ब्रह्मलीन धर्मसम्राट् स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज

‘करपात्र स्वामी’, अर्थात् ‘कर’ ही है पात्र जिनका – ऐसे स्वामी हरिहरानंद सरस्वती संसारमें ‘करपात्रीजी’के नामसे प्रसिद्ध हुए । वे एक युगपुरुष थे । इतिहास साक्षी है कि भारतकी इस पवित्र भूमिने समय-समय पर ऐसे संत-महात्माओं और आचार्योंको जन्म दिया, जिनके जीवनसे भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्मको प्रकाश तथा संजीवनी मिली । इसी कडीमें, आदिशंकराचार्यकी परंपरामें अनंत श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज अवतरित हुए । उनमें अलौकिक प्रतिभा, तपस्या एवं साधनाका असीम तेज था । कलिके इस प्रथम चरणमें जीवनपर्यंत वर्णाश्रमव्यवस्था और धर्मकी रक्षाके लिए वे संघर्षरत तो रहे ही, जगत्को वेद-शास्त्र और धर्मके सूक्ष्म तत्वोंसे अवगत भी कराया ।

सारणी


पारिवारिक जीवन

एक बार महाराजश्रीने स्वयं बताया था कि बाल्यावस्थामें जब वे किसी संत-महात्मा या साधुको देखते थे, तो उनके मनमें उनके प्रति स्वाभाविक आकर्षण उत्पन्न हो जाता था । उस समय उनकी यही इच्छा होती कि मैं भी उनके साथ हो जाऊं । कई बार तो वे साधुओंके साथ जाने भी लगते; परंतु परिवारके लोग उन्हें पकडकर लौटा ले आते । उनके पिताजीने जब अनुभव किया कि इनका मन घर-गृहस्थीमें नहीं लग रहा है, तो उन्होंने किशोरावस्थामें ही इनका विवाह कर दिया । उन्हें आशा थी कि विवाहके उपरांत सामान्यरूपसे घर-गृहस्थीके कार्योंमें ये आसक्त हो जाएंगे । परंतु विधिकी विडंबना कुछ और ही थी । विवाहके पश्चात्  तथा पत्नीके आ जानेपर भी वे घर-गृहस्थीके प्रति पूर्ववत् ही उदासीन एवं अनासक्त रहते । साधु-संतोमें ही उनका मन रमा रहता था । संसारसे विरक्तरहते थे । पिताने जान लिया कि  अब यह अधिक दिनोंतक घरमें टिकनेवाला नहीं है । पिताकी इच्छा थी कि एक संतान हो जाती तो वंश चलने लगता । पिताकी इच्छा पूरी हुई । एक कन्याका जन्म हुआ । तदुपरांत कुछ ही दिनों पश्चात्, घरसे निकल पडे । पारिवारिक जनोंने इन्हें पुनः घर लौटानेका बहुत प्रयत्न किया; परंतु वे संसारकी नश्वरतासे परिचित हो चुके थे । उत्कट वैराग्य जागृत हो चुका था । अतः परमार्थ-पथसे लौटकर पुनः घर आना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ ।

ज्ञानसंपादन

अलवरमें नर्मदाके तटपर स्वामी श्री विश्वेश्वरानंदजी महाराजश्रीके विद्यागुरु थे । वहां महाराजने लगभग २ वर्षके अल्पकालमें ही व्याकरण, न्याय, सांख्य और वेदान्तकी शिक्षा प्राप्त की ।  साथ ही, प्रस्थानत्रयी आदि विषयोंमें वे  निपुण हो गए । महाराजश्रीकी प्रतिभा इतनी प्रखर थी कि जिस विषयको वे एक बार देख लेते, वह उन्हें आत्मसात हो जाता था । ऋषिकेशमें कोयलघाटी नामक स्थान है, जहां एक पुरातन वट-वृक्ष आज भी स्थित है । उस वृक्षके कोटरमें एक व्यक्तिके रहने योग्य स्थान है, जिसमें महाराजश्री विश्राम किया करते थे । उन दिनों लंगोटीके अतिरिक्त महाराजश्रीके पास कोई वस्त्र नहीं होता था । तीन दिन अथवा सात दिन उपरांत दूधकी भिक्षा, कर (हाथ) से ही ग्रहण करते थे । इसीलिए वे आगे चलकर ‘करपात्रीस्वामी’, इस नामसे प्रसिद्ध हुए । उस समय स्वामीजी यात्राके लिए किसी प्रकारके यान अथवा वाहनका उपयोग नहीं करते थे; पैदल ही यात्रा करते थे ।

