हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का प्रत्यक्ष कार्य

१. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु कार्य करनेवालों का स्तर तथा उनके कार्य का स्वरूप

अ. शारीरिक

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रत्यक्ष शरीर से कार्य करना; उदाहरण के लिए, आन्दोलन, उपक्रम करना इत्यादि । यह कार्य हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन करेंगे । इसका कालानुसार महत्त्व १० प्रतिशत है ।

आ. मानसिक

भावना जागृत हुए बिना, कार्य नहीं होता । इस सिद्धान्त के अनुसार हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के संदर्भ में हिन्दुआें का वैचारिक बोधन कर, उन्हें कार्यशील बनाना; उदाहरण के लिए समाचारपत्रों और पत्रिकाआें में लेख लिखना, स्थान-स्थान पर व्याख्यान देना इत्यादि । यह कार्य मुख्यतः हिन्दुत्वनिष्ठ व्याख्याता, पत्रकार तथा सम्पादक करेंगे । इसका भी कालानुसार महत्त्व १० प्रतिशत है ।

इ. बौद्धिक

हिन्दू समाज को दिशा देना; उदाहरण के लिए, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के संदर्भ में गहन अध्ययन कर विश्‍लेषण करना, संगठनों की विचारों से सहायता करना इत्यादि । यह कार्य हिन्दुत्वनिष्ठ विचारक रेंगे । इसका भी कालानुसार महत्त्व १० प्रतिशत है ।

ई. आध्यात्मिक

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक कार्य को आध्यात्मिक बल मिले, इसके लिए देवताआें की उपासना करना; उदाहरण के लिए, कोई कार्य पूरा होने के लिए नामजप अथवा होम-हवन और यज्ञ करना । यह कार्य अधिकतर सन्त तथा सनातन संस्था और अन्य आध्यात्मिक संगठन करेंगे । कालानुसार इस कार्य का महत्त्व सर्वाधिक अर्थात ७० प्रतिशत है । हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य करना हो, तो हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन ऐसा विचार न करें कि हम इसे केवल बाहुबल से कर लेंगे । इसी प्रकार, केवल विचारों के स्तर पर प्रबोधन करने से भी, हिन्दू राष्ट्र नहीं बन पाएगा, यह बात विचारक भी भलीभाांति जानते हैं । इसलिए सब मिलकर यह कार्य कैसे कर सकते हैं, यह सोचना चाहिए ।

इस युद्ध में आध्यात्मिक स्तर का कार्य बहुत कुछ सन्तों के माध्यम से हमने पहले ही आरम्भ कर दिया है । हमें अब केवल शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर कार्य करना है । (४.५.२०१२)

२. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना-सम्बन्धी कार्य के घटक

अ. धर्मशिक्षा

हिन्दुआें को धर्मशिक्षा देने से वे धर्माचरण करेंगे । धर्माचरण से अनुभूति होगी । अनुभूति से धर्मश्रद्धा बढेगी । धर्मश्रद्धा से धर्माभिमान बढेगा । धर्माभिमान से हिन्दुआें का संगठन बढेगा । संगठन से ही हिन्दू सुरक्षित रहेंगे और सुरक्षित हिन्दू ही राष्ट्र का पुनर्निर्माण तथा पोषण करेंगे । अतएव धर्मशिक्षा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का आधार है । (२४.५.२०१२)

१. हिन्दू समाज को धर्मशिक्षा देने की आवश्यकता : रामराज्य की प्रजा धर्म का आचरण करती थी । इसीलिए उसे श्रीराम समान सात्त्विक नेता मिला और वह आदर्श रामराज्य अनुभव कर सकी । ऐसा रामराज्य अर्थात हिन्दू राष्ट्र अब भी स्थापित हो सकता है; परन्तु इसके लिए हिन्दू समाज को धर्माचरण करना होगा और ईश्‍वर का भक्त बनना पडेगा ।

प्राचीन काल में अधिकतर लोग साधना करते थे; इसलिए वे सात्त्विक थे । कलियुग में अधिकतर लोग साधना नहीं करते । इससे रज-तम की मात्रा बहुत बढ गई है । परिणामस्वरूप राष्ट्र और धर्म की स्थिति अत्यन्त विकट हो गई है । इस स्थिति को परिवर्तित करने के लिए प्रत्येक का धर्मानुसार आचरण करना आवश्यक है । हिन्दू समाज को धर्माचरण सिखाने के लिए प्रथम उसे धर्मशिक्षा देना नितान्त आवश्यक है ।

