श्राद्ध विधि : पितृऋणसे मुक्त करनेवाली विधि

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सारणी


१. सर्वसामान्यत: श्राद्धप्रयोग कैसे होता है ?

१. अपसव्य करना : देशकालका उच्चारण कर अपसव्य करें, अर्थात् जनेऊ बाएं कंधेपर नहीं, अपितु दाएं कंधेपर लें ।

२. श्राद्धसंकल्प करना : श्राद्धके लिए उचित पितरोंकी षष्ठी विभक्तिका विचार कर (उनका उल्लेख करते समय, षष्ठी-विभक्तिका प्रयोग करना, प्रत्यय लगाना, उदा. रमेशस्य), श्राद्धकर्ता आगे दिए अनुसार संकल्प करे – ‘अमुकश्राद्धं सदैवं सपिण्डं पार्वणविधीना एकोद्दिष्टेन वा अन्नेन वा आमेन वा हिरण्येन सद्यः करिष्ये’ ।

३. यवोदक (जौ) एवं तिलोदक बनाएं ।

४. प्रायश्चितके लिए पुरुषसूक्त, वैश्वदेवसूक्त इत्यादि सूक्त बोलें ।

५. ब्राह्मणोंकी परिक्रमा करें एवं उन्हें नमस्कार करें । तदुपरांत श्राद्धकर्ता ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करें – ‘हम सब यह कर्म सावधानीसे, शांतचित्त, दक्ष एवं ब्रह्मचारी रहकर करेंगे ।’

६. २१ क्षण देना (आमंत्रण देना) : श्राद्धकर्मके समय देवता एवं पितरोंके लिए एक-एक दर्भ (कुश) अर्पित कर आमंत्रित करें ।

७. देवस्थानपर पूर्वकी ओर एवं पितृस्थानपर उत्तरकी ओर मुख कर ब्राह्मणोंको बिठाएं । ब्राह्मणोंको आसनके लिए दर्भ दें, देवताओंको सीधे दर्भ अर्पित करें एवं पितरोंको अग्रसे मोडकर दें ।

८. आवाहन, अर्घ्य, संकल्प, पिंडदान, पिंडाभ्यंजन (पिंडोंको दर्भसे घी लगाना), अन्नदान, अक्षयोदक, आसन तथा पाद्यके उपचारोंमें पितरोंके नाम-गोत्रका उच्चारण करें । गोत्र ज्ञात न हो तो कश्यप गोत्रका उच्चारण करें; क्योंकि श्रुति बताती है, ‘समस्त प्रजा कश्यपसे ही उत्पन्न हुई है’ । पितरोंके नामके अंतमें ‘शर्मन्’ उच्चारण करें । स्त्रियोंके नामके अंतमें ‘दां’ उपपद लगाएं ।

९. ‘उदीरतामवर’ मंत्रसे सर्वत्र तिल बिखेरें तथा गायत्री मंत्रसे अन्नप्रोक्षण करें (अन्नपर पानी छिडकें) ।

१०. देवतापूजनमें भूमिपर नित्य दाहिना घुटना टिकाएं । पितरोंकी पूजामें भूमिपर बायां घुटना टिकाएं ।

११. देवकर्म प्रदक्षिण एवं पितृकर्म अप्रदक्षिण करें । देवताओंको उपचार समर्पित करते समय ‘स्वाहा नमः’ एवं पितरोंको उपचार समर्पित करते समय ‘स्वधा नमः’ कहें ।

१२. देव-ब्राह्मणके सामने यवोदकसे दक्षिणावर्त अर्थात् घडीकी दिशामें चौकोर मंडल व पितर-ब्राह्मणके सामने तिलोदकसे घडीकी विपरीत दिशामें गोलाकार मंडल बनाकर, उनपर भोजनपात्र रखें । उसी प्रकार कुलदेवता एवं गोग्रासके (गायके लिए नैवेद्यके) लिए पूजाघरके सामने पानीका घडीकी दिशामें मंडल बनाकर उनपर भोजनपात्र रखें । पितृस्थानपर बैठे ब्राह्मणोंके भोजनपात्रके चारों ओर भस्मका उलटा (घडीकी विपरीत दिशामें) वर्तुल बनाएं । देवस्थानपर बैठे ब्राह्मणोंके भोजनपात्रोंके चारों ओर नित्य पद्धतिसे (घडीकी दिशामें) भस्मकी रंगोली बनाएं ।

