कौन-सा अन्न नहीं खाना चाहिए ?

सारणी

१. रात को दही खाना क्यों टालें ?
२. निषिद्ध आहार कौन-से हैं ?
३. बासी अन्न क्यों ग्रहण नहीं करना चाहिए ?
४. जूठा (उच्छिष्ट) अन्न क्यों न ग्रहण न करें ?
५. दूसरे के श्रम से अर्जित अन्न क्यों न खाएं ?
६. अन्य द्वारा अधर्माचरण से अर्जित अन्न (दूषित अन्न) का सेवन क्यों न करें ?


व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही स्वस्थ एवं सुखमय हो, इस हेतु धर्मशास्त्र ने आहार के संदर्भ में कुछ नियम बताए हैं । सभी को घर में पकाया गया भारतीय सात्त्विक भोजन करना चाहिए । यह भोजन पचने में आसान होने के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बना रखने में मदद करता है । आधुनिक भोजन इन बातों की उपेक्षा करता है और तामसिक भोजन को ही बढावा देता है | फास्ट फूड खाने का सबसे बडी हानि यही है कि जो अधिकतर इसप्रकार का तमोगुणी भोजन खाते हैं, उन्हें काली शक्ति द्वारा दिए कष्टों का सामना करना पडता है । इसका कारण यह है कि ऐसा भोजन काली शक्ति को आकर्षित करता है, उसका सेवन करने से उस व्यक्ति को यदि भोजन तमोगुण प्रधान है, तो तमोगुणी विचारों के अधिक संचार से व्यक्ति के मन एवं बुद्धि का संतुलन समाप्त हो जाता है । इस लेख में निषिद्ध आहारसे संबंधित जानकारी प्रस्तुत है ।

१. रात को दही खाना क्यों टालें ?

‘अलक्ष्मीदोषयुक्तत्वात् रात्रौ च दधि र्गिहतम् ।’,
अर्थात ‘रात में भोजन के समय दही विशेष रूप से वर्जित करें अन्यथा बुद्धि नाश होकर अलक्ष्मी दोष लगता है ।’

अध्यात्मशास्त्र – दही रजोगुणी है, अतः उसे रात में खाने पर अनिष्ट शक्तियों की पीडा की आशंका होना ! ‘रात तमोगुणी है । तमोगुणी काल में अनिष्ट शक्तियों के संचार की प्रबलता रहती है । इस काल में दही खाने पर देह रजोगुण से प्रभारित होती है तथा रात को वायुमंडल में संचार करने वाली अनिष्ट शक्तियों के स्पर्शात्मक तरंगों के कार्य के प्रति अति संवेदनशील बन जाती है । इससे जीव को अनिष्ट शक्तियों की पीडा होने की आशंका रहती है; अतः रात में दही खाना टालें ।’

२. निषिद्ध आहार कौन-से हैं ?

अ. तामसी अन्न

‘सडे, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी, जूठे और यज्ञ के लिए अयोग्य अन्न तामसी होते हैं ।

आ. मांसाहार

मांसाहार के कारण रज और तम गुणों की वृद्धि होती है । मांसाहार के कारण साधक को हिंसादोष लगता है ।

इ. प्याज और लहसुन

ये पदार्थ कामोत्तेजक हैं तथा मनुष्य की प्राणशक्ति को क्षीण करते हैं ।

लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च । अभक्ष्याणि द्विजातीनाम् अमेध्यप्रभवाणि च ।।
– मनुस्मृति, अध्याय ५, श्लोक ५

अर्थ : द्विजों को लहसुन, गाजर, प्याज, मशरूम और अशुद्ध स्थानों पर उगा अन्न नहीं खाना चाहिए । ‘अमेध्य प्रभव’ अर्थात अपवित्र पदार्थों से अथवा प्रदेश में जिनकी उत्पत्ति होती है, उन पदार्थों को ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिए अभक्ष्य कहा है । ‘पुरुषों को प्याज और लहसुन ग्रहण नहीं करना चाहिए; ऐसे में स्त्री को पुरुष के समीप जाने का मन नहीं करता ।’

ई. निषिद्ध आहार के कुछ अन्य उदाहरण

  • खट्टा हो चुका अन्न

  • थूके गए, थूक में पडे हुए तथा कृतघ्न व्यक्ति का अन्न

  • कुत्ते द्वारा स्पर्श किया अन्न

  • रजस्वला द्वारा स्पर्श किया अन्न

  • मृत व्यक्ति के निमित्त पकाया गया अन्न

  • सूतक तथा जनन-आशौच (घर में संतान होने अथवा मृत्यु के पश्चात) के दस दिनों का अन्न

