दशहरा अर्थात विजयादशमी संबंधित अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी


सारिणी


‘दश’ का अर्थ है दस एवं हरा अर्थात हार गया या पराजित हुआ । आश्विन शुक्ल दशमीकी तिथिपर दशहरा मनाते हैं । दशहरेके पूर्वके नौ दिनोंतक अर्थात नवरात्रिकालमें दसों दिशाएं देवीमांकी शक्तिसे संचारित होती हैं । दशमीकी तिथिपर ये दिशाएं देवीमांके नियंत्रणमें आ जाती हैं अर्थात दिशाओंपर विजय प्राप्त होती है । इसी कारण इसे ‘दशहरा’ कहते हैं । दशमीके दिन विजयप्राप्ति होनेके कारण इस दिनको ‘विजयादशमी’ के नामसे भी जानते हैं । दुर्गानवरात्रिकी समाप्तिपर यह दिन आता है; इसलिए इसे ‘नवरात्रिका समाप्ति-दिन’ भी मानते हैं । विजयादशमीके दिन सरस्वतीतत्त्व प्रथम सगुण अवस्था प्राप्त कर, तदुपरांत सुप्तावस्थामें जाता है अर्थात अप्रकट अवस्था धारण करता है । इस कारण दशमीके दिन सरस्वतीका पूजन एवं विसर्जन करते हैं । विजयादशमी साढेतीन मुहूर्तोंमेंसे एक है । इस दिन कोई भी कर्म शुभफलदायी होता है ।

दशहरा दृश्यपट (Dussehra : 3 Videos)

१. दशहरेका इतिहास

१. भगवान श्रीरामके पूर्वज अयोध्याके राजा रघुने विश्वजीत यज्ञ किया । सर्व संपत्ति दान कर वे एक पर्णकुटीमें रहने लगे । वहां कौत्स नामक एक ब्राह्मणपुत्र आया । उसने राजा रघुको बताया, कि उसे अपने गुरुको गुरुदक्षिणा देनेके लिए १४ करोड स्वर्ण मुद्राओंकी आवश्यकता है । तब राजा रघु कुबेरपर आक्रमण करनेके लिए सिद्ध हो गए । कुबेर राजा रघुकी शरणमें आए तथा उन्होंने अश्मंतक अर्थात अश्मंतक एवं शमीके वृक्षोंपर स्वर्णमुद्राओंकी वर्षा की । उनमेंसे कौत्सने केवल १४ करोड स्वर्णमुद्राएं लीं । जो स्वर्णमुद्राए कौत्सने नहीं लीं, वह सर्व राजा रघुने बांट दीं । तभीसे दशहरेके दिन एक दूसरेको सोनेके रूपमें लोग अश्मंतकके पत्ते देते हैं ।

२. त्रेतायुगमें प्रभु श्रीरामने इस दिन रावण वधके लिए प्रस्थान किया था । रामचंद्रने रावणपर विजयप्राप्तिके पश्चात इसी दिन उनका वध किया, ऐसी मान्यता है । इस दिनको ‘विजयादशमी’का नाम प्राप्त हुआ ।

३. द्वापरयुगमें अज्ञातवास समाप्त होते ही, पांडवोंने शक्तिपूजन कर शमीके वृक्षमें रखे अपने शस्त्र पुनः हाथोंमें लिए एवं विराटकी गउएं चुरानेवाली कौरवसेनापर आक्रमण कर विजय प्राप्त की । वह भी इसी दिन ।

४. दशहरेके दिन इष्टमित्रोंको सोना (अश्मंतकके पत्तेके रूपमें) देनेकी प्रथा महाराष्ट्रमें है । इस प्रथाका भी ऐतिहासिक महत्त्व है । मराठा वीर शत्रुके देशपर मुहिम चलाकर उनका प्रदेश लूटकर सोने-चांदीकी संपत्ति घर लाते थे । जब ये विजयी वीर अथवा सिपाही मुहिमसे लौटते, तब उनकी पत्नी अथवा बहन द्वारपर उनकी आरती उतारतीं । फिर परदेससे लूटकर लाई संपत्तिकी एक-दो मुद्रा वे आरतीकी थालीमें डालते थे । घर लौटनेपर लाई हुई संपत्तिको वे भगवानके समक्ष रखते थे । तदुपरांत देवता तथा अपने बुजुर्गोंको नमस्कार कर, उनका आशीर्वाद लेते थे । वर्तमान कालमें इस घटनाकी स्मृति अश्मंतकके पत्तोंको सोनेके रूपमें बांटनेके रूपमें शेष रह गई है ।

