हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति में उच्च देवताओं की उपासना, उनके विविध त्यौहार एवं उत्सव हैं । उसी प्रकार उसमें कनिष्ठ देवताओं की उपासना भी है । सूर्य, चंद्र, अग्नि, पवन, वरुण और इंद्र प्रमुख कनिष्ठ देवता हैं । मानव के जीवन में तथा सर्व प्राणिमात्र के जीवन में इन कनिष्ठ देवताओं का महत्वपूर्ण स्थान है । भारतीय संस्कृति सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना सिखाती है । उस अनुषंग से सूर्यदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु `रथसप्तमी’ का त्यौहार मनाया जाता है । इस दिन सूर्योपासना करनी चाहिए । सनातन की साधिका कु. मधुरा भोसले को रथसप्तमी और सूर्य के विषय में ईश्वर से प्राप्त जानकारी निम्नांकित है ।
महत्व
सर्व संख्याओं में `सात’ इस अंक का महत्व विशेष है । `सात’ इस आंकडे में त्रिगुणों की मात्रा संतुलित होती है तथा सत्वगुण की वृद्धि हेतु आवश्यक चैतन्य, आनंद इत्यादि सूक्ष्म-तरंगें ग्रहण करने की विशेष क्षमता होती है । सप्तमी तिथि को शक्ति तथा चैतन्य का मनोहारी संगम होता है । इस दिन विशिष्ट देवता का तत्व और शक्ति, आनंद और शांति की तरंगे २० प्रतिशत अधिक मात्रा में कार्यरत होती हैं । रथसप्तमी के दिन निर्गुण सूर्य की (अतिसूक्ष्म सूर्यतत्व की) तरंगें अन्य दिनों की तुलना में ३० प्रतिशत अधिक कार्यरत होती हैं ।
सूर्य
अ. सूर्योपासना का महत्व
भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म में सूर्योपासना का अत्यधिक महत्व है ।
१. सूर्योपासना से जीव की चंद्रनाडी रुककर सूर्यनाडी शीघ्र जागृत होने में सहायता होती है । चंद्र की उपासना करने की अपेक्षा सूर्य की उपासना करना अधिक श्रेष्ठ होता है ।
२. सूर्य की उपासना करने से सात्विकता ग्रहण करने की क्षमता ३० प्रतिशत एवं चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता २० प्रतिशत बढती है ।
३. प्रातः सूर्य देवता को अर्घ्य समर्पित कर केवल दर्शन करने मात्र से वह प्रसन्न हो जाते हैं । उनका दर्शन करना भी उनकी उपासना का एक भाग है ।
४. ऊगते सूर्य की ओर देखकर त्राटक करने से आंखों की क्षमता बढती है तथा नेत्रज्योति अधिक प्रबल होती है ।
५. पंचतत्वों की उपासना में सूर्योपासना करना (तेजतत्व की उपासना करना), एक महत्वपूर्ण चरण है ।
६. सूर्यनमस्कार करना : योगासनों में सूर्यनमस्कार करना एक महत्वपूर्ण व्यायाम का प्रकार है । इसमें स्थूल शरीर का उपयोग कर सूर्य को नमस्कार किया जाता है । न्यूनतम २० वर्ष प्रतिदिन नियमित सूर्यनमस्कार करने से सूर्यदेवता प्रसन्न होते हैं ।
आ. कार्य
यह कार्य स्थूल-नेत्रो से दिखनेवाले सूर्य का नहीं है अपितु सूक्ष्म सूर्य के कार्य के विषय में हैं । यद्यपि सूर्यदेव स्थिति संदर्भ में कार्य करते हैं, तथापि साधना को पूर्णत्व प्राप्त करने हेतु उनसे उत्पत्ति और लय संबंधी कार्य भी हुआ है ।
आ १. उत्पत्ति के संदर्भ में जानकारी
