देवीकी आरती करने की उचित पद्धति

Devichi-Arti

देवताकी आरती करना देवतापूजनका एक महत्त्वपूर्ण अंग है । आरतीका अर्थ है, देवताके प्रति शरणागत होना और उनका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिए आर्तभावसे उनका स्तुतिगान करना । मनुष्यके लिए कलियुगमें देवताके दर्शन हेतु आरती एक सरल माध्यम है । आरतीके माध्यमसे अंत:करणसे देवताका आवाहन करनेपर देवता पूजकको अपने रूप अथवा प्रकाशके माध्यमसे दर्शन देते हैं । इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों  एवं संतोंने विभिन्न देवताओंकी आरतीकी रचना की । देवी मांकी कृपा प्राप्त करनेके लिए उनकी आरती करते समय कुछ सूत्रोंका ध्यान रखना लाभदायक है ।

१. देवीकी आरती गानेकी उचित पद्धति क्या है ?

‘देवीका तत्त्व, अर्थात शक्तितत्त्व तारकमारक शक्तिका संयोग है । इसलिए आरतीके शब्दोंको अल्प आघातजन्य, मध्यम  वेगसे, आर्त्त धुनमें तथा उत्कट भावसे गाना इष्ट होता है ।

२. कौनसे वाद्य बजाने चाहिए ?

देवीतत्त्व, शक्तितत्त्वका प्रतीक है, इसलिए आरती करते समय शक्तियुक्त तरंगें निर्मिति करनेवाले चर्मवाद्य हलकेहाथसे
बजाने इष्ट हैं ।

३. देवीकी आरती कैसे उतारें – एकारती अथवा पंचारती ?

यह देवीकी आरती उतारनेवालेके भाव एवं उसके आध्यात्मिक स्तरपर निर्भर करता है ।

अ. पंचारतीसे आरती उतारना

‘पंचारती’ अनेकत्वका (चंचलरूपी मायाका) प्रतीक है । आरती उतारनेवाला प्राथमिक अवस्थाका  साधक (५० प्रतिशत स्तरसे न्यून स्तरका) हो, तो वह देवीकी पंचारती उतारे ।

आ. एकारती उतारना

Ekarati
एकारती ‘एकत्व’का प्रतीक है । भावप्रवण एवं ५० प्रतिशत स्तरसे अधिक स्तरका साधक देवीकी एकारती उतारे ।

इ. आत्मज्योतिसे आरती उतारना

७० प्रतिशत से अधिक स्तरका एवं अव्यक्त भावमें प्रविष्ट आत्मज्ञानी जीव, स्वस्थित  आत्मज्योतिसे ही देवीको अपने अंतर्में निहारता है । आत्मज्योतिसे आरती उतारना, ‘एकत्वके स्थिरभाव’का प्रतीक है ।

४. देवीकी आरती उतारनेकी उचित पद्धति

देवीकी आरती पूजकको अपनी बार्इं ओरसे दार्इं ओर घडीके कांटोंकी दिशामें पूर्णवर्तुलाकार पद्धतिसे उतारें ।

आरती के उपरांत देवीमांकी एक अथवा नौ की संख्यामें परिक्रमा करनी चाहिए । इन सभी कृतियोंको भावसहित करनेसे पूजकको देवीतत्त्वका अधिक लाभ मिलता है ।

 

५. श्री देवीकी आरती

जगजननी जय ! जय ! मा ! जगजननी जय ! जय !!
भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय जय ॥ टेक ॥
तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मरूपा ।
सत्य सनातन सुंदर पर-शिव सुर-भूपा ॥ १ ॥
आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी ।
अमल अनंत अगोचर अज आनंदराशी ॥ २ ॥
अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी ।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी ॥ ३ ॥
तू विधि-वधू, रमा, तू उमा, महामाया ।
मूल कृति, विद्या तू, तू जननी जाया ॥ ४ ॥
राम, कृष्ण तू, सीता, ब्रजरानी राधा ।
तू वाञ्छाकल्पद्रुम हारिणि सब बाधा ॥ ५ ॥
दश विद्या, नव दुर्गा नाना शस्त्रकरा ।
अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव-रूप-धरा ॥ ६ ॥
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनी तू ।
तू ही श्मशानविहारिणि, तांडवलासिनि तू ॥ ७ ॥
सुर-मुनि-मोहिनि सौम्या तू शोभाधारा ।
विवसन विकट-सरूपा, लयमयी धारा ॥ ८ ॥
तू ही स्नेहसुधामयि, तू अति गरलमना ।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना ॥ ९ ॥
मूलाधारनिवासिनि, इह-पर-सिद्धिदे ।
कालातीता काली, कमला तू वरदे ॥ १० ॥
शक्ति शक्तिधर तू ही नित्य अभेदमयी ।
भेददर्शिनि वाणी विमले ! वेदत्रयी ॥ ११ ॥
हम अति दीन दुखी मां ! विपत-जाल घेरे ।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे ॥ १२ ॥
निज स्वभाववश जननी ! दयादृष्टि कीजै ।
करुणा कर करुणामयि ! चरण-शरण दीजै ॥ १३ ॥