महामना मालवीयजीसे शास्त्रार्थ

जिन दिनों महाराजश्री ऋषिकेशमें रहते थे, उन दिनों वे प्रकाशमें तब आए, जब महामना मदनमोहन मालवीयजीसे उनका शास्त्रार्थ हुआ । यद्यपि श्री मालवीयजी सनातन धर्मी नेता थे; परंतु समय और परिस्थितिके अनुसार स्त्री और शूद्रको भी प्रणवकी दीक्षा देनेका समर्थन करते थे और इसे शास्त्र-सम्मत  बताते थे । उन्होंने इस विषयपर शास्त्रार्थकी भी घोषणा कर दी । कुछ लोग, जो महाराजश्रीसे परिचित थे, उनसे मिले और प्रार्थना करने लगे कि आप जैसे विद्वानके रहते, इस प्रकारके आह्वानका सामना होना ही चाहिए । इस विषयमें शास्त्र-सम्मत निर्णय होना ही चाहिए । शास्त्रविपरीत कोई भी बात महाराजश्रीको सहन नहीं होती थी । उस समय महाराजने कोई उत्तर नहीं दिया । शास्त्रार्थके लिए एक विशेष मंचका निर्माण किया गया, जहां ध्वनिवर्धक एवं ध्वनिक्षेपक आदि उपकरण लगे थे । उस क्षेत्रके प्रतिष्ठित लोग शास्त्रार्थमें आमंत्रित थे । मालवीयजी अपनी बातके पक्षमें तर्क-युक्ति और शास्त्रीय प्रमाण अपने भाषणमें मंचपर प्रस्तुत कर रहे थे । मंचसे थोडी ही दूर एक वृक्षके नीचे लंगोटी बांधे एक युवासाधु खडा होकर मालवीयजीके तर्क-युक्ति और प्रमाणोंका उत्तर देने लगा ।

धीरे-धीरे कुछ श्रोता वहां जुटने लगे । थोडे ही समयमें यह बात विद्युलताकी भांति आस-पासके क्षेत्रोंमें प्रसारित हो गयी कि एक प्रतिभावान निष्कांचन साधु एक वृक्षके नीचे खडा होकर मालवीयजीकी बातोंका उत्तर दे रहा है । अब तो संत-महात्मा और विशिष्ट जन भी वहां पहुंचने लगे । मंचपर आसीन लोग भी उस महात्माका उत्तर सुननेको आतुर हो गए । यह बात मालवीयजीके कानोंतक जा पहुंची और लोगोंने उनसे आग्रह किया कि उस साधुको इस मंचपर लाया जाए । कुछ लोगोंने महाराजश्रीको पहचाना । मालवीयजी स्वयं वृक्षके नीचे पधारे और महाराजश्रीसे मंचपर आनेका आग्रह किया । महाराजने तत्काल शास्त्रार्थका आह्वान स्वीकार कर लिया, एवं मंचपर मालवीयजीसे शास्त्रार्थ होना निश्चित हो गया । सेठजी श्री. जयदयालजी गोयंदका तथा सेठ श्री. गौरीशंकरजी गोयन्दका मध्यस्थ बनाए गए । तीन दिनोंतक शास्त्रार्थ चला । मध्यस्थोंने यह निर्णय दिया कि महाराजश्रीका पक्ष ही शास्त्र-सम्मत है । मालवीयजी अपनी बात देश-काल-परिस्थितिके अनुसार कहते हैं । उस समय सर्वप्रथम ही सर्वसाधारण समाजको महाराजश्रीका परिचय हुआ और वे जनता-जनार्दनके प्रकाशमें आए ।