२. हिन्दुआें को धर्मशिक्षा देने का पितृवत कार्य सम्दाय, आध्यात्मिक संस्थाएं और हिन्दूसंगठनों को मिलकर करना चाहिए ! : चर्च में पादरी और मस्जिदों में मौलवी अपने धर्म के अनुयायियों को धार्मिक शिक्षा देते हैं; परन्तु हिन्दुआें को धार्मिक शिक्षा देने की कोई व्यवस्था वर्तमान में नहीं है । आजकल के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताआें से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे हिन्दुआें को धर्मशिक्षा देने की व्यवस्था करेंगे । तब यह कार्य कौन करेगा ? वर्तमान में हिन्दू समाज का कोई कर्णधार नहीं है । इसलिए अब सम्प्रदाय, आध्यात्मिक संस्थाएं तथा हिन्दू संगठन हिन्दू समाज के पिता का दायित्व लें ।

जब हिन्दू संगठन कर्तव्य की भावना से हिन्दुआें को धर्मशिक्षा देने के लिए कुछ करेंगे, तभी इस स्थिति में सुधार सम्भव है । जिस भावना से एक पिता अपने बालक का परिपूर्ण विकास करनेका यत्न करता है, वही भावना हमें हिन्दू समाज के लिए रखनी होगी । इसी कार हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन जिस भावना से धर्मरक्षा का कार्य करते हैं, उसी भावना से वे हिन्दुआें को धर्मशिक्षा देने का कार्य करेंगे, तभी यह कार्य पूरा होगा । (२३.४.२०१२)

आ. राष्ट्र और धर्म के संदर्भ में जागृति

विविध माध्यमों से हिन्दू धर्म की तथा राष्ट्र की जो हानि हो रही है, उसका मूल कारण है हिन्दू समाज की धार्मिक अज्ञानता । जबतक राष्ट्र एवं धर्म की दुर्दशा के संदर्भ में हिन्दू समाज जागृत नहीं होगा, तबतक यह समाज राष्ट्र और धर्म के प्रति संवेदनशील नहीं बनेगा । इसी प्रकार जो समाज राष्ट्र एवं धर्म के प्रति असंवेदनशील है, वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में योगदान नहीं दे सकता । अतः हमें हिन्दू समाज के बोधन का कार्य भावी ढंग से करना होगा । (२४.५.२०१२)

इ. राष्ट्र और धर्म की रक्षा

जागृत हिन्दू समाज, राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा का कार्य स्वयंस्फूर्ति से करता है । देशभर के छोटे-बडे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन शारीरिक स्तर पर तथा विचारक और हिन्दुत्वनिष्ठ पत्र-पत्रिकाएं विचारों के स्तर पर राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा के कार्य कर रहे हैं । यह कार्य जब सब मिलकर करेंगे, तब वह अधिक भावी होगा । विविध हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्य की धानता भिन्न-भिन्न हो सकती है । उदाहरण के लिए, मंदिरों की रक्षा, गंगा नदी का शुद्धीकरण, गोरक्षा इत्यादि । हिन्दू धर्म तथा राष्ट्र की हानिका मूल कारण अधर्मी नेता हैं । अतः राष्ट्र तथा धर्म की रक्षा के लिए हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना हमारा अन्तिम ध्येय होना चाहिए । ऐसा होने से हिन्दू धर्मसम्बन्धी प्रत्येक समस्या का अलग से निराकरण नहीं करना पडेगा । (२४.५.२०१२)

१. धर्मरक्षा के तात्कालिक कार्य तथा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का चार, इनमें हिन्दुआें को आकर्षित करने की क्षमता !

हिन्दू राष्ट्रकी
स्थापनामें महत्त्व
(तिशत)
हिन्दुआेंको
आकर्षित करनेकी
क्षमता (तिशत)
तात्कालिक ध्येय १० ३०
अन्तिम ध्येय – हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना ९० ७०
कुल १०० १००
उपर्युक्त सारणीसे पता चलता है कि हिन्दू राष्ट्र-स्थापनाके कार्यसे
हिन्दू-संगठन शीघ्रतासे हो सकता है । (३.५.२०१४)

ई. समाजसहायता

यदि हम समाज को संगठित करना चाहते हैं, तो उसका विश्‍वास जीतना आवश्यक है । विश्‍वास जीतने के लिए समाज के सुख- दुःख में सम्मिलित होना एवं समस्याआें को सुलझाना अति आवश्यक है । इसी प्रकार हिन्दुत्वनिष्ठ भी व्यक्ति अथवा संगठन के रूप में हिन्दू समाज के घटक हैं । इसलिए इस समाज के हित में कुछ करना, उनका भी कर्तव्य है । हिन्दू समाजसहायता की दृष्टि से किए जानेवाले सामाजिक उपक्रम हिन्दुआें में धर्मजागृति तथा हिन्दू-संगठन करने में पूरक हों । उदाहरणार्थ थमोपचार शिक्षण, देवालयों की स्वच्छता, ग्रामस्वच्छता इत्यादि । जब हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का उचित समय आएगा, तब यही समाज हमारे पीछे हिन्दू शक्ति बनकर दृढता से खडा रहेगा । इतना महत्त्व है समाजसहायता उपक्रमों का ।

३. धर्मक्रान्ति ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का अन्तिम मार्ग !