  • पत्नी की आज्ञा में रहने वाले व्यक्ति का अन्न

  • वेश्या के घर का अन्न

  • नपुंसक, व्यभिचारिणी तथा अपराधियों का अन्न एवं

  • जिसे पत्नी का व्यभिचार सहन होता है, उस व्यक्ति का अन्न

  • कौआ अथवा अन्य पक्षियों द्वारा खाया हुआ अन्न

  • कुत्ते की दृष्टि पडा हुआ अथवा उसके द्वारा स्पर्श किया हुआ अन्न

  • चार दिन मासिक धर्म का पालन न करने वाली स्त्री की दृष्टि पडा हुआ अन्न व

  • भ्रूूणहत्या करने वाले की विषैली दृष्टि से प्रभावित अथवा चांडाल (डोम अर्थात शव को जलानेवाले) की दृष्टि से दूषित हुआ अन्न

भ्रूणघ्नावेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्युदक्यया । पतत्रिणावलीढं च शुना संस्पृष्टमेव च ।।
– मनुस्मृति, अध्याय ४, श्लोक २०८

अर्थ : भ्रूणहत्या करने वाले द्वारा देखा हुआ, रजस्वला द्वारा स्पर्श किया, पक्षियों द्वारा चोंच लगाया हुआ और कुत्ते द्वारा स्पर्श किया अन्न न खाएं । भगवान मनु कहते हैं, ‘भ्रूणहत्या करने वाले की विषैली दृष्टि पडा अन्न कण भर भी नहीं खाना चाहिए। भूखा रहना पडे, तो भी चांडाल की दृष्टि से दूषित अन्न न खाएं ।’

अध्यात्मशास्त्र – रज-तमप्रधान जीवों की दृष्टि पडा अथवा स्पर्श अन्न खाने पर देह में प्रविष्ट विशिष्ट स्तर की रज-तमात्मक तरंगों से शारीरिक और मानसिक स्तरों पर अनेक प्रकार के कष्ट होना

‘उपर्युक्त सर्व घटक (पक्षी, प्राणी और व्यक्ति) मूलतः रज-तम प्रधान होते हैं अथवा विशिष्ट रज-तम प्रधान कर्म युक्तक्रिया से उत्पन्न अशुद्ध तरंगों से प्रभारित होते हैं । ऐसे जीवों के नेत्रों से तथा उनकी देह के माध्यम से वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगें प्रक्षेपित होती रहती हैं । जिस समय अन्न पर ऐसे जीवों की दृष्टि पडती है अथवा उनका स्पर्श होता है, उस समय उसमें ये सूक्ष्म कष्टदायक तरंगें संक्रमित होती हैं । इन संक्रमित तरंगों का आश्रय लेकर वायुमंडल में संचार करने वाली अनिष्ट शक्तियां इस प्रकार के अन्न पर आक्रमण करती हैं, जिससे उसे खाने पर शरीर में विशिष्ट स्तर की रज-तमात्मक तरंगें प्रवेश कर शारीरिक और मानसिक स्तरों पर अनेक प्रकार के कष्ट दे सकती हैं । इन तरंगों के प्रादुर्भाव से स्थूलदेह और मनोदेह, दोनों ही अशुद्ध बनते हैं । सत्त्वगुण के ह्रास को ‘अशुद्धता’ कहते हैं तथा सत्त्वगुण के संवर्धन को ‘शुद्धता’ ।’ ‘पापी, चांडाल, मद्यपी अथवा मांसाहारी व्यक्ति द्वारा स्पर्श किया अन्न निषिद्ध है । सुश्रुत के कथन अनुसार ‘ऐसे लोगों के श्वास के संपर्क मात्र से भी रोग होते हैं ।’

शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ।
– पातञ्जलयोगदर्शन, साधनपाद, सूत्र ४०

अर्थ : शुचिता का आचरण करने से स्वयं की मलिनता के विषय में घृणा उत्पन्न होती है और अपवित्र लोगों से संसर्ग न रखने की वृत्ति को बल मिलता है ।’