साधना

उस घटनाके पश्चात्, कुछ दिन महाराजने वृंदावनमें निवास किया । वहां उन्होंने निराहार रहकर स्वान्तः सुखाय श्रीमद्भागवत-सप्ताहका पाठ किया । उन दिनों वे सप्ताहमें एक बार कर (हाथ)- द्वारा  दूधकी भिक्षा मांगते । दूसरे सप्ताह पुनः पाठ आरंभ कर देते । इस प्रकार अनेक दिनोंतक यह कार्यक्रम चलता रहा ।

एक बार किसी प्रसंगवश महाराजने मुझे बताया कि वे भीषण जाडेके समय पौष मासकी अर्धरात्रिमें निर्वस्त्र ही केवल एक लंगोटी धारणकर साधना करने बैठ जाते थे और संपूर्ण रात्रि साधनामें लगे रहते थे । इसके अतिरिक्त विविध प्रकारकी यौगिक क्रियाएं भी महाराजने संपन्न की । खेचरी आदि यौगिक क्रियाएं, जिनमें जिह्वा काटनेकी क्रिया एवं इन्द्रियद्वारा पारा खींचनेकी भी क्रिया होती है, ये सब महाराजने की । मैंने एक बार महाराजजीसे पूछा – ‘‘महाराज, ये सब आपने क्यों किया ?’’ महाराजने उत्तर दिया – ‘‘कुतूहलवश हमने यह सब करके देखा कि इन सबमें कौन-सा तत्व है ।’’ इस प्रकार महाराजश्रीने प्रायः संपूर्ण यौगिक क्रियाएं तथा हठयोगकी साधना पूरी की ।

गुरुप्राप्ति

महाराजने प्रारंभमें विद्वत संन्यास लिया था । पश्चात् विद्वानोंकी सभामें इस विषयमें विचार-विमर्श किया गया और  निर्णय हुआ कि शास्त्रानुसार संन्यास ग्रहण करनेके लिए दण्ड आदि धारणकर लिङ्ग-संन्यास लेना चाहिए । महाराजने तत्कालीन ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वतीजीसे दण्ड ग्रहण किया । ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी ब्रह्मानन्दजी भी करपात्रस्वामी जैसे योग्य शिष्यको पाकर कृतकृत्य हो गए । उन्होंने निर्णय लिया कि मेरे बाद उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठ-शंकराचार्यके पदपर स्वामी करपात्रजीको ही अभिषिक्त किया जाएगा ।

धर्मप्रसार

महान संत विश्ववंद्य, धर्मसम्राट, श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य, परमवीतराग, यतिचक्रचूडामणि अनंत श्रीविभूषित, दण्डी संन्यासी, श्रीहरिहरानन्द सरस्वती स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज हैं । प्रश्न चाहे वर्णाश्रम मर्यादा संरक्षणका हो अथवा शाश्वत सनातन धर्मके सत्य सिद्धान्तोंके संस्थापनका हो, वैदिक संस्कृतिके प्रचार-प्रसारमें उन्होंने अपना सर्वस्व लगा दिया । पराधीन भारतमें जन-जनमें राजनीतिक चेतना जागृत करनेका कार्य तो अनेक कर्मनिष्ठ नेताओंने किया, किंतु विपरीत गति, कलुषित वातावरण एवं अल्पसहयोगमें भी धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, मंदिर, गौ, ब्राह्मण, यज्ञ एवं आस्तिकवादके रक्षणार्थ जन- साधारणमें व्यापक प्रचार करनेके गुरुतर कार्यका संपादन यदि किसीने किया है, तो वे हैं एक मात्र शिवावतार श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज । अतः जिसे अनादि अपौरुषेय वेदोंका दर्शन करना हो, जिसे वेदादि सत्शास्त्रों एवं पुराण, स्मृति, आदिका मूर्त रूप देखना हो,  उसे एक ही व्यक्तिमें यह सर्व दर्शन हो सकता है और वे हैं श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज । महाराजश्रीकी अध्यापनकला भी अनोखी थी । जब वे शास्त्रीय विषयका प्रतिपादन करते थे, तो शिष्यगणोंके चित्तमें वह  सर्वदाके लिए अंकित हो जाता था, जो भुलाए भी नहीं भूलता था ।

