शिवजी का कार्य

१. विश्व की उत्पत्ति

शिव-पार्वती को ‘जगतः पितरौ’, अर्थात विश्व के मातापिता मानते हैं । विश्व के संहार के समय ही नवनिर्मिति के लिए आवश्यक वातावरण शिव उत्पन्न करते हैं ।

अ. शिवजी के डमरू के नाद से विश्व की उत्पत्ति होना

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शिवजी के डमरू से उत्पन्न ५२ स्वरों से, अर्थात ५२ नादों से नादबीज की अर्थात बीजमंत्र की (५२ अक्षरों की) निर्मिति हुई, जिससे विश्व की उत्पत्ति हुई । नद् – नाद् अर्थात निरंतर बहते रहने की प्रक्रिया । इस नादबीज से ‘द द दम्’ अर्थात ‘ददामि त्वम् । (मैं तुम्हें देता हूं)’, ऐसा नाद निकला । शिव ने मानो विश्व को आश्वासन दिया, ‘मैं ज्ञान, पवित्रता एवं तप देता हूं ।’

आ. शिवजी के तांडव नृत्य से विश्वव्यापार आरंभ होना

शिवजी का एक नाम ‘नटराज’ भी है । जब उनका तांडव नृत्य आरंभ होता है, तब उस नृत्य की झंकार से सर्व विश्वव्यापार को गति प्राप्त होती है और जब उनके नृत्य पर विराम लगता है, तब इस चराचर विश्व को स्वयं में समेटकर वे एकल आत्मानंद में निमग्न रहते हैं ।

इ. सर्वत्र व्याप्त चैतन्यमय शिवत्व का स्फुरण अर्थात विश्व

‘प्रत्येक जीव में शिवत्व (वही आत्मतत्त्व) है और वह चैतन्यरूप है । वही परम शिव है । यह परम शिव प्रत्येक वस्तु में व्याप्त हैं । उनका यह विश्वात्मक रूप सभी वस्तुओं में व्याप्त होते हुए भी शेष है ही । यह है उनका `विश्वोत्तीर्ण’ रूप ! विश्व उन्हीं का स्फुरण है । विश्व का अस्तित्व पहले से ही था; सृष्टिकाल में शिवशक्ति के योग से वह प्रकट हुआ ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

ई. परम शिव की स्वतंत्रताशक्ति के कारण ही बिना बिंब के विश्व का प्रतिबिंब होना

‘परम शिव एकमात्र तत्त्व है । स्वेच्छा से धारण किया गया उनका रूप है `माया’ । परमशिव ही सृष्टि, स्थिति, संहार, अनुग्रह एवं विलय, इन ५ कर्मों के संपादक हैं । जगत परमशिव का प्रतिबिंब है । वृक्ष, पर्वत, हाथी, गाय आदि विषय निर्मल दर्पण में प्रतिबिंब होते हैं । वे दर्पण से भिन्न दिखते हैं । वास्तव में वे प्रतिबिंब से अभिन्न हैं । उसी प्रकार परम शिव में प्रतिबिंब विश्व अभिन्न होते हुए भी, हाथी, गाय, पर्वत, वृक्ष भिन्न प्रतीत होते हैं । बिंब हो, तो ही प्रतिबिंब होता है; परंतु यहां परम शिव की स्वातंत्र्यशक्ति के कारण बिना बिंब के ही विश्व प्रतिबिंब होता है ।’

२. जगद्गुरु

‘ज्ञानं महेश्वरात् इच्छेत् मोक्षम् इच्छेत् जनार्दनात् ।’ अर्थात, सदाशिव (शिव) से ज्ञान की एवं जनार्दन से (श्रीविष्णुसे) मोक्ष की इच्छा करें ।

३. स्वयं साधना कर सभी की उत्तरोत्तर प्रगति करवानेवाले

‘शंकरजी की पिंडी सदैव उत्तर की ओर ही रहती है । उत्तर दिशा में स्थित वैâलाश पर्वत पर वे ध्यान लगाते हैं तथा संपूर्ण विश्व का ध्यान रखते हैं । वे स्वयं साधना कर सभी की उत्तरोत्तर प्रगति करवाते हैं ।’ – प.पू. परशराम माधव पांडे महाराज, महाराष्ट्र.