आ १ अ. स्थूल : सूर्यदेवता से यम और शनि देवता पुत्ररूप में तथा तपी और यमी देवियां पुत्री के रूप में निर्माण हुई हैं । यमी से यमुना नदी का निर्माण हुआ तथा तपी से तापी नदी का निर्माण हुआ है ।
आ १ आ. सूक्ष्म
१. सूर्यमंडल के ग्रह एवं नक्षत्रलोक, शनिलोक और ग्रहलोक आदि सर्व लोकों का निर्माण सूर्यदेव से ही हुआ है ।
२. तेज, तेजयुक्त चैतन्य और केवल प्राथमिक स्तर के चैतन्य में से ३० प्रतिशत चैतन्य सूर्य से ही निर्माण हुआ है ।
३. सुदर्शनचक्र, सूर्यास्त्र, तेजतत्व से संबंधित बाण और अस्त्रों का निर्माण सूक्ष्म-सूर्य से हुआ है ।
४. सूर्य ने अपना तेज देवताओं के विविध अस्त्र एवं शस्त्रों को प्रदान किया है । इसलिए ये शस्त्रास्त्र दिव्य और तेजस्वी दिखाई देते हैं ।
आ २. स्थिति के संदर्भ में जानकारी
आ २ अ. स्थूल : सूर्यदेवता प्रतिदिन स्थूल सूर्य के रूप में ब्रह्मांड के विविध ग्रहों एवं जीवों को ऊर्जा और प्रकाश देते हैं । इस प्रकार सूर्यदेवता उनका पालन पोषण करते हैं ।
आ २ आ. सूक्ष्म : सूर्यदेवता से स्थूल रूप में प्रक्षेपित होनेवाला प्रकाश और ऊर्जा के साथ ही बडी मात्रा में चैतन्य भी प्रक्षेपित होता है । इस चैतन्य से अनेक जीवों को साधना करने की शक्ति मिलती है । उनके मन और बुद्धिका आवरण न्यून होकर उनकी बुद्धिमत्ता विकसित होती है ।
आ ३. लय के संदर्भ में जानकारी
आ ३ अ. स्थूल : सूर्य की उष्णता से सरोवर और नदियों का जल वाष्प में रूपांतरित होता है । इससे अनेक नदियां तथा सरोवर सूख जाते हैं । अति उष्णता से अनेक वनस्पतियां जल जाती हैं तथा जीवों को भी कष्ट होता है तथा कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है ।
आ ३ आ. सूक्ष्म : सूर्य के प्रकाश और उष्णता से सूर्य का सूक्ष्म-तेज प्रक्षेपित होता रहता है । इस सूक्ष्म-तेज के कारण सूक्ष्मजंतु एवं रज-तमात्मक सूक्ष्म-जीवों का नाश होता है । इसलिए वायुमंडल में रज-तम की मात्रा अल्प होकर सात्विकता बढती है एवं त्रिगुणों के संतुलन की रक्षा होती है ।
सूर्य ऊगने के उपरांत दिन भर आकाश में रहता है तथा सायंकाल उसका अस्त हो जाता है । सूर्य का यह उत्पत्ति, स्थिति और लय का कार्य क्रमशः चलता रहता है ।
इ. सूर्य के गुण
इ १. नित्योपासना
ऋषियों के समान सूर्य निरंतर नारायण की उपासना करता है ।
इ २. अनुशासन
सूर्य समय का अचूक पालन करता है ।
इ ३. त्याग
सूर्य स्वयं का तेज, ऊर्जा और चैतन्य स्वयं तक मर्यादित न रखते हुए अन्यों को देता है । अन्य कनिष्ठ देवताओं की तुलना में सूर्य की चैतन्य ग्रहण और प्रक्षेपित करने की क्षमता सर्वाधिक होती है ।
इ ४. व्यापकत्व
ब्रह्मांड में स्थित विविध जीवों को सूर्य निरपेक्ष रूप से तेज, ऊर्जा और चैतन्य देता है ।
इ ५. समष्टिभाव
सूर्य अपना तेज और अपनी ऊर्जा अपने लोक तक मर्यादित न रखते हुए विविध लोकों के जीवों के लिए भी प्रक्षेपित करता है । इसलिए वह निरंतर भ्रमण करता रहता है । समष्टि भाव अधिक होने के कारण उसमें उच्च देवताओं के २० प्रतिशत गुण हैं ।