१३. पितर एवं देवताओंको विधिवत् संबोधित कर अन्न-निवेदन करें ।

१४. पितरोंको संबोधित कर भूमिपर अग्रयुक्त एक बित्ता लंबे १०० दर्भ फैलाकर उसपर पिंडदान, तदनंतर पिंडोंकी पूजा करें । तत्पश्चात् देवब्राह्मणके लिए परोसी थालीके सामने दर्भपर थोडे चावल (विकिर), पितरब्राह्मणके लिए परोसी थालीके सामने दर्भपर थोडे चावल (प्रकिर) रखकर उनपर क्रमानुसार यवोदक, तिलोदक दें । इसके पासमें भिन्न दर्भपर एक पिंड रखकर उसपर तिलोदक दें । उसे ‘उच्छिष्ट पिंड’ कहते हैं । इन सर्व पिंडोंको जलाशयमें विसर्जित करें अथवा गायको दें ।

१५. महालय श्राद्धके समय सबको संबोधित कर पिंडदान होनेके पश्चात् चार दिशाओंको धर्मपिंड दें । आगे दिए अनुसार सबको संबोधित कर यह धर्मपिंड दें – सृष्टिकी निर्मिति करनेवाले ब्रह्मदेवसे लेकर जिन्होंने हमारे  माता-पिताके कुलमें जन्म लिया है; साथ ही गुरु, आप्त, हमारे इस जन्ममें सेवक, दास, दासी, मित्र, घरके पालतू प्राणी, लगाए गए वृक्ष, हमपर उपकृत (हमारे प्रति कृतज्ञ) व्यक्ति, जिनका पिंडदान करनेके लिए कोई न हो तथा अन्य ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्ति ।

(हिंदु धर्मका कोई अभ्यास न करनेवाले हिंदु-द्वेषियोंको लगता है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’की सीख देनेवाली, मनुष्यके साथ-साथ सर्व प्राणीमात्रके उद्धारका इतना गहन विचार करनेवाली हिंदु धर्मांतर्गत धार्मिक विधियोंमें ‘सामाजिक उत्तरदायित्व
नहीं है ।’ – संकलनकर्ता)

१६. पिंडदानके उपरांत ब्राह्मणोंको दक्षिणा देकर उनसे आशीर्वादके अक्षत लें । स्वधावाचन कर सर्व कर्म ईश्वरार्पण करें ।

टिप्पणी – घरमें मंगलकार्य हुआ हो, तो एक वर्षतक श्राद्धमें पिंडदान निषिद्ध है । कर्ता (पुत्रका विवाह, यज्ञोपवीत, चौलसंस्कार करनेवाला) विवाहोपरांत एक वर्ष, व्रतबंधके उपरांत छः मास, चौलसंस्कारके उपरांत तीन मासतक पिंडदान, मृत्तिकास्नान एवं तिलतर्पण न करे । इसके लिए आगे दिया हुआ अपवाद है – विवाह होनेके पश्चात् भी, तीर्थस्थलमें, माताके पितरोंके सांवत्सरिक श्राद्धमें, प्रेतश्राद्धमें, पिताके और्ध्वदेहिक कर्मोंमें एवं महालय श्राद्धमें सर्वदा पिंडदान किया जा सकता है ।

२. श्राद्धके दौरान एवं उपरांत की जानेवाली प्रार्थनाएं

उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितर सोम्यासः ।।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञाः ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ।।
– ऋग्वेद मण्डल १०, सूक्त १५, ऋचा १

