रसोई बनाते समय कौन-सी सावधानियां बरतें ?

‘प्रारंभ में श्री अन्नपूर्णादेवी से, जलदेवता से एवं अग्निदेवता से प्रार्थना करें, ‘हे देवता, मुझसे भोजन बनाने की सेवा करवानेवाले आप ही हैं ।
इस सेवा का कर्तापन आप के चरणों में समर्पित होने दें ।’ तदुपरांत शांतचित्त से भोजन बनाना आरंभ करें । इस प्रकार की अन्य प्रार्थनाएं थोडे-थोडे समय के पश्चात कृत्य के अनुरूप भी करें, उदा. रोटियां सेंकते समय, दाल-तरकारी में नमक एवं मिर्च डालते समय । रसोई बनाते समय हम जो विविध कृत्य करते हैं, उन्हें मन ही मन भगवान को बताकर अथवा उनसे पूछकर करें । इससे हम निरंतर भगवान से जुडे रहते हैं, सेवा करते हुए आनंद मिलता है तथा सेवा अल्प कालावधि में पूर्ण होती है ।

१. शारीरिक स्तर की सावधानियां

अ. रसोईघर में अथवा निकट ही बज रहे आकाशवाणी यंत्र (रेडियो),

ध्वनिमुद्रण यंत्र (टेप) तथा दूरदर्शन यंत्र (टेलीविजन) के कारण होने वाली हानियां

‘रसोईघर में अथवा निकट ही बज रहे रेडियो, टेप तथा दूरदर्शनयंत्र (टी.वी.) से वेगपूर्ण घर्षणात्मक तीव्र गति के स्पंदन तेज के स्तर पर (माध्यम से) अन्न घटकके पोषक पदार्थों का ह्रास करते हैं । इससे मानव-जीव को सत्त्वहीन अन्न मिलता है ।

आ. बरतनों की ध्वनि (आवाज) न होने देना

भोजन बनाते समय बरतनों की ऊंची कष्टदायक ध्वनि तरंगें अन्न से टकराकर उसमें विद्यमान चेतना को नष्ट करती हैं ।

इ. तेल का प्रयोग सावधानी से करना

तडका लगाते समय यदि तेल आवश्यकता से अधिक जल जाए, तो उसमें कार्बन घटक की निर्मिति होकर अन्न तमोगुणी बन जाता है ।

र्इ. रोटी बेलते एवं सेंकते समय पालन करने योग्य आचार

  • रोटी एक समान गोलाकार बेलने पर रोटी में संग्रहित शक्ति के स्पंदन सर्वत्र समान मात्रा में घनीभूत होते हैं । ऐसी रोटी से सात्त्विक स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं ।
  • रोटी सेंकते समय तवे पर डाला गया तेल अधिकतर जल जाने से रोटी के श्वेतसार पदार्थों में विद्यमान ऊर्जा का ह्रास हो जाता है तथा स्वयं रोटी भी कष्टदायक स्पंदनों को आकर्षित करती है ।

उ. मंद अथवा आवश्यकतानुसार मध्यम आंच पर अन्न पकाना

संभवतः मंद आंच पर व आवश्यक हो तो मध्यम आंच पर अन्न पकाएं; क्योंकि तीव्र अग्नि की आंच तेजतत्त्व के स्तर पर गति पूर्वक दूषित स्पंदनों को अन्न में छोडती है । इससे अन्न द्वारा प्रक्षेपित सूक्ष्म सात्त्विक गंधयुक्त तरंगें जल जाती हैं ।

ऊ. रसोई घर में धीमी गति से चलें !

रसोई घर में पांव पटक कर चलना, हाथ-पांव अनावश्यक हिलाना तथा अन्न पकाते समय बीच में ही कोई पदार्थ खाना टालें । इससे अन्न पकाने में एकाग्रता घटती है एवं अन्न की सत्त्वगुणी ऊर्जा जागृत करना असंभव हो जाता है । पांव पटककर चलने से भूगर्भ में विद्यमान कष्टदायक स्पंदन जागृत होते हैं । इससे अन्न पकाने की प्रक्रिया तमोगुणी बन जाती है ।

