वस्त्र सिलने की पद्धति

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१. वस्त्रों में गांठ बांध कर पहनने की प्राचीन योग्य पद्धति

        ‘प्राचीन काल में स्त्रियां अथवा पुरुष ऐसे वस्त्र पहनते थे, जिनमें गांठ बांधनी पडती थी । उदाहरणार्थ, स्त्रियां नौ गज की साडी के साथ गांठ बंधी चोली पहनती थीं । गांठों के माध्यम से संबंधित स्थान पर सात्त्विक तरंगें उस वस्त्र में बद्ध होकर उस जीव के लिए आवश्यकतानुसार कार्यरत होती थीं । पुरुष भी गांठवाली धोती तथा अंगरखा पहनते थे । अंगरखे जैसे कुर्ते में यद्यपि गांठें नहीं होती थीं, फिर भी अनेक स्थानों पर नाडियों के रूप में गांठें ही बंधी हुई होने से ये गांठें भी स्वयं में सात्त्विक तरंगों को घनीभूत कर, उस जीव को आवश्यकता के अनुसार लाभ प्रदान करती थीं ।’

२. वस्त्रों पर न्यूनतम सिलाई क्यों होनी चाहिए ?

अ. सिलाई के कारण छेद बनकर उनके द्वारा वातावरण

अथवा वायुमंडल की रज-तमात्मक तरंगें वस्त्र में प्रवेश करने की आशंका अधिक होना

        ‘वस्त्र की सिलाई करते समय अनेक छेद कर एवं उनमें से धागा निकालकर टांके डाले जाते हैं । छेद करना, अर्थात वायुमंडल की रज-तमात्मक तरंगों को आकृष्ट करना । जिन वस्त्रों को गांठ बांधकर धारण किया जाता था, उन पर गुंडी (बटन) इत्यादि नहीं होते थे । इसलिए उन पर न्यूनतम सिलाई होती है और छेद भी अल्प होते थे । परिणामस्वरूप उनके द्वारा वस्त्र में रज-तमात्मक तरंगें प्रवेश करने की आशंका अत्यल्प रहती थी ।’

आ. अनसिले (अखंड) वस्त्र धारण करने से चैतन्य प्राप्त होना एवं

आध्यात्मिक उपाय होना तथा सिले हुए वस्त्र के कारण वही लाभ अल्प मात्रा में होना

        ‘अखंड वस्त्र में प्रत्येक सूत अखंड रहता है । इसलिए उससे प्रवाहित चैतन्यतरंगों का वहन वह संपूर्ण वस्त्र में कर पाता है । अखंड वस्त्र धारण करने के परिणामस्वरूप जीव की देह में चैतन्य फैलकर उस पर आध्यात्मिक उपाय होते हैं, उदा. साडी पहनने पर अधिक मात्रा में आध्यात्मिक उपाय होते हैं । जब वस्त्र काटा जाता है, तब उसके धागों का अखंडत्व नष्ट होता है । इसलिए उसके द्वारा चैतन्यतरंगों का वहन खंडित होता है एवं चैतन्य संपूर्ण वस्त्र में प्रवाहित नहीं हो पाता । इसलिए सिला हुआ वस्त्र, उदा. सलवार अथवा चुडीदार-कुर्ता धारण करने से चैतन्य का लाभ अल्प मात्रा में मिलता है एवं आध्यात्मिक उपाय भी अल्प मात्रा में होते हैं ।’

३. सिलाई-यंत्र से वस्त्रों की सिलाई करने से अथवा बनाने से होनेवाली हानि एवं उस पर उपाय

अ . सिलाई-यंत्र से सिले हुए वस्त्रों की तुलना में हाथ से सिले

वस्त्रों में अनिष्ट शक्तियों के काले स्थान अल्प मात्रा में निर्मित होना

        ‘प्राचीन काल में वस्त्रों की सिलाई हाथ से की जाती थी । इसलिए वस्त्र पर स्पर्श के माध्यम से न्यूनतम आघात होते थे । इसलिए छिद्रों में रज-तमात्मक तरंगें घनीभूत होने की मात्रा भी अल्प होती थी । आजकल सर्वत्र सिलाईयंत्र का उपयोग प्रचलित हो गया है । कष्टदायक नाद उत्पन्न करनेवाली यांत्रिक सिलाई की प्रक्रिया से उस ताल पर सुईद्वारा वस्त्र पर छिद्र बनाने की आघातक्रिया के कारण, वस्त्र पर बने हुए सूक्ष्म छिद्रों में रज-तमात्मक तरंगों का संक्रमण होता है और ये छिद्र पूर्णतः बंद होते हैं । ऐसे छिद्र वस्त्रों में भी अनिष्ट शक्तियों के घनीभूत काले स्थानों की निर्मिति के लिए पोषक बनते हैं । संक्षिप्त में, वस्त्रों पर यांत्रिक आघातदायी सिलाई जितनी अधिक, उतनी ही उससे कष्टदायक स्पंदन प्रक्षेपित होने की मात्रा अधिक होती है ।’

आ . प्राचीन काल में चरखे पर सूत कातते समय नामजप करने से वस्त्रों का सात्त्विक बनना

        प्राचीन काल में चरखे पर हाथ से सूत कातते थे । नामधारकद्वारा (नामजप करनेवाले व्यक्तिद्वारा) यह सूत कातने से उस सूत पर भी नाम का संस्कार होता था । नामजप का संस्कार वस्त्र को सात्त्विक बनाने में सहायक होता था ।

इ. आधुनिक यंत्रों के कारण मनुष्यदेह के रज-तमात्मक स्थानों की जागृति होना

        ‘वर्तमान युग में प्रचलित अधिकांश यंत्र बिजली पर चलते हैं । ये यंत्र बडी मात्रा में मनुष्यदेह के रज-तमात्मकरूपी स्थानों को जागृति प्रदान कर वायुमंडल को दूषित बनाने में सहायता कर रहे हैं ।’

ई. कलियुग में विज्ञान के कारण प्रचलित यांत्रिक

जीवनशैली से होनेवाली हानि से बचने हेतु नामजप अत्यंत अत्यावश्यक

        ‘अब कलियुग में सबकुछ यांत्रिक पद्धति से एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किए जाने से मनुष्य को महाभयंकर अनिष्ट शक्तियों के रज-तमात्मक प्रकोप का सामना करना पड रहा है । यह सब सुधारकर समाज में पुनः पूर्ववत सात्त्विक आचार का बीज अंकुरित करना कठिन है, अतः कलियुग में इन सबसे तरने के लिए नामसाधना बताई गई है । साधना के कारण, यांत्रिक पद्धति से होनेवाले कर्म से भी अकर्म-कर्म बनकर, उनसे उत्पन्न पापकारी रज-तमात्मक तरंगों का विघटन होकर पुण्य की प्राप्ति होती है ।’

        सूत्र ‘आ’ में बताए अनुसार हाथ से सूत कातते समय नामजप करते रहने से वस्त्र के सात्त्विक बनने में सहायता मिलती है । यहां यंत्र के सीमित उपयोग के कारण मूलतः काली शक्ति की निर्मिति की मात्रा अल्प होती है । आजकल बिजली पर चलनेवाली यंत्र सामग्री के कारण अधिक मात्रा में निर्मित काली शक्ति के परिणाम को नष्ट करने हेतु, स्वाभाविक ही नामजप भी अधिक संख्या में एवं एकाग्रता से करना आवश्यक होता है ।

संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘आध्यात्मिक दृष्टि से कपडे कैसे हों ?’