भगवान दत्तात्रेय के जन्म का इतिहास एवं कुछ नाम

सारिणी


इस लेख में हम भगवान दत्तात्रेय के बारे में ज्ञान प्राप्त करेंगे जिनको श्री गुरुदेव दत्त और दत्त गुरु के नाम से भी जाना जाता है ।

१. श्री दत्तात्रेय देवता के नाम व उनके अर्थ

अ. दत्त

‘दत्त’ अर्थात वह जिसे (निर्गुण की अनुभूति) प्रदान की गई हो कि ‘वह स्वयं ब्रह्म ही है, मुक्त है, आत्मा है । जन्म से ही दत्त को निर्गुण की अनुभूति थी, जबकि साधकों को ऐसी अनुभूति होने के लिए अनेक जन्म साधना करनी पडती है । इससे दत्तात्रेय देवता का महत्त्व ध्यान में आता है ।

आ. अवधूत

१. अवधूत शब्द की उत्पत्ति और उसके कुछ अर्थ

अ. जो निरंतर आनंद का अनुभव करता है (परमानंद) (आनंदे वर्तते नित्यम ।)

आ.  जो निरंतर वर्तमान में रहता है (वर्तमानेन वर्तते ।)

इ. जिसका अज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा हर लिया गया है और जो सब को मुक्ति प्रदान करता है । (ज्ञाननिर्धूत वल्याण: ।)

ई. जो अज्ञान को निरपेक्ष सिद्धांत पर ध्यान द्वारा नष्ट करता है । (तत्त्वचिन्तनधूत येन ।)

२. अवधूतोपनिषद् में अवधूत का वर्णन इस प्रकार किया गया है ।

अ. यह शब्दांश अक्षरत्व को संबोधित करता है । अवधूत वह है जिसे अक्षरब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है । अक्षरत्व का अर्थ सफलता पूर्वक किसी कार्य को पूरा करने की क्षमता है ।

आ. इस शब्द की उत्पत्ति वरेण्यत्व शब्द से हुई जिसका अर्थ संपूर्णता अथवा महानता का शिखर है ।

इ. यह उसको संदर्भित करता है जो सभी प्रकार के बंधन से परे है, मुक्त है और जो बिना किसी उपाधि अथवा प्रतिबंध के कार्य  करता है ।

इ. तत्त्वमसि’ यह अमर वचन का प्रतिनिधित्व करता है । जिसका अर्थ है, ‘आप वह सिद्धांत हैं ।’
संक्षेप में, अवधूत की उपाधि उस महान संत को दी जाती है जो आत्मज्ञान में तल्लीन रहता है ।

३. सर्वान् प्रकृतिविकारान् अवधुनोतीत्यवधूतः ।

अर्थ : गोरक्षनाथ द्वारा लिखित पवित्र ग्रंथ सिद्धसिद्धान्तपद्धति में किए गए वर्णन के अनुसार अवधूत वह है जो सत्त्व, रज एवं तम को शुद्ध अथवा नष्ट कर देता है ।

४. भगवान दत्तात्रेय के भक्त ‘‘अवधूत चिन्तन श्री गुरुदेव दत्त ।’’ का उद्घोष करते हैं ।

अर्थ : अवधूत एक भक्त है । श्री गुरुदेव दत्त भक्तों के चिंतन में सदा तल्लीन रहते हैं, अर्थात वे भक्तों के शुभचिंतक हैं ।

इ. भगवान दत्तात्रेय

यह शब्द दत्त – आत्रेय, इस प्रकार बना है । ‘दत्त’ का अर्थ पहले ऊपर बताया जा चुका है । आत्रेय अर्थात अत्रि ऋषि के पुत्र ।

ई. दिगंबर

‘दिक् एवं अम्बरः ।’ दिक् अर्थात दिशाएं ही जिसका अंबर (वस्त्र) है, वह दिगंबर । अर्थात इतना विशाल, सर्वव्यापी ।

उ. श्रीपाद

‘श्री’ भगवान का कभी समाप्त न होनेवाला तत्त्व है । यह तत्त्व  एक सन्निहित आत्मा को भगवान के तत्त्व की ओर अर्थात ‘श्री’ तत्त्व के पवित्र चरणों की ओर लेकर जाता है । श्रीपाद में श्री तत्त्व ही भगवन दत्त का तत्त्व है ।

ऊ. वल्लभ

वल्लभ के रूप में श्री दत्त तत्त्व परिपत्र के आकार की नकारात्मक ऊर्जा से ब्रह्मांड की रक्षा करता जो भय की मनोविकृति उत्पन्न करती है और इस तरह सन्निहित आत्माको सुरक्षा करता है । – (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ ।

२. दत्त देवता के जन्म का इतिहास

पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि दत्त का जन्म वर्तमान मन्वंतर के आरंभ में प्रथम पर्याय के त्रेता युग में हुआ ।