हिन्दू धर्म में प्राचीन ऋषियों ने सूक्ष्म स्पंदनों का विचार कर मानव के लिए उचित आचार युक्त नियम और बंधन बनाकर एक प्रकार से उसे शुद्धता का वरदान ही दिया है । उपर्युक्त सर्व घटक (व्यक्ति) मूलतः अपने कर्मों से रज-तमयुक्त धारणा के लिए उत्तरदायी होते हैं । ऐसे कष्टदायक व्यक्तियों द्वारा स्पर्श किया अशुद्ध अन्न खाना, एक प्रकार से अपनी शुद्धता गंवाने समान ही है । इसीलिए इस प्रकार का अन्न-सेवन निषिद्ध माना गया है ।’

  • मद्य, मांस और मलिन पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न कंदमूल और फल; तथा मादक, बुद्धिनाश करने वाले और सडे हुए पदार्थ न खाएं ।

  • हिंसा, चोरी, विश्वासघात, छल, कपट से अर्जित पदार्थ अभक्ष्य हैं ।

३. बासी अन्न क्यों ग्रहण नहीं करना चाहिए ?

आधुनिक चिकित्साशास्त्र कहता है, ‘बासी अन्न ग्रहण न करें’ ।

  • बासी अन्न बहुत समय तक रखा रहता है । इससे वह वायुमंडल की रज-तमात्मक तरंगों के संपर्क में आकर दूषित हो जाता है ।

  • अन्न बासी होने पर उसके जीवनसत्व एवं प्राणशक्ति नष्ट हो जाती है और वह सात्त्विक नहीं रहता इस प्रकार के अन्न में आकर्षण शक्ति निर्मित होती है, जिससे वह वातावरण से काली शक्ति को अपने में आकर्षित करता है और फिर यह काली शक्ति अन्न में ही संचित हो जाती है।

  • प्रशीतक (फ्रिज) से निकालकर पुनः गर्म किए गए बासी अन्न के सेवन से अपच (indigestion) की आशंका रहती है। इससे उसकी चेतना शक्ति घटती है ।

४. जूठा (उच्छिष्ट) अन्न क्यों न ग्रहण न करें ?

        ‘आधुनिक चिकित्साशास्त्र कहता है, ‘अधिकांश रोग दूषित अन्न ग्रहण के कारण होते हैं ।’ आधुनिक पश्चिमी लोग जूठे अन्न के दोष बताते हैं । तब भी, अल्पाहार गृहों में जूठे अन्न का उपयोग किया जाता है । चित्रपटगृह (फिल्म थियेटर), मनोरंजनगृह (क्लब) आदि मनोरंजक स्थानों पर तो थाली का जूठा अन्न लोगों को खिलाया जाता है, जो पाप है । इसका कोई विरोध नहीं करता ।

अ. जूठा अन्न खाने से क्या हानि होती है ?

१. व्यक्ति के जूठे अन्न में उस व्यक्ति की वासना और उसके अंगुलियों के स्पर्श के माध्यम से रज-तम कणों का प्रक्षेपण होता है ।

२. अन्न ग्रहण करते समय अन्न खाने वाले व्यक्ति की वासना उस अन्न पर सूक्ष्मरूप से अंकित हो जाती है । इस कारण जूठे अन्न पर अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण भी अधिक होता है तथा कुछ अनिष्ट शक्तियां जूठा अन्न सूक्ष्म से ग्रहण भी करती हैं ।

आ. जूठा अन्न ग्रहण न करने संबंधी शास्त्र

जिसका जूठा खाया जाता है, उस व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट का संक्रमण, जूठा खानेवाले व्यक्ति की देह में होना संभव : ‘जिस व्यक्ति का जूठा खाया जाता है, उस व्यक्ति की देह में विद्यमान रज-तमात्मक स्पंदन उसके लार का स्पर्श पाकर अन्न के प्रवाहीपन के माध्यम से तीव्र गति से कार्य करते हैं । ऐसा अन्न खानेवाले की देह में भी ये रज-तमात्मक तरंगें तीव्र गति से कार्य करने लगती हैं । इसी प्रकार, उसका जूठा अन्न खानेवाले व्यक्ति की देह में उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कष्ट भी संक्रमित होकर अन्न के माध्यम से शरीर की रिक्तियों में सीधे ही प्रवेश कर वहां अपनी जडें जमा सकता है । कलियुग में सात्त्विक जीव मिलना अत्यंत कठिन होता है । अतः, यथा संभव किसी का जूठा पदार्थ ग्रहण न करें; किंतु संतों की चैतन्यमय जूठन प्रसाद के रूप में अवश्य ग्रहण करें; क्योंकि, इस चैतन्यमय जूठन से देहांतर्गत रिक्तियों की शुद्धि होती है ।’