इ ६. ज्ञानदान और सूक्ष्म से मार्गदर्शन करना
ज्ञान का अर्थ है प्रकाश । प्रकाश ज्ञान का एक रूप है । सूर्य ज्ञान के संदर्भ में भी कार्य करता है । इसलिए उससे सूक्ष्म ज्ञानतरंगें तथा ज्ञानप्रकाश तरंगे प्रक्षेपित होती रहती हैं । इन ज्ञानतरंगों के माध्यम से वह ३० प्रतिशत तक ज्ञान दे सकता है । कर्ण को सूर्यदेवता प्रतिदिन दर्शन देते थे तथा सूक्ष्म से मार्गदर्शन करते थे । महाभारत में अनेक स्थानोंपर इसका उल्लेख दिखाई देता है ।
इ ७. उत्तम गुरु
सूर्य शास्त्र और शस्त्र इन दोनों कलाओं में निपुण है । ये दोनों कलाएं अवगत करने हेतु रुद्रावतार मारुति सूर्यलोक गए थे । उस समय सूर्य ने उन्हें गुरु के रूप में उत्तम मार्गदर्शन किया । वह अन्यों को ज्ञानप्रकाश देकर उनके जीवन का स्थूल और सूक्ष्म अहंकाररूपी तिमिर नष्ट करता है ।
इ ८. उत्तम पिता
सूर्य ने अपने पुत्र तथा पुत्रियों के प्रति आवश्यक सर्व कर्तव्य समय समय पर पूर्ण किए हैं । ब्रह्मांड के सर्व जीवों की ओर वह पिता की दृष्टि से देखते हैं तथा उन्हें सहायता करते हैं ।
इ ९. क्षात्रभाव
इंद्र सर्व कनिष्ठ देवताओं के प्रमुख हैं । यद्यपि सूर्यदेवता इंद्र के आधिपत्य में हैं, तथापि इंद्र के अयोग्य निर्णयका विरोध करते हैं तथा इंद्र की अयोग्य आज्ञा का पालन नहीं करते । आगामी आपत्काल में (धर्मयुद्ध के समय) कनिष्ठ देवताओं में से सूर्यदेवता क्षात्रवीर और धर्मवीर साधकों को एवं धर्म के पक्ष में लडनेवालों को सर्वाधिक मात्रा में सहायता करेंगे । कनिष्ठ देवताओं में से सूर्यदेवता में सर्वाधिक सात्विकता, व्यापकत्व, त्याग, समष्टि भाव और क्षात्रभाव होता है ।
इ १०. समभाव
सूर्यदेवता सर्व जीवों की ओर समदृष्टि से देखते हैं । वह गुणग्राहक हैं तथा किसी पर अन्याय नहीं करते । इसका उदाहरण यह है कि मारुति में शनि की तुलना में शिष्य के गुणों की मात्रा अधिक थी । इसलिए सूर्य ने मारुति को शिष्य के रूप में स्वीकारा तथा उन्हें ज्ञान एवं विविध विद्याएं प्रदान कीं ।
– कु. मधुरा भोसले
ई. सूर्य का रथ और उसका पूजन
सूर्य के रथ में सूर्यलोक, नक्षत्रलोक, ग्रहलोक, भुवलोक, नागलोक, स्वर्गलोक और स्वर्गलोक के निकट स्थित शिवलोक इन सप्त लोकों में भ्रमण करने का सामर्थ्य है । रथ की गति आवश्यकतानुसार परिवर्तित होती है । सूर्यदेवता की इच्छानुसार रथ वायुमंडल में उडान भरता है । रथ के सोने के पहियों पर सूर्य देवता का चित्र बना हुआ है । उस चित्र से सूर्य का तेज एवं तेजतत्व आस-पास ३० प्रतिशत प्रक्षेपित होता रहता है । श्रीविष्णु के कृपाशीर्वाद तथा तेजतत्वके प्रक्षेपण के कारण रथ के आसपास सुरक्षा कवच निर्माण होता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां सूर्यदेव के कार्य में बाधाएं उत्पन्न नहीं कर सकतीं।
सूर्यदेवता निरंतर इस रथ में विराजमान होते हैं । रथ उनका वाहन ही है । देवालय में ईश्वर होने के कारण देवालय को महत्व प्राप्त होता है । उसी प्रकार का महत्व सूर्यदेवता के रथ का है । इसलिए `रथसप्तमी’ को सूर्य की उपासना के साथ ही प्रतीकात्मक रथ का भी पूजन किया जाता है ।