उनकी चतुः सूत्री –
१. धर्मकी जय हो ।
२. अधर्मका नाश हो ।
३. प्राणियोंमें सद्भावना हो ।
४. विश्वका कल्याण हो ।

सुमेरुपीठकी स्थापना

धर्मप्रचारार्थ देशके चारों कोनोंमें चार पीठोंकी स्थापना आदिशंकराचार्यने की थी । परंतु, शास्त्रोंमें इसके अतिरिक्त सुमेरुपीठका वर्णन भी मिलनेके कारण महाराजश्रीने काशीमें पांचवें पीठ ‘सुमेरुपीठ’की स्थापना की, जिसके शंकराचार्य-पदपर सर्वप्रथम अनंतश्री स्वामी महेश्वरानंद सरस्वतीजी महाराजका प्रयागराजमें अभिषेक किया गया ।

दिनचर्या

स्वामी श्रीकरपात्रीजीकी दिनचर्या भी विलक्षण थी, जिसे उनके भक्तगण भी नहीं जान पाए । वे प्रतिदिन रात्रिमें १ बजे उठ जाते और तत्काल स्नानकर  जप-ध्यान-समाधिमें बैठ जाते । प्रातः ३ बजे शौचादि कृत्योंसे निवृत्त होकर पुनः स्नान करते तथा ३. ३० बजे से ५ बजेतक एकाकी भ्रमण (चार-पांच मिल पैदल घूमना) करते । भ्रमणके समय आगमोक्त स्तोत्र-पाठ तथा जप चलता रहता । प्रातः ५ बजेसे ८ बजेतक पूजन-अर्चनकी क्रिया सम्पन्न होती । उनका यह कार्यक्रम नित्य नियमित रूपसे चलता रहता । यहांतक कि यात्रामें भी वे इस कार्यक्रमका निर्वाह पूरी तत्परतासे करते । महाराजकी यात्रा लोहगामीrसे नहीं होती थी । वे मोटरकारसे ही यात्रा करते थे । रात्रिमें गाडी तबतक चलती, जबतक उनका शयन चलता रहता । रात्रिमें १ बजे गाडी रोक दी जाती और वे अपने दैनिक कृत्योंमें व्यस्त हो जाते । महाराजकी पूजा-अर्चा प्रतिदिन ३ बार होती थी । प्रातः कालीन पूजा प्रायः एकाकी करते थे । मध्याह्नकालीन पूजा दिनमें लगभग १२ बजे तथा सायंकालीन पूजा रात्रिमें ७.३० से ९.३० बजेतक चलती । दोपहर और रात्रिका पूजन सर्वसाधारण भक्तजनोंके मध्य होता । प्रातः ८ से १२ तक तथा सायं ६ से ७.३० के मध्य सर्वसाधारणसे मिलने-जुलने तथा पठन-पाठन, स्वाध्याय और लेखन आदि कार्य होता ।

