भोजन के समय क्या करना चाहिए आैर क्या नही ?

भोजन से संबंधित आचारों का विभाजन प्रमुखतः तीन भागों में किया जा सकता है – भोजनपूर्व आचार, भोजन के समय के आचार एवं भोजनोपरांत आचार । भोजन के समय के सर्व आचार क्रमशः आगे दिए हैं ।

१. भोजन के समय के आचार

अ. दाहिने हाथ से भोजन करें । छोटे बच्चों को भी दाहिने हाथ से भोजन करने का अभ्यास कराएं ।

आ. अन्न का ग्रास लेते समय पांचों उंगलियों का प्रयोग करें । यथासंभव कांटेचम्मच से न खाएं ।

इ. दाल-चावल एवं उसपर घी, इनसे भोजन आरंभ करें । भोजन के आरंभ में भारी, स्निग्ध, मीठे, शीत एवं गाढे पदार्थ सेवन करें । भोजन के बीच में खट्टे एवं खारे पदार्थ तथा भोजन के अंतमें तीखे एवं कडवे पदार्थ सेवन करें ।

ई. भोजन करते समय प्रत्येक ग्रास अनेक बार (३२ बार) चबाएं ।

उ. भोजन करते हुए मध्यमें अल्प जल पीएं ।

  • जलपात्र को (गिलास को) मुख लगाकर जल पीएं; ऊपर से न पीएं ।
  • बाएं हाथ में जलपात्र लेकर दाहिना हाथ उलटा कर जलपात्र के निचले भाग को आधार देकर जल पीएं ।
  • उच्छिष्ट (जूठे) हाथ से जल न पीएं ।
  • ग्रीवा उठाकर जल न पीएं ।
  • जल पीते समय ‘गट् ऽ गट् ऽ’, ऐसी ध्वनि न करें ।

ऊ. भोजन के समय बाएं हाथ से अन्न परोसकर न लें; दूसरे को परोसने के लिए कहें । दूसरे द्वारा परोसना संभव न हो, तो प्रार्थना कर नामजप करते हुए अपने बाएं हाथ से अन्न लें ।

ए. भोजन करते समय उदरके दो भाग अन्न से, तीसरा भाग जल से भरें एवं चौथा भाग वायु के संचरण हेतु रिक्त (खाली) रखें ।

एे. थाली में अन्न न छोडें । थाली में अन्न छोडने पर प्रायश्चित करें ।

ओ. ‘अन्नदाता सुखी भव ।’ अर्थात ‘हे अन्नदाता, आप सुखी रहें !’, ऐसा कहकर उपास्यदेवता एवं श्री अन्नपूर्णादेवी के चरणों में भावपूर्ण कृतज्ञता व्यक्त कर पीढे से उठें ।

२. भोजन करते समय यह करें !

अ. यथासंभव पवित्रता (शुचिता, सुमंगलता) एवं स्पर्श-अस्पर्श की परंपराओं का पालन करें ।

आ. यथासंभव सर्व अन्नपदार्थों को मिलाकर सेवन करने की अपेक्षा रुचि अनुसार पदार्थों का स्वाद लेकर अन्नका सेवन करें ।

३. भोजन करते समय यह न करें !

अ. भोजन करते समय (अथवा देवालयमें जाते समय) चर्म की (चमडे की) वस्तुएं अपने साथ न रखें ।

आ. भोजन करते समय बाएं हाथ पर भार देकर न बैठें ।

इ. भोजन करते समय बायां हाथ थाली, थाली में रखी कटोरी को स्पर्श न करे, इसका ध्यान रखें । रोटी के टुकडे जूठे हाथ से ही करें । उसके लिए बाएं हाथ का उपयोग न करें ।

ई. भोजन करते समय अन्न का स्पर्श हथेली को न होने दें ।

उ. भोजन शीघ्रता से न करें । ऐसा करने से अन्नपाचन ठीक से नहीं होता तथा अन्न का स्वाद भी समझ में नहीं आता । धीमी गति से भी भोजन न करें । मध्यम गति से भोजन करें ।