५. वैसे देखा जाए, तो यह त्यौहार प्राचीन कालसे चला आ रहा है । आरंभमें यह एक कृषिसंबंधी लोकोत्सव था । वर्षा ऋतुमें बोई गई धानकी पहली फसल जब किसान घरमें लाते, तब यह उत्सव मनाते थे । नवरात्रिमें घटस्थापनाके दिन कलशके स्थंडिल (वेदी)पर नौ प्रकारके अनाज बोते हैं एवं दशहरेके दिन उनके अंकुरोंको निकालकर देवताको चढाते हैं । अनेक स्थानोंपर अनाजकी बालियां तोडकर प्रवेशद्वारपर उसे बंदनवारके समान बांधते हैं । यह प्रथा भी इस त्यौहारका कृषिसंबंधी स्वरूप ही व्यक्त करती है । आगे इसी त्यौहारको धार्मिक स्वरूप दिया गया और यह एक राजकीय स्वरूपका त्यौहार भी सिद्ध हुआ ।

२. दशहरेका त्यौहार मनानेकी पद्धति

इस दिन सीमोल्लंघन, शमीपूजन, अपराजितापूजन एवं शस्त्रपूजन ये चार धार्मिक कृत्य किए जाते हैं ।

२ अ. सीमोल्लंघन

परंपराके अनुसार ग्रामदेवताको पालकीमें बिठाकर अपराह्न काल अर्थात दिनके तीसरे प्रहरमें दोपहर ४ के उपरांत लोग एकत्रित होकर गांवकी सीमाके बाहर ईशान्य दिशाकी ओर जाते हैं तथा जहां शमी अथवा अश्मंतक वृक्ष होता है, वहां तक जाकर रुक जाते हैं ।

२ आ. शमीपूजन अथवा अश्मंतकका पूजन

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शमीवृक्ष

शमीवृक्ष यदि उपलब्ध हो, तो उसका पूजन करते हैं । पूजनके उपरांत आगे दिए श्लोकोंसे शमीकी प्रार्थना करते हैं ।

शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका ।
धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी ।।
करिष्यमाणयात्रायां यथाकाल सुखं मया ।
तत्र निर्विघ्नकर्त्री त्वं भव श्रीरामपूजिते ।।

अर्थ : शमी पापोंका शमन (नाश) करती है । शमीके कांटे तांबेके रंगके अर्थात रेडिश होते हैं । शमी रामकी स्तुति करती है तथा अर्जुनके बाणोंको भी धारण करती है । हे शमी, रामने आपकी पूजा की है । मैं यथाकाल विजययात्रापर निकलूंगा । आप मेरी यात्राको निर्विघ्न एवं सुखमय बनाइए ।

अश्मंतकका पूजन

        शमीवृक्ष यदि उपलब्ध न हो, तो अश्मंतक वृक्षका पूजन करते हैं । इस समय आगे दिए मंत्रका उच्चारण करते हैं –

     अश्मन्तक महावृक्ष महादोषनिवारण ।
इष्टानां दर्शनं देहि कुरु शत्रुविनाशनम् ।।

अर्थ : हे अश्मंतक (कचनार) महावृक्ष, तुम महादोषोंका निवारण करनेवाले हो । मुझे मेरे मित्रोंका दर्शन करवाओ और मेरे शत्रुका नाश करो ।तदुपरांत उस वृक्षके नीचे चावल, सुपारी एवं सुवर्ण (पर्यायसे तांबे)की मुद्रा रखते हैं । फिर वृक्षकी परिक्रमा कर उसके मूलके पासकी थोडी मिट्टी एवं उस वृक्षके पत्ते घर लाते हैं ।