चौबीस घंटेमें एक बार सायंकाल लगभग ५ बजे सूर्यास्तके पूर्व महाराजकी भिक्षा होती थी, जिसमें नमक और चीनीका प्रयोग वर्जित होता था । गोदुग्ध  उपलब्ध होनेपर भिक्षाके साथ एक बार ही लेते । यह बात प्रसिद्ध थी कि महाराजको भिक्षा ग्रहण करनेमें समय नहीं लगता था, ३ अथवा ५ पलमें ही उनकी भिक्षा समाप्त हो जाती थी । जो समय लगता था, वह केवल भगवानका भोग लगानेमें ही लगता था । प्रातः, रात्रि तथा अन्य समयमें एक बार भिक्षा ग्रहण कर लेनेके पश्चात् वे फल इत्यादि भी ग्रहण नहीं करते थे । अवश्यकता पडनेपर औषधि अथवा उससे संबंधित अनुपानके पदार्थ आदि ही स्वीकारते थे ।

परिपक्व वैराग्य

ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर सभी ऋतुओंमें वे प्रायः एक ही चादर ओढकर सोते थे ।

निर्जला एकादशी-व्रत

महाराजजी नियमके अटल थे । प्रत्येक एकादशीको उनका निर्जल व्रत रहता था । मार्गमें या कहीं भी भीषण-से-भीषण ग्रीष्मकाल अथवा आपत्कालमें भी वे एकादशीको जल ग्रहण नहीं करते थे ।

सनातनधर्म-विजय-महोत्सव

स्वामी दयानन्द सरस्वतीके निर्वाणको १०० वर्ष पूरे होनेपर आर्यसमाजने उनका शताब्दी समारोह मनाया और यह घोषणा की कि स्वामी दयानन्दके अनुयायी आर्यसमाजी विद्वान् शास्त्रार्थमें, दिग्दिगन्तमें विजय-यात्रा करते हुए पधार रहे हैं । यहां ये अवतारवाद, मूर्तिपूजा और श्राद्धादि रूढियोंका खण्डन करेंगे । जो चाहे उनसे शास्त्रशास्त्रार्थ कर सकता है । महाराजश्री इस आह्वानको कब सहन कर सकते थे । उन्होंने तुरंत इस आह्वानको स्वीकार करते हुए कहा,  ‘धार्मिक क्षेत्रमें भी पंचशीलका सिद्धांत माना जाना चाहिए । अपनी-अपनी आस्था-मान्यता और विश्वासके अनुसार सबको अपने धार्मिक कृत्य सम्पन्न करनेका अधिकार है ।

परंतु किसीके धर्ममें हस्तक्षेप और आक्रमण कभी सहन नहीं किया जा सकता । अतः उसका प्रतिकार किया जाएगा ।’ इस सिद्धांतकी रक्षाके लिए उन्होंने शास्त्रस्त्रार्थ भी करना स्वीकार किया ।

महाराजजीका यह स्वभाव था कि वे शास्त्रशास्त्रके विरुद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे । कोई कितना भी निकटतम व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह शास्त्रशास्त्रीय सिद्धातोंके विरुद्ध कुछ कहता है अथवा लिखता है, तो महाराज तत्काल उसका खण्डन करते और उस बातका युक्ति और तर्कसहित शास्त्रशास्त्रके पक्षमें उत्तर देते थे ।