४. कामदेव को नष्ट करनेवाले, अर्थात चित्त के कामादि दोष नष्ट करनेवाले

कोई चार-पांच वर्ष का बालक किसी प्रौढ व्यक्ति से लडे, इससे भी अधिक कठिन है वासनाओं से लडना । कामदेव को शिव ने ही जला दिया । इससे शिव के सामर्थ्य एवं अधिकार का बोध होता है ।

अ. कामदेव को जलाने के उपरांत, शिवजीद्वारा उन्हें सभी के मन में स्थान देना

‘भ्रूमध्य के निकट का तीसरा नेत्र खोलकर शंकरजी ने कामवासना तो नष्ट की ही, साथ ही कामदेव को भी जला दिया । संपूर्ण विश्व से ही कामवासना नष्ट की । `अब प्रजानिर्मिति कैसे होगी’, इस विचार से कामदेव की पत्नी रतिद्वारा की गई प्रार्थना के फलस्वरूप शिव ने कामदेव को जीवन प्रदान किया; परंतु वह अनंग (देहरहित) बन गया, मनोज (मदन) बन गया । वह सभी देहधारी जीवों के चित्त में अपना साम्राज्य स्थापित कर संपूर्ण विश्व को जीत रहा है । वासना नष्ट करने के लिए शंकरजी की आराधना करें । उसकी कृपा से चित्त कामादि दोषरहित होगा ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

५. आज्ञाचक्र के अधिपति

हमारे शरीर में सात चक्र हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा एवं सहस्रार । कुंडलिनीशक्ति की यात्रा इन्हीं चक्रों से होती है । चक्र विविध देवताओं से संबंधित हैं, उदा. मूलाधारचक्र श्री गणपति से एवं स्वाधिष्ठानचक्र दत्तात्रेय देवता से संबंधित है । संक्षिप्त में विशिष्ट देवता विशिष्ट चक्र के अधिपति हैं । शिवजी आज्ञाचक्र के अधिपति हैं । वे आदिगुरु हैं । गुरुसेवारत शिष्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण है ‘आज्ञापालन’ । इस दृष्टि से आज्ञाचक्रस्थित शिवजी का स्थान एक प्रकार से शिव के गुरुत्व का साक्षि है । शिव के तृतीय नेत्र (ज्ञानचक्षु) का भी यही स्थान है ।

६ मृत्युंजय

‘महादेव को ‘सोमदेव’ भी कहते हैं । दक्षिण दिशा के स्वामी हैं यम । यह मृत्यु के देवता हैं, जबकि सोम (शिव) मृत्युंजय हैं तथा उत्तर दिशा के स्वामी हैं । शंकरजी की पिंडी भी सदा उत्तर दिशा में ही रखते हैं । यम श्मशान के स्वामी हैं, तो श्मशान में रहकर रुंडमाला धारण करनेवाले और ध्यानधारणा करनेवाले हैं शिव । जीव तपसाधना से अग्नितत्त्व, यम, वरुण एवं वायुतत्त्व को पारकर मृत्युंजय शिवतत्त्व के निकट जाता है । उस समय शिव उस जीव को अभय प्रदान कर ईश्वरीय तत्त्व के अधीन करते हैं तथा जीव एवं शिव एक होते हैं ।’ – प.पू. परशराम माधव पांडे महाराज, महाराष्ट्र.

७. त्रिगुणातीत करनेवाले

सत्त्व, रज एवं तम, इन तीनों गुणों को, अर्थात अज्ञान को शंकरजी एक साथ नष्ट करते हैं ।

संदर्भ : भगवान शिव (भाग १) – शिवजीसंबंधी अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन

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