आजकल क्रान्ति का अर्थ विद्रोह माना जाता है । परन्तु क्रान्ति शब्द का अर्थ है, सुराज्य के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा । अतः धर्मक्रान्ति का अर्थ हुआ, धर्म के अनुकूल सुराज्य के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा । इसमें बमविस्फोट अथवा हिंसा का स्थान नहीं है । यह समाज में एक ही समय उत्पन्न होनेवाली धर्म के अनुकूल मानसिक परिवर्तन की क्रिया है । हमें इस प्रकार की धर्मक्रान्ति का वातावरण पूरे देश में बनाना है । हिन्दुओ, आप उग्र स्वभाव के हों अथवा सौम्य स्वभाव के, विचारक हों या कार्य में सक्रिय, आपको कानून का ज्ञान हो या न हो, एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की मांग का रूपान्तर राष्ट्रव्यापी धर्मक्रान्ति में होगा; अर्थात सनातन धर्म के अनुकूल समाज का मानसिक परिवर्तन होगा ।

४. धर्मक्रान्ति का अर्थ क्रान्ति नहीं, उत्क्रान्ति है !

क्रान्ति किसी झंझावात के समान आती है और एक झटके में सबकुछ, अर्थात नए-पुराने सारे विचारों, प्रथाआें, मान्यताआें, वृत्तियों, संस्थाआें आदि को ध्वस्त कर जाती है । वह सृजन से अधिक विध्वंस करती है । हमें ऐसी क्रान्ति नहीं चाहिए । भारत के इतिहास और परम्पराआें में क्रान्ति से अधिक उत्क्रान्ति को, जीवन से अधिक पुनरुज्जीवन को अधिक महत्त्व दिया गया है । क्रान्ति और उत्क्रान्ति में तथा जीवन और पुनरुज्जीवन में मूलभूत अन्तर यह है कि उत्क्रान्ति तथा पुनरुज्जीवन जीवन पर आधारित होते हैं । इनमें कुछ भी नष्ट नहीं होता, सब का उद्धार होता है । कलियुग से सत्ययुग की उत्पत्ति को हम उत्क्रान्ति कह सकते हैं । जब रामराज्य अर्थात धर्माधिष्ठित हिन्दू राष्ट्र स्थापित होगा, तभी हमारी उत्क्रान्ति अर्थात धर्मक्रान्ति पूरी होगी । (२४.५.२०१२)

५. हिन्दू राष्ट्र स्थापित होने की समय-सारणी वर्ष कार्य

२०१२ से २०१५ (४ वर्ष) हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना हेतु हिन्दू-संगठन
२०१६ से २०२३ (७ वर्ष) संगठित हिन्दुआेंकी सहायतासे धर्मक्रान्ति
२०२३ से २०२५ (३ वर्ष) त्यक्ष हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना

 

इस समय-सारणी में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए कार्य करनेवालों की भक्ति के अनुसार थोडा परिवर्तन सम्भव है । (२४.५.२०१२)

अ. हिन्दुत्वनिष्ठो, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए अनुकूल समय आने की धैर्यपूर्वक तीक्षा कीजिए !

श्रीराम श्रीविष्णु के अवतार थे । तब भी उन्हें राज्य छोडकर वन में जाना पडा था । पाण्डवों के सखा श्रीकृष्ण पूर्णावतार थे, तब भी पाण्डवों को १२ वर्ष वनवास तथा १ वर्ष अज्ञातवास भोगना पडा था । इसी प्रकार हिन्दुत्वनिष्ठों को गत १० वर्ष से कष्ट भोगना पड रहा है । इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं है । आगे जिस प्रकार प्रभु श्रीराम और पाण्डवों ने राज्य किया; उसी कार हिन्दुत्वनिष्ठ भी राज्य करेंगे ! (२९.११.२०१४)

आ. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु सन्धिकाल में कार्य करने का महत्त्व !