आक्षेपोंके (शंकाओं, आपत्तियोंके) समाधानार्थ ग्रन्थ रचना

कुछ व्यासगणोंने एक बार महाराजश्रीको कामिल बुल्केकी लिखी ‘रामकथा’ लाकर दी तथा कामिल बुल्केद्वारा विभिन्न रामायणोंका संदर्भ देकर भगवान् राम और भगवती सीतापर जो आक्षेप किए गए थे, उस ओर ध्यान आकृष्ट किया । तब महाराजजीने तत्काल उन सभी आक्षेपोंका उत्तर लिखा तथा जिन रामायण ग्रंथोंका संदर्भ बुल्केने दिया था, उन सभी ग्रंथोंको देखकर रामायणसे संबाधित जो भी शंकाएं  थीं, उन सबका निराकरण एवं समाधान ‘रामायण-मिमांसा’ नामक ग्रंथ लिखकर किया । इसी प्रकार आचार्य रजनीशकी ‘संभोगसे समाधिकी ओर’ तथा ‘समाजवाद और पूंजीवाद’ पुस्तक किसीने महाराजको लाकर दी । महाराजजीने उन्हें पढा और तत्काल उसका उत्तर लिखे बिना नहीं रह सके । शास्त्रशास्त्रीय सिद्धांतोंके विपरीत देशभक्ति, राष्ट्रवाद, और राजनीतिसे सम्बन्धित विचारधाराओंका खण्डन किए बिना महाराज रह नहीं सकते थे । इस सम्बधमें स्वातंत्रवीर सावरकर तथा गुरु गोलवलकरजीके विचारोंका खंडन महाराजश्रीने ‘विचारपीयूष’ नामक ग्रंथ लिखकर किया  ।

मेरा नहीं, रामका चित्र चाहिए

महाराजद्वारा रचित ‘रामायण-मिमांसा’ पुस्तकके प्रकाशनका दायित्व एक शिष्यपर था । पुस्तक लगभग छप चुकी थी । परंतु आवरण आदि बांधना शेष था । महाराजने एक दिन उससे पूछा कि इस पुस्तकके प्रकाशनमें विलंब क्यों हो रहा है ? उसने उत्तर दिया, ‘महाराज, कुछ लोगोंकी भावना है कि इस ग्रंथमें आपका भी एक चित्र होना चाहिए । चित्र बननेमें कुछ विलम्ब होनेके कारण पुस्तक प्रकाशनमें विलंब हो रहा है ।’ यह सुनकर महाराज कुछ विचलितसे हुए और तत्काल कहा,  ‘‘सावधान! इस विषयमें मैं जैसा कहूं, वैसा ही करना, दूसरोंका कहा नहीं करना । यदि चित्र देना ही है, तो भगवान् रामका पञ्चायतन चित्र देना, मेरा नहीं ।’’

विदेश-यात्राके संबन्धमें महाराज यह कहते कि आज तो पण्डित और सनातनधर्मी प्रायः सभी विदेश यात्रा करते हैं । मैं किसे मना करूं । अपनी मानसिक-दुर्बलताके कारण शास्त्रके विपरीत कोई व्यक्ति आचरण कर सकता है । परंतु वह यदि अपने इस कृत्यको शास्त्रसम्मत सिद्ध करनेकी चेष्टा करता है, तो यह घोर अन्याय है । सत्पुरुषोंको प्रामाणिकतासे अपनी मानसिक-दुर्बलताको स्वीकारते हुए शास्त्रका यथार्थ प्रतिपादन इस प्रकारसे करना चाहिए, जिससे आनेवाली पीढियोंको शास्त्रके वास्तविक अर्थको समझनेमें भ्रम न रह जाए । महाराजश्रीने तत्काल विदेश-यात्रापर कई लेख लिखे, जिसमें शास्त्रीय दृष्टिसे विदेश-यात्राके निषेधका प्रतिपादन किया गया ।

मंदिर-मर्यादाका संरक्षण तथा श्रीकाशी-विश्वनाथकी स्थापना

मंदिर-प्रवेशके संबन्धमें भी महाराजका मत स्पष्ट था । वे हरिजनोंके हृदयसे हितचिन्तक थे । एक बार कानपुरमें ‘अखिल भारतवर्षीय धर्मसंघ’का महाधिवेशन चल रहा था । उत्तर प्रदेशके बाबू सम्पूर्णानंदजी वहां पधारे । महाराजश्री भी वहां उपस्थित थे । सम्पूर्णानंदजीने अपने भाषणमें हरिजन-प्रवेशकी चर्चा की । उनके भाषणके उपरांत महाराजने बडे युक्तिपूर्वक ढंगसे उनके सभी प्रश्नोंका उत्तर दिया और कहा कि हमारे शास्त्र सम्पूर्ण जीवोंके कल्याणका ऐसा उपाय बताते हैं तथा अधिकारानुसार कर्तव्यका निर्देश करते हैं, जिससे वास्तविक कल्याण हो ।