२ इ. अश्मंतकके पत्तोंको सोनेके रूपमें देना

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विजयादशमीके दिन अश्मंतकके पत्ते सोनेके रूपमें भगवानको अर्पण करते हैं एवं इष्टमित्रोंको देते हैं । बडे बुजुर्गोंको सोना दें, ऐसा संकेत है ।

१. विजयादशमीपर अश्मंतकके पत्ते बांटनेका अध्यात्मशास्त्रीय कारण

  • अश्मंतक वृक्षके मूलमें आकृष्ट निर्गुण तेजकी तरंगें उसके पत्तोंमें आना : ब्रह्मांडकी निर्गुण तेजकी तरंगें पृथ्वीकी ओर आकृष्ट होकर अश्मंतक वृक्षकी जडोंमें आती हैं । कालांतरसे यह तेजतत्त्व इस वृक्षके पत्तोंमें भी आ जाता है । ये तेजतरंगें इच्छा-क्रिया शक्तिसे युक्त होती हैं ।
  • अश्मंतक वृक्षके पत्तोंमें हरितद्रव्य अधिक होना तथा सूर्यकिरणोंके प्रभाव से उनमें तेजतत्त्व सक्रिय होना : अन्य वृक्षोंकी तुलनामें अश्मंतकके पत्तोंमें हरितद्रव्य अधिक मात्रामें होता है । जिस समय इन पत्तोंपर सूर्यकी किरणें पडती हैं, उस समय उनमें स्थित तेजतत्त्व सक्रिय होने लगता है । ये पत्ते सूखनेपर भी इनका मूल रंग बना रहता है । उनमें, अन्य वृक्षोंके तत्तोंकी तुलनामें अधिक परिवर्तन नहीं होता ।
  • पत्तोंसे निकलनेवाली तेजतरंगें वायुमंडलमें दीर्घकालतक रहती हैं ।
  • ‘सोनेके प्रतीकात्मक रूपमें’ अश्मंतकके पत्तोंका उपयोग करनेका अध्यात्मशास्त्रीय कारण : ‘सोना’ धातुमें तेजतत्त्वके स्पंदन कार्यरत रहते हैं, उसी प्रकार अश्मंतकके पत्तोंमें भी आंशिक मात्रामें तेजतत्त्वके स्पंदन सक्रिय रहते हैं । इसलिए इन पत्तोंका प्रयोग, ‘सोनेके प्रतीकात्मक रूपमें’ किया जाता है ।

२. विजयादशमी तथा अश्मंतकके पत्ते

  • विजयादशमीके दिन दैवी स्पंदन ब्रह्माण्डमंडलसे भूमंडलकी ओर आकृष्ट होना : ‘विजयादशमी’ साढेतीन मुहूर्तोंमें एक होनेके कारण इस दिन ब्रह्मांड मंडलसे दैवी स्पंदन भूमंडलकी ओर अधिक आकृष्ट होकर सक्रिय रहते हैं ।
  • विजयादशमीपर पत्तोंमें स्थित तेजतत्त्व अधिक मात्रामें सक्रिय होता है । इसलिए, इस दिन अश्मंतकके पत्ते बांटनेको विशेष महत्त्व है ।
  • अश्मंतकके पत्ते देनेसे त्याग एवं प्रीति बढना तथा विजयादशमी तिथि, ‘विजयदिवस’के रूपमें मनाया जाना :  एक-दूसरेको अश्मंतकके पत्ते देनेसे लोगोंमें त्याग एवं प्रीतिका भाव बढता है । अश्मंतकके पत्ते एक-दूसरेको देना, अपनी सोनेसमान बहुमूल्य वस्तु दूसरेको देनेसमान है । विजयादशमी, ‘विजयदिवस’ होनेके कारण, इस दिन अश्मंतकके आध्यात्मिक दृष्टिसे मूल्यवान पत्तोंका आदान-प्रदान कर आनंदोत्सव मनाया जाता है ।

