तानाजी मालुसरे की वीरता तथा त्याग

सारिणी


 

केवल १६ वर्षकी आयुमें ही छत्रपति शिवाजी महाराजने स्वराज स्थापित करनेकी प्रतिज्ञा की । गिने-चुने मावलोंमें धर्मप्रेमकी जागृति कर उन्हें लडना सिखाया और स्वराजकी संकल्पनासे उन्हें अवगत कराया । हिंदू स्वराज्यके लिए गिने-चुने मावलोंने प्राणोंकी चिंता किए बिना अपने-आपको झोंक दिया । पांच मुसलमानी सल्तनतोंके विरोधमें लडते-लडते एक एक भूप्रदेशको जीत लिया ।

तहसील भोरके सह्याद्री पर्वतके एक शिखरपर विराजित रायरेश्‍वरके स्वयंभू शिवालयमें छत्रपति शिवाजी महाराजने २६ अप्रैल १६४५ में हिंदू स्वराज स्थापित करनेकी शपथ ली थी । बारह मावल प्रांतोसे कान्होजी जेधे, बाजी पासलकर, तानाजी मालुसरे, सूर्याजी मालुसरे, येसाजी कंक, सूर्याजी काकडे, बापूजी मुदगल, नरसप्रभू गुप्ते, सोनोपंत डबीर जैसे लोग भोरके पहाडोंसे परिचित थे । इन सिंहसमान महापराक्रमी मावलोंको साथ लेकर शिवाजी महाराजने स्वयंभू रायरेश्‍वरके समक्ष स्वराजकी प्रतिज्ञा ली ।

इन महापराक्रमी मावलोंमें से एक थे तानाजी मालुसरे ! प्रस्तुत लेख में हम इनका महापराक्रम तथा त्यागके बारे में पढेंगे ।

 

१. मुगलोंके नियंत्रणमें सिंहगढ

जून १६६५ के पुरंदर समझौतेके अनुसार शिवाजी महाराजको मुगलोंके हाथों सिंहगढसमेत २३ किले सौंपने पडे थे । इस समझौतेने मराठोंके स्वाभिमानको ठेस पहुंचाई । किंतु जिजाबाई, शिवाजी महाराजकी माता, जो पूरे राज्यकी माता थीं, जैसी आंतरिक चुभन किसीने भी अनुभव नहीं की । शिवाजी महाराज अपनी माताजीको बहुत चाहते थे, किंतु उनकी इच्छा पूरी न कर सके, क्योंकि सिंहगढ जीतना असंभव था, राजपूत, अरब एवं पठान उसकी रक्षा कर रहे थे । शिवाजी महाराजके सरदार उनकी बातसे सहमत थे । किंतु जिजाबाईको उनकी झिझक बिलकुल अच्छी नहीं लगी । कहते हैं, एक बार औरत कोई बात ठान लेती है, तो उसमें चमत्कारी शक्ति आ जाती है, तथा शिवाजी महाराजकी माताजी, जिजाबाई इसका उत्तम उदाहरण हैं । सिंहगढ कथागीतके अनुसार एक सवेरे जब वह प्रतापगढकी खिडकीसे देख रही थीं, उस समय कुछ दूरीपर उन्हें सिंहगढ दिखाई दिया । यह किला मुगलोंके आधिपत्यमें है, यह सोचकर उन्हें बहुत क्रोध आया । उन्होंने तुरंत एक घुडसवारको शिवाजी महाराजके पास रायगढ भेजा तथा उसके साथ संदेशा भेजा कि वे तुरंत प्रतापगढ उपस्थित हों ।

 

२. सिंहगढ हेतु राजमाता जिजाबाईकी तडप !

शिवाजी महाराज बुलानेका कारण जाने बिना अपनी माताके संदेशानुसार तुरंत उपस्थित हुए । जिजाबाई उनसे क्या चाहती थी, यह जानते ही उनका दिल बैठ गया । उन्होंने जी-जानसे जिजाबाईको समझानेका प्रयास किया कि प्रचुर प्रयासोंके पश्चात भी सिंहगढ जीतना असंभव था । कथागीतके अनुसार शिवाजी महाराजने कहा, `उसे जीतने हेतु बहुत जन गए किंतु वापिस एक भी नहीं आया : आमके बीज बहुत बोए किंतु एक पेड भी नहीं उगा । ’

अपनी माताके दुखी होनेके डरसे उन्होंनें एक व्यक्तिका नाम सोचा, जिसपर यह भयंकर उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता था । तानाजी मालुसरेके अतिरिक्त शिवाजी महाराज किसी औरका नाम सोच भी न सकते थे । तानाजी उनके बचपनके अमूल्य मित्र थे, बडी हिम्मतवाले थे तथा हर मुहीमपर शिवाजी महाराजके साथ थे ।

 

३. ‘सिंहगढ पुन: जीतनेकी मुहीम’ पर तानाजी मालुसरे

जब शिवाजी महाराजसे रायगढपर मिलनेका संदेश प्राप्त हुआ तब तानाजी मालुसरे उंब्रत गांवमें अपने बेटेके विवाहकी योजनाओंमें व्यस्त थे । वे शीघ्र ही अपने भाई सूर्याजी तथा मामा शेलारमामाके साथ महाराजसे मिलने निकल गए । अपने परममित्र तानाजीको कौनसी मुहीम हेतु चुना है यह बतानेका साहस महाराजके पास नहीं था, अत: उन्होंने तानाजीको मुहीमके विषयमें जानने हेतु जिजाबाईके पास भेजा ।