पुराणों के अनुसार

अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया महापतिव्रता थी, जिसके कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने निश्चय किया कि उनकी पतिव्रता की परीक्षा लेंगे । एक बार अत्रि ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए हुए थे, तब अतिथि के वेश में त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश) पधारे एवं उन्होंने अनसूया से भोजन मांगा । अनसूया ने कहा, ‘ऋषि अनुष्ठान के लिए बाहर गए हैं, उनके आने तक आप प्रतीक्षा करें ।’ त्रिमूर्ति अनसूया से बोले, ‘‘ऋषि को आने में समय लगेगा, हमें बहुत भूख लगी है । तुरंत भोजन दो, अन्यथा हम कहीं और चले जाएंगे । हमने सुना है कि आप आश्रम में पधारे अथितियों को इच्छित भोजन देते हैं, इसलिए हम इच्छा भोजन करने आए हैं ।’’ अनसूया ने उनका स्वागत किया और बैठने की विनती की । वे भोजन करने बैठे । जब अनसूया भोजन परोसने लगी तब वे बोले, ‘‘हमारी इच्छा है कि तुम निर्वस्त्र होकर हमें परोसो ।’’ इस पर उसने सोचा, ‘अतिथि को बिना भोजन कराए भेजना अनुचित होगा । मेरा मन निर्मल है । मेरे पति का तपफल मुझे तारेगा ।’ ऐसा विचार कर उसने अतिथियों से कहा, ‘‘अच्छा ! आप भोजन करने बैठें ।’’ तत्पश्चात् रसोईघर में जाकर पति का ध्यान कर उसने मन में भाव रखा, ‘अतिथि मेरे शिशु हैं’ । आकर देखती हैं, तो वहां अतिथियों के स्थान पर रोते-बिलखते तीन बालक थे ! उन्हें गोद में लेकर उसने स्तनपान कराया एवं तब बालकों का रोना रुक गया । इतने में अत्रि ऋषि आए । अनसुया ने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया । उसने कहा, ‘‘स्वामिन् देवेन दत्तम् ।’’ अर्थात – ‘हे स्वामी, भगवान द्वारा प्रदत्त (बालक) ।’ इस आधार पर अत्रि ऋषि ने उन बालकों का नामकरण ‘दत्त’ किया । अंतर्ज्ञान से ऋषि अत्रि बालकों का वास्तविक रूप पहचान गए और उन्हें नमस्कार किया । बालक पालने में रहे एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनके सामने आकर खडे हो गए और प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने के लिए कहा । अत्रि एवं अनुसूया ने वर मांगा, ‘ये बालक हमारे घर पर रहें ।’   वर देकर देवता अपने लोक चले गए । आगे ब्रह्मदेवता से चंद्र, श्री विष्णु से दत्त एवं शंकर से दुर्वासा हुए । तीनों में से चंद्र एवं दुर्वासा तप करने की आज्ञा लेकर क्रमशः चंद्र लोक एवं तीर्थ क्षेत्र चले गए । तीसरे, दत्त विष्णु कार्य के लिए भूतल पर रहे । यही है गुरु का मूल पीठ ।

अध्यात्मशास्त्रानुसार

‘अ’, अर्थात `नहीं ’ (अ, यह नकारार्थी अव्यय है ।) और ‘त्रि’, अर्थात `त्रिपुटी’; इस प्रकार अत्रि, अर्थात जागृति-स्वप्न-सुषुप्ति, सत्त्व-रज-तम और ध्याता-ध्येय-ध्यान समान त्रिपुटी जिसमें नहीं है, ऐसे अत्रि की बुद्धि, असूया रहित अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह एवं मत्सर इन षड्रिपुओें से रहित होती है । इस अवस्था को ही ‘अनसूया’ कहा गया है । ऐसे शुद्ध बुद्धि-युक्त ऋषि के संकल्प से ही दत्तात्रेय का जन्म हुआ है ।

३. भगवान दत्तात्रेय के अवतार

ऐतिहासिक युग में, दत्त देवता के तीन अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ, श्री  नृसिंहसरस्वती और मणिकप्रभु हुए । श्रीपाद श्रीवल्लभ भगवान दत्तात्रेय  के पहले अवतार थे । श्री नृसिंह सरस्वती उनके दूसरे और मणिकप्रभु तीसरे अवतार थे । चौथे अवतार श्री स्वामी समर्थ थे । यह चार पूर्ण अवतार हैं और इनके अतिरिक्त कई आंशिक अवतार भी हैं । श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेम्बेस्वामी) उनमें से एक हैं । जैन नेमिनाथ के रूप में दत्तात्रेय की पूजा करते हैं ।

४. भगवान दत्तात्रेय के परिवार का निहित अर्थ

यदि आप भगवान दत्तात्रेय के रूप को ध्यानपूर्वक देखें तो आप उन्हें कभी भी अकेला नहीं  पाएंगे । उनके पीछे एक गाय और आसपास चार कुत्ते देखे जा सकते हैं । हम यह भी देखते हैं कि भगवान दत्तात्रेय एक विशाल उदुंबर (गूलर) के वृक्ष के नीचे खडे हैं । अब हम इन तीन पहलुओं के बारे में समझते हैं ।

अ. गाय (पीछे की ओर खडी) : पृथ्वी एवं कामधेनु (इच्छित फल देनेवाली)

आ. चार कुत्ते : चार वेद

इ. उदुंबर का (गूलर का) वृक्ष : दत्त का पूजनीय रूप; क्योंकि उसमें दत्ततत्त्व अधिक मात्रा में रहता है ।

संदर्भ : सनातन प्रकाशित ग्रंथ ‘भगवान दत्तात्रेय’

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