ऊ. भोजन करते समय तथा जल पीते समय एवं आचमन करते समय मुख से ध्वनि (आवाज) न करें ।

ए. भोजन करते समय किसी भी प्रकार का तनाव न हो । प्रसन्नचित्त होकर भोजन करें ।

ऐ. भोजन करते समय परस्पर बातें न करें तथा अनावश्यक चर्चा, विवाद आदि टालें ।

ओ. भोजन करते समय चल दूरभाष पर (‘मोबाईल’पर) बात न करें ।

औ. भोजन करते समय कुछ न पढें ।

अं. दूरदर्शन के (टीवी पर) कार्यक्रम देखते हुए अथवा माया से संबंधित चर्चा करते हुए भोजन न करें ।

अः. भोजन की निंदा करते हुए भोजन न करें । अन्न प्राणस्वरूप है, उसे सम्मानपूर्वक ग्रहण करने से ही बल एवं तेजस में वृद्धि होती है ।

क. भोजन की थाली में उंगली से न लिखें ।

ख. भोजन करते समय मध्य में उठकर न जाएं ।

घ. यदि बीच में उठना ही पडे, तो जूठी थाली रसोईमंच पर (प्लॅटफार्म पर) न रखें ।

च. भोजन करते समय एक-दूसरे को स्पर्श न करें ।

छ. भोजन करते समय अपनी थाली का अन्न दूसरे को न दें ।

ज. एक ही थाली में दो व्यक्ति एक साथ अन्न-सेवन न करें ।

झ. भोजन करते समय दूसरे की थाली में न देखें; अपनी थाली पर ही ध्यान दें ।

ट. अन्न में केश हो, तो वह अन्न न खाएं ।

ठ. लेटकर, टूटे-फूटे पात्रों में अथवा भूमि पर अन्न लेकर न खाएं ।

ड. जूठे हाथ लेकर न बैठें एवं न ही सोएं ।

ढ. भोजन के उपरांत थाली में हाथ न धोएं ।

त. पंगत में सभी का भोजन पूर्ण हुए बिना न उठें । सभी का भोजन हुए बिना पंगत से उठने पर प्रायश्चित करें ।

थ. खडे रहकर अथवा चलते-फिरते भोजन न करें ।

द. भोजन करते समय दांतों में फंसे पदार्थ निकालने के लिए बाएं हाथ का उपयोग न करें अथवा किया हो तो हाथ धोएं ।

ध. भोजन कर रहे व्यक्ति को नमस्कार न करें ।

न. भोजन के उपरांत जूठी थाली अन्नपदार्थ रखे पटल पर न रखी जाए, इसका ध्यान रखें ।

४. अन्न एवं जल के सेवन के संदर्भ में नियम

अ. सामान्यतः तृषित होने पर (प्यास लगने पर) जल ग्रहण करें । भूख लगने पर जल न पीएं एवं तृषित होने पर अन्न सेवन न करें ।

आ. भोजन से पूर्व जल पीने से पाचकरस की तरलता बढ जाने से पाचनशक्ति अल्प होती है, अन्न ठीक से नहीं पचता एवं क्षुधा शमन होती है । इससे शरीर कृश होता है । भोजन के पश्चात जल पीने से भार (वजन) बढता है एवं कफ अधिक मात्रा में बनता है । इसलिए भोजन के मध्य में अल्प जल पीएं । इससे भोजन के विविध अन्नपदार्थों का स्वाद भली-भांति समझ में आता है एवं शरीर सुडौल बनता है ।

इ. स्थूल व्यक्ति भोजनपूर्व १ से २ पात्रभर (गिलास) जल पीएं जिससे उनकी क्षुधा अल्प होकर उदर भरने जैसा प्रतीत होता है । निरोगी मनुष्य भोजन के मध्य में अल्प जल पीएं । यथासंभव भोजन के एक घंटे पश्चात जल पीएं ।

ई. अन्न का ग्रास एवं जल एक साथ मुख में न लें; क्योंकि उससे मुख में उत्पन्न लार निस्तेज होती है एवं अन्न विलंब से पचता है ।

उ. एक स्थान पर बैठकर घूंट-घूंट जल पीएं । एक समय एक ही पात्रभर (गिलास) जल पीनेकी वृत्ति (आदत) बनाएं । जल पीनेके पश्चात मुखसे वायु (हवा) बाहर छोडें ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार