अन्यायी ब्रिटिशों के विरोध में विद्रोह करनेवाले आद्य क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फडके !

सारणी


१. धनिक परिवार में वासुदेव का जन्म

        वासुदेव का जन्म शिरढोण में १८४५ में हुआ । उसके दादाजी अनंतराव स्वराज्य में शिरढोण के निकटवर्ती कर्नाला किले के किलेदार थे । १८१८ में अग्रेंजो ने उन्हें वह किला छोडने के लिए कहा था, अपितु उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर उन्होंने अग्रेंजों के साथ लगातार तीन दिन युद्ध किया । ऐसे वीर पितामह के स्वतंत्रता के प्रति प्रेम का उत्तराधिकार लेकर वासुदेव का जन्म हुआ । वह जन्म से ही धनिक था । ऐश्वर्य में जन्मा हुआ वासुदेव गौरवर्ण का, सीधी नाकवाला, चमकीली निली आंखोवाला एवं सुदृढ शरीरयष्टिवाला तगडा वीर था ।

. नौकरी करते समय ब्रिटिश सेना की व्यवस्था के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करना

       विद्यार्जन के पश्चात मुंबई में जी.आय.पी. रेल में, ग्रँट मेडीकल महाविद्यालय में वासुदेवने कुछ समय नौकरी की; परंतु वरिष्ठों के साथ अनबन होकर उसने वह नौकरी छोड दी एवं मिलीटरी फायनान्स के ऑफिस में नौकरी आरंभ की । १८६५ में पुणे के कार्यालय में उसका स्थानांतरण हुआ । उस समय उसका वेतन प्रतिमाह ६० रुपये था । उसके काम से वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी संतुष्ट होते थे । सेना विभाग से संबंधित होने के कारण ब्रिटिश सेना के व्यवस्था की अधिकांश जानकारी अपने आप ही उसे प्राप्त हुई ।

३. अत्याचारी ब्रिटिशों के विरोध में चिढ निर्माण होना

        १८७० में मां के का स्वास्थ बिघडने का समाचार शिरढोण से वासुदेव को मिला । मां को मिलने हेतु कार्यालय में छुट्टी की मांग की; किंतु वह नहीं मिली । उसके अतिरिक्त अपशब्द सुनना पडा । वासुदेव वैसे ही मां को मिलने के लिए तुरंत निकल गया; परंतु उसके पहुंचने से पहले ही मां की मृत्यु हो चुकी थी । अपने मां की अंतिम भेंट से उसे वंचित करनेवाला अंग्रेज अधिकारी एवं समस्त अंग्रेजों के विरूद्ध उसका मन अधिक ही प्रक्षुब्ध हो ऊठा ।

४. स्वदेसी वस्तुओं का उपयोग करने की शपथ लेना

        १८७१ को पुणे में सार्वजनिक सभाद्वारा जनता की शिकाय तें दूर करने का ‘काकाजी’ने आरंभ किया । उनके इस कार्य में वासुदेव ने सहयोग दिया । १८७३ में ‘काकाजी’ने खादी का व्रत अपनाया, तब वासुदेव ने भी केवल स्वदेसी वस्तुओं का उपयोग करने की शपथ ली एवं उसका आजन्म पालन किया ।

. गुप्त संगठन स्थापित करना

       छुट्टी के दिन निकटवर्ती गांवों में जाकर स्वदेस तथा स्वतंत्रता पर व्याख्यान देने के लिए वासुदेव बलवंत फडके जाने लगे । निर्धन जनता के दु:ख समीप से देखने लगे । किसानों को वे बताने लगे कि, ‘अंग्रेज शासन के कारण ही तुम्हारी यह अवस्था हुई है ।’ उन्होंने पुणे में युवकों को तलवार, गतका-फरी चलाना एवं मल्लविद्या सीखाना आरंभ किया । गुप्तरूप से रात्रि अथवा प्रातःसमय में  नरसोबा के मंदिर के समीप नीरव स्थानपर वर्ग चलाए जाते थे । उसमें सौ-डेढसौ युवक भाग लेते थे । शरीर सुदृढ बनाने हेतु एक वर्ष पढाई को छुट्टी देकर लो. बाल गंगाधर तिलक ने भी उसमें सहभाग लिया था । इन युवको में से कडी जांच के पश्चात कुछ गिने-चुने युवकों को लेकर एक गुप्त संगठन भी स्थापित किया । प्रभात फेरीयां, पाठशाला महाविद्यालयोंद्वारा प्राप्त अर्पण तथा भक्तिपर कार्यक्रमों के माध्यम से वे उनके सहकारीयों के साथ अपने कार्य का प्रसार करते थे । दशहरे के दिन ‘सरदार रास्ते’ की हवेली में शस्त्रपुजन का बडा उत्सव मनाया जाता था । उस समय दही-पोहे का द्रोण हाथ में लेकर स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व अर्पण करने की प्रतिज्ञा इन सदस्योंद्वारा की जाती थी । अंग्रेज शासन को हटाकर स्वतंत्रता प्राप्ति किए बिना देश का कल्याण नहीं होगा, ऐसी उनकी धारणा हुई थी । अतएव उनके मन में विद्रोह के विचार चल रहे थे । उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा  है कि, ‘जिस भूमिपर मेरा जन्म हुआ, उसी भूमि में ये बच्चे जन्मे हैं, अन्न के बिना वे भूखें मरें तथा मैं अकेला ही एक कुत्ते के समान अपना पेट पालता रहूं , यह मुझ से देखा नहीं गया एवं इसलिए मैंने ब्रिटीश शासन के विरोध में विद्रोह करने का निश्चय किया ।’