अर्थ : हमारी इच्छा है कि, पृथ्वीपर स्थित पितर उन्नत स्थानपर जाएं । जो स्वर्गमें, अर्थात् उच्च स्थानपर हैं, उनकी कभी अवनति न हो । जो मध्यम स्थानपर आश्रित हैं, वे उन्नत पदपर जाएं । जो सोम पीनेवाले एवं केवल प्राणरूप, शत्रुरहित तथा सत्यस्वरूप हैं, ऐसे पितर हमारा संरक्षण करें ।

आ. ‘पितृदेवता, अश्विनीकुमार समान कमलमाला परिधान किए हुए, सुंदर एवं आरोग्यसंपन्न पुत्रको जन्म दें, जो देव, पितर व हम मानवोंकी आकांक्षाएं पूर्ण करे ।’

इ. श्राद्धविधिके अंतमें की जानेवाली प्रार्थना – गोत्रं नो वर्धताम् , अर्थात् ‘हमारा गोत्र बढे’ ।

इसपर ब्राह्मण आशीर्वाद देते हैं, `वर्धतां वो गोत्रम् ।’, अर्थात् ‘आपका गोत्र वृिंद्धगत हो ।’ (२१)

३. वर्षश्राद्ध करनेके उपरांत पितृपक्षमें भी श्राद्ध क्यों करें ?

`वर्ष श्राद्ध करनेसे उस विशिष्ट लिंगदेहको गति प्राप्त होनेमें सहायता मिलनेसे उसका प्रत्यक्ष व्यष्टिस्तरका ऋण लौटानेमें सहायता होती है । यह हिंदू धर्म द्वारा व्यक्तिगतस्तरपर प्रदत्त, ऋणमोचनकी  एक उपासना ही है, तो पितृपक्षकें निमित्तसे पितरोंका ऋण समष्टिस्तरपर लौटानेका, श्राद्ध यह एक समष्टि उपासना ही है । व्यष्टि ऋणमोचन उस लिंगदेहकेप्रति प्रत्यक्ष कर्तव्यपालनकी सीख देता है, तो समष्टि ऋण एक साथ व्यापक स्तरपर लेन-देनका हिसाब पूरा करता है ।

एक दो पीढियां पूर्वके पितरोंका हम श्राद्ध करते हैं; कारण उनके साथ हमारा प्रत्यक्ष लेन-देनका हिसाब रहता है। अन्य पीढीयोंकी अपेक्षा इन पितरोंमें कौटंबिक आसक्तिविषयक विचारोंकी मात्रा अधिक होनेसे उनका यह प्रत्यक्ष बंधन अधिक  तीव्र होनेके कारण उससे मुक्त होनेकेलिए उनकेलिए पितृपक्ष विधि सामयिक स्वरूपमें करना इष्ट होता है; इसीलिए वर्षश्राद्ध तथा पितृपक्ष ये दोंनों विधि करना आवशयक है ।

४. श्राद्ध करनेके विषयमें महत्त्वपूर्ण सूचनाएं ।

श्राद्धमें शुभ्र अक्षताका प्रयोग किया जाता है । श्राद्धकर्ममें लाल रंगके पुष्प, लौह एवं स्टील धातुओंके बर्तन वर्जित हैं । श्राद्धमें रंगोलीके चूर्णसे रंगोली नही निकालते हैं । श्राद्धमें `ॐ’ का उच्चारण नहीं करना चहिए । श्राद्धमें जनेऊ दांएं कंधेपर (अपसव्य) रखना चाहिए |  श्राद्धमें अर्घ्य देते समय जनेऊ बांएं कंधेपर (सव्य), तो तिलोदक अर्पण करते समय दांएं कंधेपर (अपसव्य) करना चाहिए । श्राद्धमें तर्पण करते समय अनामिका और अंगूठेके बीचसे पानी छोडना चाहिए । श्राद्धके समय ब्राह्मणोंके लिए लगाए गए भोजनपात्रोंके चारों ओर भस्मका वृत्त बनाएं । मंगलकार्यके उपरांत पिंडदान वर्ज्य माना जाता है । श्राद्धमें भातके पिंडका दान करना चाहिए ।

५. ब्राह्मणने प्राप्त किया हुआ भोजन अन्न पितरोंको कैसे पहुंचता है ?

