहिए । दूब, सांवा, मलीची नामक घासको एकत्रित कर तृणोंके सात पुंज एवं समूह बनाएं और प्रत्येक पुंजपर लाल कपडा अथवा मौली लपेटें । पूजा स्थलपर इन्हें दूध, जल से स्नान करवाएं और धूप, दीप जलाकर खीर अर्पण करें । इस अवसरपर बृहस्पति, गर्ग, भारद्वाज, विश्वामित्र, विश्वकर्मा आदि का स्मरण करें ।

जो ऋषि जिस विद्यासे संबंधित हों और अपना परिवार जिस विद्यासे धनार्जन करता हो, उस ऋषिका पूजन करनेसे संबंधित कार्यमें दुगुने लाभ, पद, पदोन्नति और यश की प्राप्ति होती है । सबसे महत्त्वपूर्ण है कि हमारे ऋषि- मुनियोंद्वारा दिया ज्ञान हम अपने सभी हिंदु भाई-बहनोंको दें । जिससे उन्हें भी धर्मपालनमें सहायता होगी एवं ऋषि-मुनियोंके ज्ञानका प्रचार-प्रसार करें । उन्होंने भी जीवनभर यही कार्य किया है, यदि वही कार्य अपनी क्षमता अनुसार हम भी करते हैं, तो निश्चित रूपसे हमें उनके आशीर्वाद प्राप्त होंगे ।

‘ऋषि’ शब्दकी व्युत्पत्ति ‘ऋषि’ गतौ धातुसे मानी जाती है ।

ऋषति प्राप्नोति सर्वान् मन्त्रान, ज्ञानेन पश्यति संसार पारं वा ।
ऋषु इगुपधात् कित्ड इति उणादिसूत्रेण इन् किञ्च् ।

इस व्युत्पत्तिका संकेत वायु पुराण, मत्स्य पुराण तथा ब्रह्मांड पुराणमें किया गया है ।

ब्रह्मांड पुराणकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है –

गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नाम निवृत्तिरादित: ।
यस्मादेव स्वयंभूतस्तस्माच्चाप्यृषिता स्मृता ?

वायु पुराणमें ऋषि शब्दके अनेक अर्थ बताए गए हैं –

ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ् ।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत: ?

इस श्लोकके अनुसार ‘ऋषि’ धातुके चार अर्थ होते हैं –
गति, श्रुति, सत्य तथा तपस् । ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्तिमें ये चारों वस्तुएं नियत कर दी जाएं, वही ‘ऋषि’ होता है । वायु पुराणका यही श्लोक मत्स्य पुराणमें किंचित पाठभेदसे उपलब्ध होता है ।

दुर्गाचार्यकी निरुक्ति है – ऋषिर्दर्शनात् । इस निरुक्तसे ऋषिका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – दर्शन करनेवाला, तत्वोंकी साक्षात् अपरोक्ष अनुभूति रखनेवाला विशिष्ट पुरुष । ‘साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूअ:’ – यास्काचार्यका यह कथन इस निरुक्तिका प्रतिफलितार्थ है । दुर्गाचार्यका कथन है कि किसी मंत्र विशेषकी सहायतासे किए जाने पर किसी कर्मसे किस प्रकारका फल परिणत होता है, ऋषिको इस तथ्यका पूर्ण ज्ञान होता है । तैत्तिरीय आरण्यकके अनुसार इस शब्द ऋषिकी व्याख्या इस प्रकार है – ‘सृष्टिके आरंभमें तपस्या करनेवाले अयोनिसंभव व्यक्तियोंके पास स्वयंभू ब्रह्म वेदब्रह्म स्वयं प्राप्त हो गया । वेदका इस स्वतः प्राप्तिके कारण, स्वयमेव आविर्भाव होनेके कारण ही ऋषिका ‘ऋषित्व’ है । इस व्याख्यामें ऋषि शब्दकी निरुक्ति ‘तुदादिगण ऋष गतौ’ धातुसे मानी गई है । अपौरुषेय वेद ऋषियोंके ही माध्यमसे विश्वमें आविर्भूत हुआ और ऋषियोंने वेदके वर्णमय विग्रहको अपने दिव्य श्रोत्रसे श्रवण किया, इसीलिए वेदको श्रुति भी कहा गया है । आदि ऋषियोंकी वाणीके पीछे अर्थ दौडता-फिरता है । ऋषि अर्थके पीछे कभी नहीं दौडते ‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावतिः’ उत्तर रामचरित, प्रथम अंग । निष्कर्ष यह है कि तपस्यासे पवित्र ‘अंतर्ज्योति संपन्न मंत्रद्रष्टा व्यक्तियोंकी ही संज्ञा ऋषि है ।