६. ब्रिटिश शासन के विरोध में विद्रोह

        यह समय राजनैतिक विद्रोह का अर्थात डाका डालकर राजसत्ता को ललकारने का ही था । १८७९ के फरवरी में शिवरात्रि के मुहुर्त पर रामोशी, चांडाल इत्यादि लोग एवं कुछ सज्जनों को साथ लेकर दो-तीन सौ सेना के साथ वासुदेव फडके ने थामारी गांवपर पहला डाका डाला । तत्पश्चात उनकेद्वारा लगातार डाके डाले गए । ऐसे अनेक डाकों के कारण अंग्रेज शासन संभ्रम में पड गया ।

७. ब्रिटिशोंद्वारा बंदी बनाया जाना

        जून १८७९ में वे गाणगापुर में लौटकर आए । निकटवर्ती रोहिले के साथ ५०० घुडसवारों की नई सेना खडी करने की उन्होंने प्रतिज्ञा की एवं धन लाने हेतु वे पंढरपुर निकलें । तब उन्हें पकडने के लिए १५०० हिंदी एवं अंग्रेज सेना मेजर डॅनिअल के मार्गदर्शनानुसार रात्रंदिन परिश्रम कर रही थी । गुप्तचरोंद्वारा डॅनिअल को उनका पता लगा । लगातार ४२ घंटें पिछा करने के पश्चात देवरनावडगी में २० जुलाई की मध्यरात्रि में निद्रिस्त अवस्था में ही उन्हें बंदी बनाया गया । बंदी बनाने के पश्चात भी उन्होंने डॅनिअल को द्वंद्वयुद्ध के लिए चुनौती दी; किंतु उसने वह अस्वीकार की । विद्रोह की जानकारी के लिए उनपर विविध अनाचार किए गए । पुणे के सत्र न्यायालय में उनके साथ १६ जनोंपर रानी सरकार के विरोध में सशस्त्र विद्रोह करना, षडयंत्र रचना, लोग एवं शस्त्र इकठ्ठा करना, सरकार के विरोध में राजद्रोह फैलाना एवं डाका डालना ऐसे विविध प्रकार के आरोप लगाए गएं ।

८. ब्रिटिशोंद्वारा कारागृह में अनंत यातनाएं एवं देहत्याग

        स्वप्न तथा ध्येय को उचित प्रतिसाद प्राप्त न होने के कारण इस आद्यक्रांतिवीर के भाग्य में आजीवन कारावास, कालापानी, एडन का कारागृह, वहां पर तेल का कोल्हू चलाना, चक्की पिसना जैसी अनंत यातनाओं को झेलना पडा । वहां उनपर अनंत अनाचार किए गए, अतएव डेढ वर्ष में ही अर्थात १२ अक्तूबर १८८० में मध्यरात्रि के समय अपनी बेडियों को तोडकर, कोठरी के भारी द्वार उखाडकर, कारागृह तोडकर वे भाग गए । लगातार बारह मील की दूरी तक वे दौडते रहे । दूसरे ही दिन पुलिस तथा सिपाही उनका पिछा करने निकले एवं दोपहर को ३ बजे वीर आनंद नामक स्थानपर पकडकर पुनः उन्हें कारागृह में लाया गया । तदुपरांत अधिक भारी बेडियां, एकाकी कोठरी एवं अनंत यातनाओं का आरंभ हुआ । उनका भीमकाय देह कृश होता गया । क्षय के कारण वे जर्जर हुए । अंत में केवल ३८ वर्ष की आयु में ही १७ फरवरी १८८३ को सायं  ४.२० बजे उन्होंने देहत्याग किया ।

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