३. विजयादशमीपर अश्मंतकके पत्तोंका आदान-प्रदान, सज्जनता, समृद्धि एवं संपन्नताको दर्शाता है ।’

२ र्इ. अपराजिता पूजन

जिस स्थानपर शमीकी पूजा होती है, उसी स्थानकी भूमिपर अष्टदल बनाकर अपराजिताकी मूर्ति रखते हैं । इस अष्टदलका मध्यबिंदु ‘भूगर्भबिंदु’ अर्थात देवीके ‘अपराजिता’ रूपकी उत्पत्तिबिंदुका प्रतीक है, तथा अष्टदलका अग्रबिंदु, अष्टपाल देवताओंका प्रतीक है । इस अष्टदलके मध्यबिंदुपर ‘अपराजिता’ देवीकी मूर्तिकी स्थापना कर उसका पूजन करते हैं ।  ‘अपराजिता’ श्री दुर्गादेवीका मारक रूप है । पूजन करनेसे देवीका यह रूप पृथ्वीतत्त्वके आधारसे भूगर्भसे प्रकट होकर, पृथ्वीके जीवोंके लिए कार्य करता है । अष्टदलपर आरूढ  यह त्रिशूलधारी रूप शिवके संयोगसे, दिक्पाल एवं ग्रहदेवताकी सहायतासे आसुरी शक्तियोंका नाश करता है । पूजनके उपरांत इस मंत्रका उच्चारण कर शत्रुनाश एवं सबके कल्याणके लिए प्रार्थना करते हैं,

हारेण तु विचित्रेण भास्वत्कनकमेखला ।
अपराजिता भद्ररता करोतु विजयं मम ।।

इसका अर्थ है, गलेमें विचित्र हार एवं कमरपर जगमगाती स्वर्ण करधनी अर्थात मेखला धारण करनेवाली, भक्तोंके कल्याणके लिए सदैव तत्पर रहनेवाली, हे अपराजितादेवी मुझे विजयी कीजिए ।

कुछ स्थानोंपर अपराजितादेवीका पूजन सीमोल्लंघनके लिए जानेसे पूर्व भी करते हैं । शमीपत्र तेजका उत्तम संवर्धक है । इसलिए शमी वृक्षके निकट अपराजितादेवीका पूजन करनेसे शमीपत्रमें पूजनद्वारा प्रकट हुई शक्ति संजोई रहती है । शक्तितत्त्वसे संचारित शमीपत्रको इस दिन घरमें रखनेसे जीवोंके लिए वर्षभर इन तरंगोंका लाभ  प्राप्त करना सहज ही संभव होता है ।

२ उ. शस्त्र एवं उपकरणोंका पूजन

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दशहरा व्यक्तिमें क्षात्रभावका संवर्धन करता है । शस्त्रोंका पूजन क्षात्रतेज कार्यशील करनेके प्रतीकस्वरूप किया जाता है । इस दिन शस्त्रपूजन कर देवताओंकी मारक शक्तिका आवाहन किया जाता है । इस दिन राजा एवं सामंत-सरदार, अपने शस्त्रों-उपकरणोंको स्वच्छ कर एवं पंक्तिमें रखकर उनकी पूजा करते हैं । पूजनमें रखे शस्त्रोंद्वारा वायुमंडलमें क्षात्रतेजका प्रक्षेपण होकर व्यक्तिका क्षात्रभाव जागृत होता है । इस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनमें नित्य उपयोगमें लाई जानेवाली वस्तुओंका शस्त्रके रूपमें पूजन करता है । किसान एवं कारीगर अपने उपकरणोें एवं शस्त्रोंकी पूजा करते हैं । (कुछ लोग यह शस्त्रपूजा नवमीपर भी करते हैं ।) लेखनी व पुस्तक, विद्यार्थियोंके शस्त्र ही हैं, इसलिए विद्यार्थी उनका पूजन करते हैं । इस पूजनका उद्देश्य यही है कि उन विषय- वस्तुओंमें ईश्वरका रूप देख पाना; अर्थात ईश्वरसे एकरूप होनेका प्रयत्न करना ।

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