उ. सूर्यदेवता के सारथी के गुण
अरुण सूर्यदेव का सारथी है । उसमें सूर्यदेव के ४० प्रतिशत गुण हैं । वह केवल एक ही आंख से देख सकता है । एकत्व की ओर जाना तथा जैसी परिस्थिति है, उसमें उचित सेवा करना, यह गुण उससे सीखने को मिलते हैं ।
ऊ. सूर्यलोक
स्वर्गलोक के निकट ही सूक्ष्म-सूर्यलोक है । सूक्ष्म-सूर्यलोक में पंचमहाभूतों में से सूक्ष्म-तेजतत्व की मात्रा ५० प्रतिशत से अधिक होती है । दिव्य प्रकाश, अग्नि और अग्नि की ज्वाला दिखाई देना तथा उष्णता का बोध होना, यह तेज का स्थूलरूप है । उनकी अनुभूति सूर्यलोक में होती है । अनेक जीवों का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अल्प होने के कारण वे सूर्यलोक में नहीं जा पाते । स्तर ५० प्रतिशत से अल्प होने पर तेजतत्व की उपासना नहीं कर पाते । अतः तेजतत्व का स्थूलरूप, अर्थात दिव्य प्रकाश, अग्नि और उष्णता सहन नहीं होती । सूर्यलोक में स्थान प्राप्त होने के लिए जीव में सूर्यदेवता के गुण ५० प्रतिशत से अधिक तथा आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ५० प्रतिशत होना अपेक्षित है ।
ए. सूर्योपासना का महत्व
सूर्यदेवता की उपासना से जीव को स्वयं में सूक्ष्म-तेजतत्व बढाने का अवसर होता है । इसलिए जीव को तेजतत्व के ‘ॐ’ कार की उपासना करना उपयुक्त सिद्ध होता है । उसी प्रकार गायत्रीमंत्र और सूर्य के विविध मंत्रों का पुरश्चरण करना फलदायी सिद्ध होता है । सूर्योपासना से जीव के मन की एकाग्रता बढती है । नेत्र तेजतत्व से संबंधित होने के कारण सूर्योपासना से (तेजतत्व की उपासना से) जीव को दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है ।
– कु. मधुरा भोसले
ऐ. प्रभु श्रीराम सूर्यवंशी होने के कारण रामराज्य की स्थापना कर सकना
सूर्यदेवता के गुणों के कारण उनके राज्य में (लोक में) पितृशाही रहती है । सूर्योपासक में उक्त गुण हों, तो उसे सूक्ष्म-सूर्यलोक में स्थान मिलता है । सूर्य की उपासना करनेवालों तथा सूर्य के गुणवालों को `सूर्यवंशी’ संबोधित किया जाता है । प्रभु श्रीराम सूर्यवंशी थे । इसलिए वह आदर्श पिता और आदर्श पुत्र होने के साथ ही रामराज्य की (पितृशाही की) स्थापना कर सके ।
ओ. `भारत’ यह सूर्य का एक नाम होना
सूर्य देवता, ऋषिमुनी और मानव सभी के लिए पूजनीय है । हिन्दू धर्म में सूर्य का विशेष महत्व है । भारतीय पंचांग में भी सूर्य को चंद्र की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । भारत यह भी सूर्य का एक नाम है । `स’ सूर्य का अर्थात तेज का बीजाक्षर है ।
– कु. मधुरा भोसले
रथसप्तमी का दिन तेजोपासना का दिन होता है । इस निमित्त से सनातन की साधिका श्रीमती अंजली गाडगीळजी को ईश्वर से रथसप्तमी के संदर्भ में प्राप्त ज्ञान आगे दिया जा रहा है ।
रथसप्तमी के दिन दूध तपाकर उसका उपयोग प्रसाद के रूप में क्यों करते हैं ?