यह वह व्यक्ति है, जिसने मंत्रके स्वरूपको यथार्थ रूपमें समझा है । ‘यथार्थ’- ज्ञान प्रायः चार प्रकार-से होता है परंपराके मूल पुरुष होनेसे, उस तत्त्वके साक्षात् दर्शनसे, श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कारसे और इच्छित अभिलषित-पूर्ण सफलताके साक्षात्कारसे । अतएव इन चार कारणोंसे मंत्र-संबंधित ऋषियोंका निर्देश ग्रंथोंमें मिलता है । जैसे — कल्पके आदिमें सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशिका प्रथम उपदेश ब्रह्माजीके हृदयमें हुआ और ब्रह्माजीसे परंपरागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश ‘वंश ब्राह्मण’ आदि ग्रंथोंमें उपलब्ध होता है । अतः समस्त वेदकी परंपराके मूल पुरुष ब्रह्मा ऋषि हैं । इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषिके रूपमें किया जाता है ।

इसी परमेष्ठी प्रजापतिकी परंपराकी वैदिक शब्दराशिके किसी अंशके शब्द तत्त्वका जिस ऋषिने अपनी तपश्चर्याद्वारा किसी विशेष अवसरपर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मंत्रका ऋषि कहलाया । उस ऋषिका यह ऋषित्व शब्दतत्त्वके साक्षात्कारका कारण माना गया है । इस प्रकार एक ही मंत्रका शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियोंको भिन्न-भिन्न रूपसे अथवा सामूहिक रूपसे हुआ था । अतः वे सभी उस मंत्रके ऋषि माने गए हैं ।

कल्प ग्रंथोंके निर्देशोंमें ऐसे व्यक्तियोंको भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मंत्र अथवा कर्मका प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है । वैदिक ग्रंथों विशेषत: पुराण-ग्रंथोंके मननसे यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियोंने किसी मंत्रका एक विशेष प्रकारके प्रयोग तथा साक्षात्कारसे सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मंत्रके ऋषि माने गए हैं ।

उक्त निर्देशोंको ध्यानमें रखनेके साथ यह भी समझ लेना चाहिए कि एक ही मंत्रको उक्त चारों प्रकारसे अथवा एक ही प्रकारसे देखनेवाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं । फलतः एक मंत्रके अनेक ऋषि होनेमें परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि मंत्र ऋषियोंकी रचना एवं अनुभूतिसे संबंध नहीं रखता; अपितु ऋषि ही उस मंत्रसे बहिरंग रूपसे संबंद्ध व्यक्ति है ।

वेद, ज्ञानका प्रथम प्रवक्ता; परोक्षदर्शी दिव्य दृष्टिवाला, जो ज्ञानके द्वारा मंत्रोंको अथवा संसारकी चरम सीमाको देखता है, वह ऋषि कहलाता है । उसके सात प्रकार हैं –

व्यास आदि महर्षि
भेल आदि परमर्षि
कण्व आदि देवर्षि
वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि
सुश्रुत आदि श्रुतर्षि
ऋतुपर्ण आदि राजर्षि
जैमिनि आदि काण्डर्षि

रत्नकोष में भी कहा गया है –

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमषर्‍यः ।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावराः ।।

अर्थात् – ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से हैं ।

सामान्यतः वेदों की ऋचाओंका साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे । ऋग्वेदमें प्रायः पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियोंका उल्लेख है । प्राचीन रचनाओंको उत्तराधिकारमें प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था । ब्राह्मणोंके समय तक ऋचाओंकी रचना होती रही । ऋषि, ब्राह्मणोंमें सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलताकी तुलना प्रायः त्वष्टासे की गई है । जो स्वर्गसे उतरे माने जाते थे । निस्संदेह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा संभ्रांत लोगोंसे संबंधित होते थे । कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओंकी रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे ।

आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है । साधारणतया मंत्र एवं काव्यरचना ब्राह्मणोंका ही कार्य था । मंत्र रचनाके क्षेत्रमें कुछ महिलाओंने भी ऋषिपद प्राप्त किया था । परवर्ती साहित्यमें ऋषि ऋचाओंके साक्षात्कार करनेवाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ। प्रत्येक वैदिक सुक्तके उल्लेखके साथ एक ऋषिका नाम आता है । ऋषिबण पवित्र पूर्व कालके प्रतिनिधि हैं तथा साधु माने गए हैं । उनके कार्योंको देवताओंके कार्यके तुल्य माना गया है । ऋग्वेदमें कई स्थानोंपर उन्हें सातके दलमें उल्लेखित किया गया है ।

बृहदारण्यक उपनिषद

बृहदारण्यक उपनिषदमें उनके नाम गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप एवं अत्रि बताए गए हैं ।

ऋग्वेद
ऋग्वेदमें कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक, वसिष्ठ, व्यश्व तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं ।

अथर्ववेद
अथर्ववेदमें और भी बडी तालिका है । जिसमें अंगिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वसिष्ठ, भारद्वाज, गविष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवंत, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उशना काव्य, गौतम तथा मुदगलके नाम सम्मिलित हैं ।