अ. `श्राद्धादि कर्ममें मंत्रोच्चारके नादके परिणामस्वरूप ब्राह्मणके देहका ब्राह्मतेज जागृत होता है । उसी प्रकार पितरोंका आवाहन कर विश्वेदेवके अधिष्ठानसे उस विशिष्ट अन्नोदकापर मंत्रसे भारित पानी का सिंचन करनेसे हविर्भाग के रूपमें अर्पण किए हुए अन्नसे प्रक्षेपित होनेवाली सूक्ष्म-वायु पितरतरंगोंको प्राप्त होनेमें सहायक होती है ।

आ. पितरोंके नामसे ब्राह्मतेज जागृत हुए ब्राह्मणको भोजन अर्पण करनेका पुण्य भी श्राद्धकर्ताको तथा  पितरोंको मिलता है । इससे ब्राह्मणके आशीर्वाद भी पितरोंकी गतिको  वेग प्राप्त करनेमें कारणीभूत होते हैं ।

इ. बाह्यत: पितरोंके नामसे ब्राह्मण भोजन करना, इस `कर्तव्यपूर्तिके लिए कृति’ ऐसे  दृष्टिकोणकी अपेक्षा `ब्राह्मणके माध्यमसे प्रत्यक्ष पितर ही भोजन प्राप्त कर रहे हैं ‘, ऐसा भाव रखना अधिक महत्त्वपूर्ण होनेके कारण संतुष्टियुक्त ब्राह्मणके देहेसे प्रक्षेपित होनेवाली आशीर्वादात्मक सात्त्विक तरंगोंका बल पितरोंको प्राप्त होता है । इसी अर्थमें `ब्राह्मणों द्वारा प्राप्त किया गया भोजन अन्न पितरोंको मिलता है ‘, ऐसा कहा है ।

ई. कभी कभी इस प्रक्रियामें अन्नाकी तीव्र वासना रखनेवाले पितरोंके लिंगदेह ब्राह्मणके देहमें आकर भी प्रत्यक्ष अन्न ग्रहण करते हैं ।

६. श्राद्धविधि अपने ही निवासपर करना लाभदायक होनेका कारण

लगभग ५० प्रतिशत पितर वासनाओंकी अधिकतासे प्राप्त जडत्वके कारण आगेकी गति प्राप्त नहीं कर पाते हैं । इसलिए उनका
वास उनकी पारंपरिक वास्तुमें ही अधिक होता है । अतः श्राद्ध आदि विधि इसी क्षेत्रमें करनेसे पितर अपना हविर्भाग अर्थात श्राद्धमें पितरोंको अर्पित अन्नका सूक्ष्म अंश सहज प्राप्त कर सकते हैं । इस कारण वे तुलनात्मकरूपसे अधिक संतुष्ट हो सकते हैं । फलस्वरूप वंशको पितरोंके आशीर्वाद भी अधिक प्राप्त होते हैं । अतएव ऐसा कहा जाता है, कि अपने घरमें श्राद्ध करनेसे तीर्थक्षेत्रमें श्राद्ध करनेकी तुलनामें आठ गुणा पुण्य प्राप्त होता हैै । इसके अतिरिक्त इस विधिसे पितरोंका वास्तुके साथ घनिष्ठ संबंध घटनेमें सहायता होती है । ऐसा होते हुए भी विशिष्ट क्षेत्रमें जैसे, गंगा, यमुना इत्यादि नदियोंके स्थानपर; समुद्रके किनारे; प्रयाग, काशी, गयानगरी इत्यादि तीर्थ स्थानोंमें श्राद्ध करनेका विशेष महत्त्व है । इन क्षेत्रोंमें श्राद्ध करनेसे अक्षय पद प्राप्त होता है ।

संदर्भ – सनातनके ग्रंथ – ‘श्राद्ध (महत्त्व एवं शास्त्रीय विवेचन)’ एवं ‘श्राद्ध (श्राद्धविधिका शास्त्रीय आधार)

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