हमें हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य वर्ष २०२३ तक पूरा करना है । अब से आगे १० वर्ष सन्धिकाल रहेगा । इस काल में धर्मसंस्थापना का अर्थात हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का कार्य करना अपेक्षित है । सूर्योदय, सूर्यास्त, ग्रहणकाल आदि सन्धिकालों में साधना करने से जितना लाभ होता है, उतना लाभ इस १० वर्ष के सन्धिकाल में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु कार्य करनेवालों को होगा । (२५.४.२०१४)

६. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए आवश्यक धर्मक्रान्ति होने हेतु यह कीजिए !

अ. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए जनता केन्द्रबिन्दु तथा जनजागृति ही माध्यम !

जिस प्रकार प्रत्येक ५ वर्ष पश्‍चात चुनाव आने पर राजनीतिक दल जागृत होकर सक्रिय होते हैं, वैसा आचरण हमारे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों का नहीं होना चाहिए । जब हम निरन्तर समाज में प्रत्यक्ष जाकर कार्यरत रहेंगे, तो जनता जागृत रहेगी और जागृत जनता ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना कर सकती है । हिन्दू जनजागृति समिति का कार्य इतने अल्प समय में बढने का कारण यही है कि समिति का प्रत्येक कार्यकर्ता दिन में न्यूनतम १ घंटा समाज में जाकर लोगों से संपर्क करता है । यदि ऐसा देश के सभी हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन करेंगे, तब चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल से भीख नहीं मांगनी पडेगी । (३.६.२०१३)

आ. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए हिन्दुआें में राजनीतिक सोच विकसित करने का यत्न करें !

हिन्दू संगठन हिन्दुआें को मतदान करने के कर्तव्य का बोध कराएं । अधिकतर हिन्दू मतदाता मतदान ही नहीं करते । इसलिए चुनावों में
विजय का निर्धारण अल्पसंख्यकों के थोक मतों अथवा बिके हुए मतों के आधार पर होता है; इसलिए हिन्दू समाज का कोई महत्त्व ही नहीं रहता । अब इस स्थिति में परिवर्तन होना चाहिए । आजकल की राजनीति स्वार्थपूर्ति के लिए की जाती है; इसलिए भावनारहित है । चुनाव निकट आने पर नेतागण किसी के भी पैरों में पडकर आशीर्वाद लेते हैं तथा जनता को अनेक आश्‍वासन देते हैं । हिन्दू समाज भावुक है, इसलिए नेताआें के आश्‍वासनों पर तुरन्त विश्‍वास करता है । वीर सावरकर भी कहते थे, हिन्दुआें में राजनीतिक सोच का अभाव है । राजनीतिज्ञों के कोरे आश्‍वासनों में हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन भी फंस जाते हैं । इसीलिए राजनीतिक दल श्रीराम मन्दिर बनाने की घोषणा करते हैं; परन्तु सत्ता पाने पर भुला देते हैं । अतः हिन्दुआें को भावुक आश्‍वासनों पर नहीं, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की कार्यात्मक क्रियाआें पर विश्‍वास करना चाहिए । मुसलमान समाज किसी राजनीतिक दल से बंधा नहीं होता । वह दलों के सामने अपनी मांगें रखता है और उस के अनुसार थोक मतदान करता है ।

हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन हिन्दुआें को भी धार्मिक मांगें करने की पद्धति सिखाएं । तभी राजनीतिक दल हिन्दुआें का विचार करेंगे । इसके लिए घर आनेवाले प्रत्येक त्याशी से पूछना चाहिए कि आपने अबतक हिन्दुत्व के लिए क्या किया है और आगे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए क्या करेंगे ? (३.६.२०१३)

इ. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के विचारों का चार करनेवाले और हिन्दू धर्म का पक्ष रखनेवाले वक्ता तैयार करें !

आजकल दूरदर्शन वाहिनियों पर हिन्दू धर्म का पक्ष रखनेवाले वक्ताआें की संख्या अत्यल्प है । इसलिए हिन्दू धर्म की सर्वाधिक हानि दूरदर्शन वाहिनियों पर होनेवाली चर्चाआें में होती है । इस हानि को रोकने के लिए हमें सनातन धर्म एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के विचारों को
दूरदर्शनवाहिनियों पर भावी ढंग से रखने में सक्षम वक्ता तैयार करने हैं । यदि प्रत्येक संगठन प्रतिवर्ष ऐसे २ वक्ताआें को तैयार करता है, तब हिन्दू राष्ट्र की दृष्टि से समाज में व्यापक वैचारिक जागृति होगी । (२४.५.२०१५)

ई. प्रत्येक तहसील और जनपद में राष्ट्रीय हिन्दू आन्दोलन करें !