साधुको स्वावलम्बी होना चाहिए

साधुके लिए कलंक किसी संदर्भमें महाराजजीने कहा कि कभी-कभी साधुके पुस्तकोमें, तकियोंमें तथा बिछावन आदिमें रुपए-पैसे मिलते हैं । यह साधुके लिए कलंक है ।

भगवद्बुद्धि भगवान् की पूजाका अमोघ साधन

बातचीतके क्रममें एक बार महाराजने बताया कि हमारे धर्मशास्त्रोंमें मनुष्यके कल्याणके लिए भगवत्सेवा, आराधना जैसी पूजाकी बडी सरल विधियोंका प्रतिपादन किया गया है । घरमें पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पौत्र, और बन्धु-बान्धवोंमें मनुष्यका स्वाभाविक स्नेह-प्रेम होता ही है तथा मोह-ममताके वशीभूत होकर उनकी सेवा-अर्चा भी करनी पडती है । यदि हम उन पारिवारिक सदस्योंमें मोह-ममताके स्थानपर भगवद्बुद्धि कर लें, वृद्ध माता-पिताको माता अन्नपूर्णा एवं भगवान् विश्वनाथका स्वरूप मान लें, पतिको परमेश्वर, पुत्रको मदनमोहन, श्यामसुंदर, लाडले पौत्रको लड्डुगोपाल, पुत्रवधूको राधारानी, कुमारी कन्याके प्रति भगवती जगदम्बा, इस प्रकारकी भावना बना लें,  तो पारिवारिक जनोंके निमित्त किए गए सभी कार्य अपनेआप ही भगवान्की पूजामें परिवर्तित हो सकते हैं ।

महाराजश्रीने कहा कि ‘जब पत्थरकी मूर्तियोंमें भगवान्की पूजा हो सकती है, तो सचल-सजीव स्नेही जनोंमें भगवद्भाव हो जाए, तो भगवान्की पूजा क्यों नहीं हो सकती ।’

अतिथि-सत्कार मुख्य धर्म

एक बार महाराजको हॉइड्रोसीलकी शल्यक्रिया करानेकी स्थिति आई  । शल्यचिकित्सक सूई देकर स्थान शून्य करना चाहते थे; परंतु महाराजने बिना सूई तथा बिना औषधिके (विषमचिकित्साके)ही शल्यक्रिया कराना स्वीकार किया । यह शस्त्रक्रिया महाराजश्रीकी आत्मशक्तिके आधारपर ही सम्पन्न हो सकी । शल्यचिकित्सक भी महाराजकी नियम-प्रतिबद्धता और आत्मशक्तिको देखकर चकित थे । शल्याक्रियाके समय उन्हें जो अनुभव हुआ, उसे महाराजने एक प्रसंगपर बताया था ।

भारतीय संस्कृति और सनातनधर्मको समझनेके लिए कोई एक ऐसा ग्रन्थ होना चाहिए, जिसे पढकर सनातनधर्मकी सम्पूर्ण  बातोंकी जानकारी हो जाए । यह सुनकर महाराजश्रीने तत्काल उत्तर दिया कि यदि भारतीय संस्कृति और सनातनधर्मकी पूर्ण जानकारीके लिए कोई एक ही ग्रन्थ पढना चाहे, तो वह गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीकी रामचरितमानस पढे । एक दिन उपरांत माघ शुक्ल त्रयोदशी रविवारको प्रातः लगभग ८ से ९ बजेके मध्य महाराजश्री स्नान-पूजासे निवृत्त होकर केदारघाट-स्थित भवनमें ऊपरी मालेके अपने पूजा कक्षमें बैठे दुर्गासप्तशतीका पाठ सुन रहे थे । उसी समय अनायास बिना किसी पूर्वाभासके महाराजश्री अपने नश्वर शरीरका परित्याग कर ब्रम्हलीन हो गए । महाराजजीने किसी समय कहा था कि ‘संत-महात्माओंको शरीर एकान्तमें छोडना चाहिए, जहां कोई न हो ।’ ऐसा लगा कि महाराजकी अन्तिम समयकी यह इच्छा भी पूरी हो गयी । कारण, उस समय कक्षमें पाठकर्ताके अतिरिक्त  कोई नहीं था ।