वैदिक काल
वैदिक कालमें कवियोंकी प्रतियोगिताका भी प्रचलन था । अश्वमेध यज्ञके एक मुख्य अंग ‘ब्रह्मेद्य’ समस्यापूर्ति का यह एक अंग था । उपनिषद कालमें भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही । इस कार्यमें सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवाल्क्य, जो विदेहके राजा जनककी राजसभामें रहते थे ।

ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गए हैं । उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए साहित्यको आर्षेय कहा जाता है । यह विश्वास है कि कलियुगमें ऋषि नहीं होते, अतः इस युगमें न तो नई श्रुतिका साक्षात्कार हो सकता है और न नई स्मृतियोंकी रचना । उनकी रचनाओंका केवल अनुवाद भाषा और टीका ही संभव है ।

भारतके सुनहरे भविष्यके आशाकी किरण :
संकेतस्थलपर इसी विषयपर एक जिज्ञासु श्री. रविकांत शर्माद्वारा पूछा गया प्रश्न तथा कुछ अध्येता जैसे सोनिया, श्री. शिव, श्री. चतुर्वेदी, रति तथा होशियारद्वारा दिए हुए उत्तरके आधारपर यह छोटासा लेख है । यह सभी अपने देव, देश तथा धर्मके प्रति श्रद्धा एवं सजगताके लिए प्रशंसाके पात्र तो हैं ही, साथ-साथ इन जैसे धर्माभिमानी लोग ही हमारे देशके सुनहरे भविष्यकी आशाकी किरण हैं ।

प्रश्न : यदि हमारे ऋषि-मुनि ज्ञानका वह दिव्य स्तर प्राप्त कर चुके थे, तो वह सब कहां लुप्त हो गया ?
उत्तर : यह कोरी कल्पना नहीं इतिहास साक्षि है कि, धरती पर अनेक सभ्यताएं पनपीं और फिर अपनी उपलब्धियों समेत कालके गर्भमें समा गयी; परंतु सबसे प्रचिन हिंदु सभ्यता आज भी जीवीत है । इसका सारा श्रेय हमारे ऋषि-मुनियोंको ही जाता है । इसका कारण उनका ज्ञान केवल किसी एक सभ्यताके लिए ऐसा संकुचित नहीं था; अपितु संपूर्ण मानवजातिके कल्याणकी कामनासे प्रकट हुआ है ।

इसी कारण वह आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूपमें विद्यमान है । हां, यह अवश्य कह सकते हैं कि हम उसे ढूंढनेमें न्यून पड रहे हैं; यदि हम उस ज्ञानको ग्रहण करनेकी पात्रता अपनेमें निर्माण कर सकते हैं अर्थात ‘साधना’ करें, तो वह ज्ञान हम आज भी प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि हमारे ऋषि-मुनिके ज्ञानका स्तर आध्यात्मिक था । आध्यात्मिक ज्ञानको श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वासके द्वारा ही जाना सकता है न कि भौतिक विज्ञानसे । इसीलिए उस ज्ञान प्राप्तिके लिए ‘साधना’ करना अनिवार्य है ।

भारतकी सैकडों वर्षोंकी दासत्वका यह एक परिणाम है कि हमने अपना ज्ञान भुला दिया ! दास्यत्वके (गुलामी) दिनोंमें मंदिर, ज्ञानके केंद्र तोडे गए, ज्ञानी लोगोंको, ब्राह्मणोंको मारा गया और इस प्रकार धीरे-धीरे हमारा ज्ञान लुप्त हो गया । उस ज्ञानका पुन: प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता है, जैसा भगवद् गीतामें भगवान श्रीकृष्णने कहा था कि गीता ज्ञान सबसे पहले सूर्यदेवको दिया था और वह समयके साथ लुप्तप्राय हो गया !

वैसे एक प्रकारसे देखा जाए तो, हमारे ऋषि-मुनियोंका ज्ञान कहां लुप्त हुआ है; क्योंकि जो बातें उन्होंने अपने शास्त्र ज्ञानसे अनेक युगों पूर्व कही थीं, वही बात आज विज्ञान कह रहा है । अर्थात् किसी न किसी रूपमें उनका सही ज्ञान आज भी जीवित है और वर्तमानमें अधिकसे अधिक वैज्ञानिक उन्हीं बातोंका संशोधन कर रहे हैं, जो हमारे ऋषि-मुनि पहले ही बता गए हैं । राजा युधनाश्वकी कोखसे मांधाताके जन्मकी कथा अविश्वनीय नहीं मान सकते, आज विज्ञानने ऐसा कर दिखाया है !

संदर्भ ग्रंथ सूची
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सिद्धांत कौमुदी सूत्र-संख्या-१८२७ के अनुसार
४/११९
वायु पुराण, ७/७५
मत्स्य पुराण, १४५/८३
ब्रह्माण्ड पुराण, १/३२/८७
५९/७९
अध्याय १४५, श्लोक ८१
निरुक्त २/११

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