जूठा अन्न खाने वाले को, जिसका जूठा अन्न है, उस जीव की स्वभावगत विशेषताएं और त्रिगुण की मात्रा के अनुसार कष्ट की संभावना होना : ‘एक-दूसरे का जूठा अन्न ग्रहण करने पर जीव उस अन्न के माध्यम से दूसरे जीव की स्वभाव गतविशेषताओं से प्रभारित गुणों के प्रत्यक्ष संपर्क में आता है । इस कारण उस जीव से संबंधित तत्त्व और विशेषताएं अन्न ग्रहण करने वाले जीव में प्रविष्ट होती हैं । प्रत्येक जीव का स्वभाव भिन्न होने से दूसरे जीव का अन्न खाने वाले जीव को उस जीव की स्वभावगत विशेषताएं और त्रिगुणों की मात्रा के अनुरूप कष्ट हो सकता है । इसीप्रकार अन्न के घटक पदार्थ, जीव की देह के घटकों से प्रभारित होते हैं । अतः दूसरे जीव द्वारा वह खाए जाने पर उसकी देह में विविध प्रकार के सूक्ष्म-वायु के संचार में बाधा आती है और जीव को विविध प्रकार के रोग हो सकते हैं । इसीप्रकार, किसी उच्च आध्यात्मिक स्तर के अथवा अनिष्ट शक्तियों के कष्ट से युक्त जीव का जूठा अन्न खाने पर सर्वसामान्य जीव को उसमें निहित चैतन्य अथवा काली शक्ति से कष्ट हो सकता है । इसीलिए हिन्दू संस्कृति में कहा गया है, ‘एक-दूसरे का जूठा अन्न नहीं खाना चाहिए ।’ (उन्नत पुरुष अथवा संत की जूठन (उच्छिष्ट) प्रसाद के रूप में खाने से कष्ट नहीं होता, अपितु उससे चैतन्य मिलता है । )

५. दूसरे के श्रम से अर्जित अन्न क्यों न खाएं ?

‘दूसरे का अन्न, दूसरे का वस्त्र, दूसरे का धन, दूसरे की शय्या, दूसरे की गाडी और दूसरे की स्त्री का उपभोग, इन आचारों से इंद्र का ऐश्वर्य भी नष्ट हो जाता है ।’ – शंखस्मृति १७

अ. दूसरे का अन्न निःशुल्क खाने पर उस कर्म का भी फल भोगना पडना

प्रश्न : परान्न भक्षण करने का फल भी हमें भोगना पडता है क्या ?

उत्तर : आप दूसरों का अन्न निःशुल्क खाएंगे, तो उसका कर्मफल आपको अवश्य भोगना पडेगा । इसीलिए तो मैं आश्रम में भोजन करने से पूर्व आप लोगों से ‘श्री राम जय राम’ कहलवाता हूं ।

आ. दूसर के श्रम का अन्न लोभवश

खाने का परिणाम : ‘जो निर्बुद्ध गृहस्थ अतिथि सत्कार के लोभ से दूसरे के घर जाकर उसका अन्न खाता है, वह मृत्यु के पश्चात उस अन्नदाता के घर में पशु के रूप में जन्म लेता है ।’ – मनुस्मृति, अध्याय ३, श्लोक १०४

इ. किसी के बुलाने पर उसके घर प्रसार सेवा करने वाले साधकों का जाने से होनेवाली हानि व लाभ

हानि : जिसके घर भोजन करने के लिए जाते हैं, उसे अनिष्ट शक्तियों की पीडा हो तो अन्न द्वारा वह कष्ट हमें भी हो सकता है । ऐसा न हो, इसलिए अन्नदेवता को अर्पित कर सेवन करें ।

लाभ : निकटता बढती है ।

६. अन्य द्वारा अधर्माचरण से अर्जित अन्न (दूषित अन्न) का सेवन क्यों न करें ?

हिन्दू संस्कृति कहती है ‘अपने श्रम से अर्जित नमक-रोटी भली; अन्य के पंच पकवान नहीं चाहिए ।’ उसी प्रकार, हिन्दू संस्कृति यह भी कहती है कि आवश्यकता पडने पर अथवा अन्य किसी निमित्त से दूसरे का अन्न खाना पडे, तो ‘वह अन्न यजमान के अधर्माचरण से अर्जित किया हुआ नहीं होना चाहिए ।’ चोर, दुष्ट आदि के घर का अन्न भी दूषित माना गया है ।

संदर्भ पुस्तक : सनातन का ग्रंथ, ‘आहार के नियम एवं उन का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’