२. मानसिक स्तर की सावधानियां

अ. अनावश्यक न बोलना

  • भोजन बनाते समय अनावश्यक बोलने से मुख द्वारा बाह्य वायुमंडल में भावना के स्तर पर उत्सर्जित त्याज्य दूषित वायु अन्न घटकों में विद्यमान रसों को हानि पहुंचाती है व उस में रज-तमात्मक वायु का सूक्ष्म विकार उत्पन्न करती है ।
  • इस प्रकार के अन्न का सेवन करने वाले जीव के मन पर इन तरंगों का विपरीत प्रभाव पडता है और वह निराशाग्रस्त हो जाता है; क्योंकि ऐसे अन्न के सेवन से उसका मनोबल नष्ट हो जाता है । इससे मनुष्य के कृत्य की मूल वेगवान विचारधारा नष्ट हो जाती है ।

आ. भोजन बनाते समय अपशब्द न बोलना (गालियां न देना)

अपशब्द बोलते हुए बनाए गए अन्न पर तेजरूप आघातमय स्पंदनों का विपरीत परिणाम होने के कारण ऐसे अन्न का सेवन करने वाला व्यक्ति दुराचारी बनता है ।

इ. अन्न की वासना में न अटकना

भोजन बनाते समय उसमें हमारी वासना की तरंगों का संक्रमण हो जाने पर अन्यों के लिए पचाना कठिन होता है; क्योंकि ऐसे अन्न में जडत्वजन्य वासनात्मक तरंगें घनीभूत हो जाती हैं । इससे अतिसार होना, पेट में वेदना होना, पेट फूलना इत्यादि विकार उत्पन्न होते हैं । इसी को ‘अन्न को कुदृष्टि लगना’ कहते हैं ।

र्इ. मन में अन्यों के प्रति द्वेष न रखना

भोजन बनाते समय मन में दूसरों के प्रति द्वेष की भावना हो, तो भी उन द्वेषरूप तमोगुणी तरंगों के प्रभाव से अन्न में विद्यमान सूक्ष्म सत्त्वकणों को क्षति पहुंचती है । इससे अन्न ग्रहण करने वाले व्यक्ति में भी द्वेष की भावना प्रविष्ट होने की आशंका रहती है ।

उ. क्रोध से बचना

क्रोध में भोजन बनाते समय क्रोध की वेगवान तेजरूप कष्टदायी स्पंदनों से अन्न के पोषकतत्त्व जलने की संभावना बढती है ।

३. आध्यात्मिक स्तर की सावधानियां

अ. रसोई घर की शुद्धि करना

रसोईघर स्वच्छ, शुद्ध ही हो । पहले भूमि को गोबर से लिपा जाता था; परंतु वर्तमान में इस प्रकार की भूमि ही उपलब्ध नहीं रहती । इसलिए शुद्धि करते समय विभूति फूंकने, विभूति का जल छिडकने, अगरबत्ती तथा धूप दिखाने जैसे उपायों द्वारा पहले भूमि का शुद्धीकरण करें । इससे वहां के कष्टदायक स्पंदन नष्ट होते हैं अथवा वे वहां से दूर पेंâके जाते हैं । शुद्धीकरण की गई भूमि सात्त्विक बनने से वहां भ्रमण कर रही अच्छी (इष्ट)शक्ति से संबंधित तरंगों का संस्कार अन्न पर होने में सहायता मिलती है ।

आ. स्वयं की शुद्धि करना अर्थात शुचिर्भूतताका पालन कर भोजन पकाना

अन्न पकाने वाला जीव भी शुचिर्भूत ही हो । स्नान करने के पश्चात ही रसोईघर में प्रवेश करें; क्योंकि अन्न पकाने वाला जीव विकारग्रस्त हो, तो उसके मन की सूक्ष्म तरंगों के प्रक्षेपण का आवरण अन्न पर आता है । इससे अन्न अपने सर्व ओर दूषितता का कोष बना लेता है । इस कोष का संक्रमण अन्न ग्रहण करने वालों की देह में होता है एवं वह सभी इंद्रियों पर अपना तमोगुणी परिणाम दर्शाता है । इससे देह की इंद्रियों की कार्य करने की क्षमता घट जाती है ।

इ. नामजप करना

भोजन बनाते समय नामजप करने से अन्न पर नामजपकी सात्त्विकता का संस्कार होता है तथा अन्न में विद्यमान सूक्ष्म रजतमात्मक कणों का ह्रास होता है । इससे अन्न चैतन्यमय बनता है ।’

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘रसोईके आचारोंसंबंधी अध्यात्मशास्त्र (भाग २)’