शिवपिंडी की विशेषताएं

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पिंडी भग की प्रतीक ‘अरघा’ एवं लिंग के प्रतीक ‘लिंग’ के संयोजन से बनी है । भूमि अर्थात सृजन एवं शिव अर्थात पवित्रता । इस प्रकार अरघा में सृजन एवं पवित्रता, दोनों रहते हैं । तब भी विश्व की उत्पत्ति वीर्यद्वारा नहीं हुई है; अपितु शिवजी के संकल्पद्वारा हुई है । अतः शिव एवं पार्वती विश्व के मातापिता हैं । कनिष्का के पुत्र हुइष्क ने दूसरी शताब्दी से शिवलिंगपूजा आरंभ की । शक्ति के बिना शिव कुछ भी नहीं कर सकते; इसलिए शिव के साथ शक्ति का पूजन आरंभ हुआ । पिंडीरूप शिवलिंग ऊर्जाशक्ति का प्रतीक है । आजकल की अणुभट्टी का आकार भी शिवलिंग समान होता है ।

१. पिंडी के प्रकार

१ अ. चल एवं अचल

चल लिंग केवल विशेष पूजा के लिए बनाए जाते हैं, उसी समान जैसे गणेश चतुर्थी हेतु गणेश की मूर्ति बनाते हैं एवं तदुपरांत उसे विसर्जित करते हैं । अचल लिंग की स्थापना किसी एक स्थान पर करते हैं । जिसे लिंगायत गले में पहनते हैं, उसे ‘चल लिंग’ कहते हैं ।

१ आ. भूतल के संदर्भ में

१. भूतल से नीचे स्थित (स्वयंभू)

अ. इसमें बहुत शक्ति होती है; इसलिए यह भूतल के नीचे होती है । यदि यह ऊपर हो, तो इससे प्रक्षेपित शक्ति भक्त सहन नहीं कर पाएंगे (आंखों से बाहर निकलनेवाले तेज से दर्शनार्थियों को कष्ट न हो, इसलिए तिरुपति के बालाजी की आंखें अर्ध खुली हैं) । भक्त आडा लेटकर एवं धरती के भीतर हाथ डालकर उसकी पूजा करता है । ज्योतिर्लिंग में जितना शिवतत्त्व होता है, उससे कुछ अल्प स्वयंभू लिंग में होता है । ये शिवेच्छा से बनते हैं । तदुपरांत किसी भक्त को साक्षात्कार होकर उनका शोध लगता है एवं वहां पूजा आरंभ होती है ।

आ. स्वयंभू शिवपिंडी निर्मित होने का अध्यात्मशास्त्रीय आधार

  • ‘सृष्टिरचना में निर्मित सूक्ष्म बाधाएं दूर होकर यह रचना सहजता से कार्यरत रहे ।
  • जहां पर शिवशक्ति की आवश्यकता है ।
  • जहां पर भक्त की साधना के लिए प्रतिकूल काल है, जिससे ईश्वरीय अस्तित्व से वह अनुकूल हो । जहां स्वयंभू शिवपिंडी की आवश्यकता है; परंतु वहां वह प्रकट न हो रही हो, तब उसे कालमाहात्म्य समझें । उसी प्रकार ऐसा घटित होना आपातकाल का सूचक समझा जाता है । जहां काला घना अंधकार होता है, वहीं प्रकाश की छोटीसी किरण का महत्त्व समझ में आता है । महत्त्व ज्ञात होने के उपरांत ही प्रकाश का कार्य प्रारंभ होता है, ऐसा ही ईश्वरीय कार्य के विषय में कह सकते हैं ।’ (श्री. राम होनप के माध्यमसे)

२. भूतल पर स्थित

यह ऋषि अथवा राजाद्वारा प्रस्थापित की गई होती है । इसमें शक्ति न्यून (कम) होती है । भक्त इस शक्ति को सहन कर पाते हैं । पिंडी के बगल में कुछ गहरे स्थान पर बैठकर पूजा करते हैं ।

३. भूतल से ऊपर स्थित

यह भक्तोंद्वारा संगठितरूप से स्थापित की गई होती है । इसमें सर्वाधिक अल्प, सभी से जितनी सहन हो सके उतनी ही शक्ति रहती है । पिंडी के बगल में बनाए गए चबूतरे पर बैठकर भक्त उसकी पूजा करता है ।