यह प्रतीत होता था कि महाराजश्रीके जीवनका सम्पूर्ण कार्य योजनाबद्ध था । गृहस्थीके उपरांत तपोमय साधनामय जीवन, धर्मसंघकी स्थापना, यज्ञ-युगका प्रारम्भ, सर्ववेद-शाखा-सम्मेलन, धार्मिक महाधिवेशन, रामराज्य-परिषदके द्वारा राजनीतिमें प्रवेश, हिंदु कोड बिलका प्रबल विरोध तथा गो-हत्या-बंदी आंदोलनका संचालन आदि संपूर्ण कार्य महाराजश्रीके द्वारा सार्वजनिक जीवनमें सम्पन्न हुए । देशमें धार्मिक जगत्की महान् विभूतियोंको एक मंचपर लानेका श्रेय महाराजश्रीको ही है ।

उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघके सर संघ-संचालक श्री. माधवराव सदाशिव गोलवलकरजी भी स्वामीजीसे मिले । उनकी यह भावना थी कि हिंदु संगठनको सुदृढ करनेकी दृष्टिसे हिंदु जगत्के सभी नेता एक मंचपर आएं तथा स्वामीजी महाराजका आशीर्वाद जनसंघको प्राप्त होता रहे । परंतु, वर्णाश्रम-व्यवस्था और मर्यादाके विपरीत राजनीति महाराजश्रीको स्वीकार नहीं थी । वे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामके रामराज्यके अनुसार शास्त्रीय विधिसे भारतमें राज्यशासन-संचालनके पक्षधर थे और इसीमें वे जगत्का कल्याण मानते थे । अतः इस संदर्भमें कोई समझौता होना सम्भव नहीं था ।

जीवनके उत्तरार्धमें महाराजश्रीने धर्मके बहिर्मुखी कार्योंसे स्वयंको समेटना प्रारम्भ कर दिया । अब महाराजश्रीकी रुचि लेखन-कार्यकी ओर अधिक हो गयी । महाराजश्रीने वेदपर भाष्य लिखना प्रारम्भ किया । सर्वप्रथम ‘वेद-भाष्य-भूमिका’ नामक एक बृहद ग्रन्थकी रचना महाराजके द्वारा हुई । जिसमें लगभग एक सहस्रपृठ हैं । इस ग्रन्थमें महाराजने वेदोंसे सम्बन्धित अबतकके सभी आरोपोंका एवं आर्यसमाजके प्रवर्तक स्वामी दयानंदके संपूर्ण आक्षेपोंका निराकरण करते हुए प्राचीन ऋषि-महर्षि-प्रणीत परम्परागत सिद्धान्तोंका एक बडे समारोहमें प्रतिपादन किया । इस ग्रंथका विमोचन काशी संस्कृत विद्यापीठ में वहांके कुलपति काशिराज डॉ. विभूतिनारायण सिंहके करकमलोंसे सम्पन्न हुआ । श्री. राधाकृष्ण धानुका प्रकाशन-संस्थानकी ओरसे इस ग्रंथका प्रकाशन हुआ । तदनन्तर महाराजश्रीने सम्पूर्ण शुक्ल यजुर्वेदपर भाष्य-टीकाका प्रणयन किया । ऋग्वेदपर भाष्य लिखा ।

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