श्री देवीकी आरतीका भावार्थ

समस्त संसारकी माता ! सदा सर्वदा आपकी जय हो । संसारके समस्त भयको (कष्टोंको) दूर करनेवाली, संसारका उद्धार  करनेवाली एवं संसारको सुशोभित करनेवाली सर्वसुंदरी, जगत् माता ! आपकी जय हो ॥ आप सच्चिदानंद ब्रह्मस्वरूपा हैं । आप सत्य, सनातन, सुंदर, परं शिव (कल्याणकारिणी) एवं देवरूप हैं ॥ १ ॥ आप आदि (प्रारंभ), अनादि (नित्य), अनामय (निरोग),  अविचल (स्थिर), अविनाशी (अक्षय अर्थात जिसका नाश न हो), अमल (पवित्र), अनंत (जिसका अंत न हो अर्थात शाश्‍वत),  अगोचर (इंद्रियातीत अर्थात इंद्रियोंसे परे) अज (सतत) आनंदराशि  हैं ॥ २ ॥ आप विकाररहित अर्थात नित्य हैं । आप ही समस्त पापोंको दूर करनेवाली अघहारी हैं । आप कलामुक्त एवं समस्त कलाओंको धारण करनेवाली हैं । आप ही इस सृष्टिकी रचना करनेवाली ब्रह्मा हैं, भरण-पोषण करनेवाली विष्णुरूप तथा संहार करनेवाली साक्षात शिवरूप हैं ॥ ३ ॥ हे जगज्जननी । आप ही  ब्राह्मी, लक्ष्मी, पार्वती और महामाया हैं । आप मूल कृति हैं, आप विद्याको जन्म देने तथा विकसित करनेवाली हैं ॥ ४ ॥ आपकी ही छवि राम, कृष्ण एवं सीता, राधाके रूपमें विद्यमान हैं । समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली कल्पवृक्ष हैं तथा  विभिन्न (सर्व) बाधाओंको नष्ट करनेवाली हैं ॥ ५ ॥ आप ही दसों विद्या रूप, नाना शस्त्र हाथोंमें धरे नवदुर्गारूप हैं । आप  अष्टमातृका रूप, योगिनी रूप तो हैं ही, साथ ही नित्य नए-नए रूपोंको धारण करनेवाली हैं ॥ ६ ॥ आप ही परम् धाम हैं । आप परमशक्तिमयी भी हैं । आप ही श्मशानमें विहार करनेवाली एवं क्रांति मचा देनेवाली हैं ॥ ७ ॥ हे माता ! आप अपने दिव्य  कांतिमय दुर्गा रूपमें जहां एक ओर देवताओं और मुनियोंको मोहनेवाली हैं, वहीं अपने विकराल स्वरूपमें साक्षात् लयंकारी धारा भी हैं ॥ ८ ॥ हे माता ! आप सरलचित्त एवं अपने भक्तोंके लिए प्रेमकी अमृतमयी धारा हैं, तो दुष्टजनोंके लिए विषमय भी हैं । आप रत्नोंसे विभूषित, तो दूसरी ओर अस्थियोंका अलंकार भी आपने ही धारण किया है ॥ ९ ॥ आप ही संसारकी मूलाधार हैं ।  आप ही इहलोक (संसार) एवं परलोक (स्वर्ग) दोनोंमें ही सिद्धि दायिनी हैं । आप ही कालबंधनसे मुक्त काली हैं, आप ही लक्ष्मी हैं, हे देवी ! आप मुझे वरदान दें ॥ १० ॥ आप ही शक्ति (ऊर्जा का स्रोत) एवं आप ही विभिन्न शक्तियोंको धारण करनेवाली शाश्‍वत देवी हैं । आप ही अनेक भेदोंको (रहस्योंको) कट करनेवालीं विमल वाणी (सरस्वती) हैं । आप ही त्रिवेद हैं ॥ ११ ॥ आपका ही अनुपम ताप चतुरदिक् व्याप्त है । हम सब दीन दुःखी एवं विपत्ति ग्रस्त आपके बालक हैं । हम भले ही कपूत हों, कपटी हों; परंतु आपके बालक हैं ॥ १२ ॥ अपने मातृरूपकी रक्षा कीजिए, करुणामयी होनेके कारण हम सब बालकोंपर अपनी दयादृष्टि रखिए एवं अपने श्रीचरणोंमें आश्रय दीजिए ॥ १३ ॥

श्री दुर्गादेवीकी आरती (मराठी)

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दुर्गे दुर्घट भारी तुजविण संसारी ।
अनाथनाथे अंबे करुणा विस्तारी ।
वारी वारी जन्ममरणाते वारी ।
हारी पडलो आता संकट निवारी ।। १ ।।
जय देवी जय देवी महिषासुरमथनी ।
सुरवरईश्वर-वरदे तारक संजीवनी ।।
जय देवी जय देवी ।। धृ० ।।
त्रिभुवनभुवनी पहाता तुजऐसी नाही ।
चारी श्रमले परंतु न बोलवे काही ।
साही विवाद करिता पडले प्रवाही ।
ते तू भक्तालागी पावसी लवलाही ।। २ ।।
प्रसन्नवदने प्रसन्न होसी निजदासां ।
क्लेशांपासुनी सोडवी तोडी भवपाशा ।
अंबे तुजवाचून कोण पुरवील आशा ।
नरहरि तल्लीन झाला पदपंकजलेशा ।। ३ ।।
– संत नरहरि

संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, ‘देवीपूजनसे संबंधित कृत्योंका शास्त्र

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