सङ्घे शक्तिः कलौ युगे । अर्थात कलियुग में संगठित रहने में ही शक्ति है । इस सिद्धान्त के अनुसार किसी विषय पर किसी संगठन का अकेले आन्दोलन करने की तुलना में अनेक संगठनों का मिलकर आन्दोलन करना अधिक भावशाली होता है । प्रतिमास प्रत्येक तहसीलों और जनपदों में होनेवाले देशव्यापी राष्ट्रीय हिन्दू आन्दोलन से सिद्ध हुआ है कि हिन्दू सम्दाय और संगठन धर्मरक्षा के लिए इकट्ठा हो सकते हैं । इन राष्ट्रीय हिन्दू आन्दोलनों में धर्मक्रान्ति के बीज हैं । आगे इन्हीं से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना होगी ! (२४.५.२०१५)

उ. धर्मक्रान्ति का महत्त्वपूर्ण चरण है, हिन्दुआें का भावकारी संगठन करना; इससे ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना सम्भव !

आन्दोलन, दर्शन, मोर्चा, अभियान आदि कुछ करने पर ही नेता जनता की समस्याएं हल करने का प्रयत्न करते हैं । जो जिस ढंग से समझे, उसे उस ढंग से समझाना चाहिए । हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य से संगठित हिन्दू संगठनों के राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों से हिन्दू समाज की बल संगठनशक्ति निर्माण होगी । हिन्दुआें की ऐसी भावी संगठनशक्ति ही इस धर्मक्रान्ति का महत्त्वपूर्ण चरण है । इसके फलस्वरूप नेताआें को हमारे आन्दोलनों पर विचार करना पडेगा । इसका एक उदाहरण है, समाजसेवी अण्णा हजारे का भ्रष्टाचारविरोधी जनान्दोलन । इसमें उन्होंने भ्रष्टाचारी नेताआें के कामकाज पर अंकुश रखने के लिए लोकपाल विधेयक बनाने की मांग की थी । इसके लिए देशभर के भ्रष्टाचारविरोधी संगठनों ने मिलकर देशव्यापी आन्दोलन किया था । जिसके फलस्वरूप भ्रष्ट नेताआें को भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल विधेयक संसद में पारित करना पडा था । यदि यह हो सकता है, तो हिन्दू संगठनों के राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों से उत्पन्न होनेवाली बल संघशक्ति के कारण धर्मनिरपेक्ष नेताआें को संविधान में लिखना पडेगा कि भारत हिन्दू राष्ट्र है । परन्तु यह ध्येय साधने के लिए भाषा, प्रान्त, जाति, सम्दाय, संगठन, दल आदि में बंटे हिन्दुआें को इन भेदों से ऊपर उठकर अपना देशव्यापी महासंगठन खडा करना पडेगा । इसीसे बल संगठनशक्ति का जन्म होगा और इसीसे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए आवश्यक धर्मक्रान्ति साध्य होगी । (२१.१०.२०१५)

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए ५ सहस्र (हजार) राष्ट्रेमी एवं धर्मेमी अधिवक्ता चाहिए !

स्वतन्त्रता संग्राम का काल देखें, तो देशबन्धु चित्तरंजन दास, गणेश वासुदेव जोशी (सार्वजनिक काका), लोकमान्य टिळक, न्यायमूर्ति रानडे, वीर सावरकर जैसे अनेक अधिवक्ताआें के नामों का स्मरण होता है । इस सूची में अनेक नाम हो सकते हैं; परन्तु महत्त्वपूर्ण इतना ही है कि जिस प्रकार अधिवक्ताआें की सेना स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में स्वतन्त्रता संग्राम में उतरी, उसी प्रकार जब वह कार्यकर्ता के रूप में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कार्य में उतरेगी, तब उसका लाभ अवश्य ही होगा । संकटकाल में ये अधिवक्ता देश में जगह-जगह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए सक्रिय हिन्दुत्वनिष्ठों की सहायता के लिए उपलब्ध होंगे और उन्हें आवश्यक मार्गदर्शन करेंगे । साथ ही हिन्दू राष्ट्र का विरोध करनेवालों को कानूनी उत्तर देंगे, देशभर ऐसे न्यूनतम ५ सहस्र संगठित अधिवक्ताआें की आवश्यकता है । उनके कारण वैचारिक क्रान्ति की गति से बढने में सहायता होगी ! – डॉ. आठवले (१.५.२०१५)

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनाकी दिशा