२ एवं ३ प्रकार के लिंग को मानुष लिंग कहते हैं । ‘ये लिंग मनुष्योंद्वारा निर्मित हैं, इसलिए इन्हें मानुष लिंग की संज्ञा दी गई है । इनकी गणना स्थिर लिंग में होती है ।

इस लिंग के तीन भाग होते हैं – ब्रह्मभाग, विष्णुभाग एवं रुद्रभाग । सबसे निचले भाग को ‘ब्रह्मभाग’ कहते हैं । यह भाग चौकोर होता है । बीचवाले अष्टकोनी भाग को ‘विष्णुभाग’ कहते हैं । ये दोनों भाग भूमि में गडे हुए होते हैं । सबसे ऊपरवाले गोल, सीधे खडे भाग का नाम रुद्रभाग है, जिसे पूजाभाग भी कहते हैं क्योंकि पूजासाहित्य इसी पर चढाया जाता है । मूर्तिशास्त्र पर आधारित ग्रंथों के अनुसार रुद्रभाग पर कुछ रेखाएं होनी चाहिए, जिन्हें ‘ब्रह्मसूत्र’ कहते हैं । दैविक एवं आर्षक (दैविक लिंग अर्थात देवताद्वारा एवं आर्षक लिंग अर्थात ऋषियोंद्वारा, संकल्प से निर्माण किया गया लिंग ।) लिंग पर ऐसी रेखाएं नहीं होतीं ।’

४. वायु में लटकी हुई

पारे से बनी हुई सोमनाथ की पिंडी भूमि से पांच मीटर की ऊंचाई पर वायु में तैरती थी । दर्शनार्थी पिंडी के नीचे से होकर जाते थे एवं इसे ही पिंडी की परिक्रमा मानते थे ।

२. श्री कुणकेश्वर (सिंधुदुर्ग, महाराष्ट्र) स्थित शिवपिंडी की सूक्ष्मस्तरीय विशेषताएं दर्शानेवाला चित्र

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अ. चित्र में अच्छे स्पंदन : ४ प्रतिशत’ – प.पू. डॉ. जयंत आठवले

आ. अन्य सूत्र

  • स्वयंभू शिवपिंडी में शिवजी का निर्गुण तत्त्व समाया रहता है ।
  • स्वयंभू शिवपिंडी शिवतत्त्व की इच्छाशक्ति का सगुण रूप है । इससे शिवजी की प्रकट (मारक) शक्ति पिंडी में  समायी रहती है ।
  • स्वयंभू शिवपिंडी में मानवनिर्मित शिवलिंग की तुलना में अधिक सात्त्विकता होती है । मानव-निर्मित शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा के पश्चात उसमें मंत्रों की सहायता से देवता के तत्त्व लाए जाते हैं । स्वयंभू शिवपिंडी में इन तत्त्वों का अस्तित्व मूलतः ही होता है । (श्री कुणकेश्वर की शिवपिंडी स्वयंभू है ।)’ – कु. प्रियांका लोटलीकर

३. लिंग

अ. लिंग अर्थात किसी वस्तु अथवा भावना का चिह्न अथवा प्रतीक । मेदिनीकोश में लिंग शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है ।

लिङ्गं चिन्हेऽनुमाने च साङ्ख्योक्त प्रकृतावपि ।
शिवमूर्तिविशेषे च मेहनेऽपि नपुंसकम् ।।

अर्थ : चिह्न, अनुमान, सांख्यशास्त्रांतर्गत प्रकृति, शिवमूर्तिविशेष एवं शिश्न, इन अर्थों से लिंग शब्द का प्रयोग नपुंसक है; सामान्यतः ‘लिंग’ अर्थात ‘शिव का प्रतीक’ ।

आ. प्रलयकाल में संपूर्ण विश्व का लय, पंचमहाभूत समेत लिंग में हो जाता है एवं सृष्टिकाल में पुनः उसी से सृष्टि का निर्माण होता है; इसलिए उसे लिंग कहा गया है ।

इ. महालिंग के तीन नेत्र होते हैं । ये उत्पत्ति, स्थिति एवं लय तथा तम (विस्फुटित), रज (तिर्यक) एवं सत्त्व (सम्यक) तरंगों के संकेत होते हैं ।

४. अरघा (जलहरी)