मुहीमकी भयावहताकी परवाह न करते हुए शेरदिल तानाजीने मरने अथवा मारनेकी प्रतिज्ञा की । तानाजीने रातको मुहीमका आरंभ किया तथा कोकणकी ओरसे छुपकर वर्ष १६७० में फरवरीकी ठंडी, अंधेरी रातमें अपने साथियोंको लेकर किलेकी ओर प्रस्थान किया । वह अपने साथ शिवाजी महाराजकी प्रिय गोह ले गए थे, जिससे किलेपर चढनेमें आसानी हो । इस प्राणीकी कमरमें रस्सी बांधकर उसके सहारे किलेपर पहुंचनेका प्रयास किया, किंतु गोह ऊपर चढना नहीं चाहती थी, जैसे वह आगे आनेवाले संकटके विषयमें तानाजीको आगाह कराना चाहती थी । तानाजी बडे क्रोधित हुए गोह उनका संकेत समझ गई, तथा तटबंदीसे चिपक गई, जिससे मराठा सैनिकोंको किलेपर चढनेमें मदद मिली ।

 

४. तानाजीकी वीरता तथा त्याग


लगभग ३०० लोग ही अबतक ऊपरतक चढ पाए थे, कि पहरेदारोंको उनके आनेकी भनक हो गई । मराठा सैनिकोंने पहरेदारोंको तुरंत काट डाला, किंतु शस्त्रोंकी खनखनाहटसे गढकी रक्षा करनेवाली सेना जाग गई । तानाजीके सामने बडी गंभीर समस्या खडी हुई । उनके ७०० सैनिक अभी नीचे ही खडे थे तथा उन्हें अपनेसे कहीं अधिक संख्यामें सामने खडे शत्रुसे दो-दो हाथ करने पडे । उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया तथा अपने सैनिकोंको चढाई करनेकी आज्ञा की । लडाई आरंभ हो गई । तानाजीके कई लोग मारे गए, किंतु उन्होंने भी मुगलोंके बहुत सैनिकोंको मार गिराया । अपने सैनिकोंकी हिम्मत बढाने हेतु तानाजी जोर-जोरसे गा रहे थे । थोडे समयके पश्चात मुगलोंका सरदार उदय भान तानाजीसे लडने लगा । मराठोंको अनेक अडचनें आ रही थीं । रातकी लंबी दौड, मुहीमकी चिंता, किलेकी दुर्ग चढकर आना, तथा घमासान युद्ध करना; इन सारी बातोंपर तानाजी पूर्वमें ही कडा परिश्रम कर चुके थे, इसपर उदय भानने युद्ध कर उन्हें पूरा ही थका दिया; परिणामस्वरूप लंबी लडाईके पश्चात तानाजी गिर गए ।

अपने नेताकी मृत्युसे मराठोंके पांवतलेसे भूमि खिसक गई । तानाजीने जितना हो सका, उतने समय युद्ध जारी रखा , जिससे नीचे खडे ७०० सैनिक पहरा तोडकर अंदर घुसनेमें सफल हों । वे तानाजीके बंधु सूर्याजीके नेतृत्वमें लड रहे थे । सूर्याजी बिलकुल समयपर पहुंच गए तथा उनकी प्रेरणासे मराठोंको अंततक लडनेकी हिम्मत प्राप्त हुई । मुगल सरदारकी हत्या हुई तथा पूरे किलेकी सुरक्षा तहस नहस हो गई । सैकडों मुगल सिपाही स्वयंको बचानेके प्रयासमें किलेसे कूद पडे तथा उसमें मारे गए ।

मराठोंको बडी विजय प्राप्त हुई थी किंतु उनकी छावनीमें खुशी नहीं थी । जीतका समाचार शिवाजी महाराजको भेजा गया था, जो तानाजीका अभिनंदन करने तुरंत गढकी ओर निकल पडे, किंतु बडे दुखके साथ उन्हें उस शूर वीरकी मृत देह देखनी पडी । सिंहगढका कथागीत इस दुखका वर्णन कुछ इस प्रकार करता है :

तानाजीके प्रति महाराजके मनमें जो प्रेम था, उस कारण वे १२ दिनोंतक रोते रहे । जिजाबाईको हुए दुखका भी वर्णन किया है : चेहरेसे कपडा हटाकर उन्होंने तानाजीका चेहरा देखा । विलाप करते हुए उन्होंने समशेर निकाली और कहा, `शिवाजी महाराज, जो एक राजा तथा बेटा भी है, आज उसकी देहसे एक महत्वपूर्ण हिस्सा कट चुका है ।’ शिवाजी महाराजको अपने मित्रकी मृत्युकी सूचना प्राप्त होते ही उन्होंने कहा, `हमने गढ जीत लिया है, किंतु एक सिंहको खो दिया है’ ।

तानाजी मालुसरे का महापराक्रम तथा स्वराज्य अर्थात् धर्मके प्रति उनकी निष्ठा को हम अभिवादन करतें हैं । आज प्रत्येक हिंदूने इनसे प्रेरणा लेकर धर्म तथा राष्ट्ररक्षण के लिए सिद्ध होना यहीं कालकी अत्यावश्यकता है !

स्रोत : हिंदू इतिहास

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