रथसप्तमी के दिन सूर्य की किरणों से प्रक्षेपित होनेवाली तेजतत्वात्मक तरंगें दूध से कुल्हड के आस-पास निर्माण होनेवाले कोष की ओर आकर्षित होने के कारण दूध प्रसाद बनना
संकलक : रथसप्तमी के दिन आंगन में उपले जलाकर उसपर कुल्हड में दूध उफनने तक तपाते हैं । तत्पश्चात प्रसाद के रूप में सबको बांटते हैं । कुछ स्थानों पर दूध में चावल डालकर पकाते हैं । इसका क्या शास्त्र है ?
एक विद्वान :
१. रथसप्तमी का महत्व
रथसप्तमी का दिन तेजोपासना का दिन होता है । इस दिन सूर्य की किरणों से प्रक्षेपित होनेवाली तेजतत्वात्मक तरंगें पृथ्वी की कक्षा भेदकर भूतल पर अवतरित होती हैं । जिस समय पृथ्वी की अंतरिक्ष कक्षा में उनका प्रवेश होता है, उस समय उस स्थानपर विद्यमान आपकणों से उनका संयोग होता है । इसलिए किरणों का तेज नरम हो जाता है । ये तेजरूपी किरणें आपतत्वात्मक तरंगों की सहायता से प्रत्यक्ष पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती हैं ।
२. दूध से प्रसाद बनने की प्रक्रिया
वायुमंडल में प्रवेश करनेवाली किरणें आकर्षित करने के लिए कुल्हड की रचना की जाती है । जिस समय उपलों से निर्माण होनेवाले सात्विक तेजरूपी अग्नि से कुल्हडरूपी घट में दूध तपाया जाता है, उस समय कुल्हड के आसपास दूध से प्रक्षेपित होनेवाली आप-तेजतत्वात्मक तरंगों का पारदर्शक कोष बनता है । सूर्य की तेजोमय किरणें इस कोष की ओर आकर्षित होती हैं । इन तरंगों से भारित दूध प्रसाद के रूप में भक्षण करने से जीव के प्राणमय कोष की शुद्धि होती है तथा उसके शरीर में पंचप्राणों का प्रदीपन होने में सहायता होती है । इस प्रकार जीव का तेजोबल बढता है तथा आत्मशक्ति जागृत होती है । पृथ्वीरूपी घट का प्रतिनिधीत्व करनेवाले कुल्हड में उपलों की सहायता से दूध तपाकर उसमें निर्माण होनेवाला आप और तेज तरंगों का कोष रथसप्तमी के दिन पृथ्वी पर तैयार होनेवाले वायुमंडल से साधर्म्य दर्शाता है । कुल्हड में चावल डालकर भात पकाने की अपेक्षा आपतत्वात्मक तरंगों के प्राबल्यवाले दूध का उपयोग करना अधिक इष्ट और फलदायी सिद्ध होता है । दूध उफनने तक तपाने की आवश्यकता नहीं होती ।
– श्रीमती अंजली गाडगीळजी
संदर्भ – दैनिक सनातन प्रभात