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दक्ष प्रजापति की प्रथम कन्या भूमि है, जिसके रूप अदिति, उत्तानपादा, मही एवं अरघा हैं । अरघा का मूल नाम है सुवर्णशंखिनी; क्योंकि शंख का (कौडीका) आकार स्त्री की सृजनेंद्रियों समान है । अरघा की पूजा अर्थात मातृदेवता की पूजा । अरघा के आंतरिक खांचे महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके कारण पिंडी में निर्माण होनेवाली सात्त्विक शक्ति अधिकतर पिंडी में एवं गर्भगृह में (मंदिर के भीतरी भागमें) घूमती रहती है और विनाशकारी तमप्रधान शक्ति अरघा के स्रोत से बाहर निकलती है ।

अ. घेरे अनुसार अरघा के प्रकार

१. लिंग के घेरे से तीन गुना घेरेवाली अरघा अधम होती है ।

२. लिंग के घेरे से डेढ गुना घेरेवाली अरघा मध्यम है ।

३. लिंग के घेरे से चार गुना घेरेवाली अरघा उत्तम है ।

आ. ऊंचाई

अरघा की ऊंचाई लिंग के विष्णुभाग जितनी होनी चाहिए ।

इ. आकार

aragha_uttarmukhi४, ६, ८, १२ अथवा १६ कोण हो सकते हैं; परंतु अधिकाशंतः गोल ही होता है । अरघा उत्तरमुखी हो, तो उसका आकार दार्इं ओर दी गई आकृति में दिखाए अनुसार होता है ।

ई. शुक्रजंतु एवं सुवर्णकांतिमय अधःशायी (गर्भ में प्रवेश करनेवाला जीव) तथा जन्म लेनेवाले अर्भक (शिशु) भी इसी समान दिखाई देते हैं ।

५. ज्योतिर्लिंग

भारत में प्रमुख शिवस्थान अर्थात ज्योतिर्लिंग बारह हैं । ये तेजस्वी रूप में प्रकट हुए । तेरहवें पिंड को कालपिंड कहते हैं । काल-मर्यादा के परे पहुंचे पिंड को (देहको) कालपिंड कहते हैं ।

६. ‘बाणलिंग

शिवलिंग का एक प्रकार । नर्मदा नदी के एक विशेष आकार के पत्थर को बाणलिंग कहते हैं । याज्ञवल्क्यसंहितानुसार बाणासुर ने इन लिंगों को पूजा हेतु निर्मित कर उन्हें नर्मदा नदी के किनारे स्थित पर्वत पर विसर्जित किया, जहां से वे पानी के प्रवाह में बहकर नर्मदा नदी में गिर गए । नर्मदा समान गंगा एवं यमुना नदियों में भी ऐसे बाणलिंग पाए जाते हैं ।’ बाणलिंग एवं शालग्राम, संगमर्मर समान अच्छिद्र पत्थर के बने होते हैं; इसलिए भारी होते हैं तथा शीघ्र नहीं घिसते ।

७. पारद शिवलिंग

‘पारद का शिवलिंग अत्यंत दुर्लभ समझा जाता है । पारा शिववीर्य माना गया है । उसे ‘प्रवाही धातु’ (थ्ग्qल्ग्् शूaत्) भी कहते हैं । उसे हाथ में नहीं ले सकते । वह भूमि पर गिर जाए, तो भाग जाता है । उसे उठा नहीं सकते । वह अग्नि में स्थिर नहीं रहता । इसलिए पारदमणि अथवा पारद शिवलिंग सिद्ध करने के लिए पारद को घनस्वरूप बनाना कठिन होता है । इसी कारणवश यह विद्या दुर्लभ मानी जाती है । पारे को घनस्वरूप बनाने से पूर्व उस पर १६ प्रकार के संस्कार कर उसे निर्दोष एवं शुद्ध करते हैं । इस क्रिया को ‘पारे का मारण’ कहते हैं । पारे को मारने के २३-२४ प्रकार हैं । ईश्वर की कृपा से मुझे यह विद्या प्राप्त हुई । अनेक लोगोंकों पारदमणि एवं पारद शिवलिंग बनाकर दिए । `जहां पारद शिवलिंग होता है, वहां १२ ज्योतिर्लिंग प्रत्यक्ष निवास करते हैं, ऐसी भक्तों की श्रद्धा एवं अनुभूति भी है । इतना पुण्यप्रद है यह शिवलिंग । इससे अनेक प्रकार के लाभ होते हैं, कोई भी उपासना शीघ्र फलप्रद होती है ।’ – श्री. अनिल गोविंद बोकील, पुणे, महाराष्ट्र.

संदर्भ : भगवान शिव (भाग १) – शिवजीसंबंधी अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन

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