भोजन की थाली कैसे परोसनी चाहिए ?

१. भोजन में सीमित पदार्थ हों, तो थाली कैसे परोसनी चाहिए ?

पात्राधो मंडलं कृत्वा पात्रमध्ये अन्नं वामे भक्ष्यभोज्यं दक्षिणे घृतपायसं पुरतः
शाकादीन् (परिवेषयेत्) । – ऋग्वेदीय ब्रह्मकर्मसमुच्चय, अन्नसमर्पणविधि

अर्थ : भूमिपर जल से मंडल बनाकर उसपर थाली रखें । उस थाली के मध्यभाग में चावल परोसें । भोजन करनेवाले के बार्इं ओर चबाकर ग्रहण करनेयोग्य पदार्थ परोसें । दाहिनी ओर घी युक्त पायस (खीर) परोसें । थाली में सामने तरकारी, शकलाद (सलाद) आदि पदार्थ होने चाहिए ।

२. भोजन में अनेक पदार्थ हों, तो थाली कैसे परोसनी चाहिए ?

अ. थाली में ऊपर की ओर मध्यभाग में लवण (नमक) परोसें ।

आ. भोजन करनेवाले के बार्इं ओर (लवण के निकट ऊपर से नीचे की ओर) क्रमशः नींबू, अचार, नारियल अथवा अन्य चटनी, रायता / शकलाद (सलाद), पापड, पकोडे एवं चपाती परोसें । चपाती पर घी परोसें ।

इ. भोजन करनेवाले के दाहिनी ओर (लवण के निकट ऊपर से नीचे की ओर) क्रमशः छाछ की कटोरी, खीर एवं पकवान, दाल एवं तरकारी परोसें ।

ई. थालीके मध्यभाग पर नीचे से ऊपर सीधी रेखा में क्रमशः दाल-चावल, पुलाव, मीठे चावल एवं अंत में दही-चावल परोसें । दाल-चावल, पुलाव एवं मीठे चावल पर घी परोसें ।

३. थाली में विशिष्ट पदार्थ विशिष्ट स्थान पर ही परोसने का महत्त्व

थाली में विशिष्ट स्थान पर विशिष्ट पदार्थ परोसने पर अन्न से प्रक्षेपित तरंगों में उचित संतुलन बनता है । इसका भोजनकर्ता को स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों स्तरों पर अधिक लाभ होता है । थाली के पदार्थों का उचित संतुलन, अन्न के माध्यम से होनेवाली अनिष्ट शक्तियों की पीडा अल्प करने में भी सहायक है । पदार्थों के त्रिगुणों की मात्रा के अनुसार भोजन करते समय थाली में विशिष्ट पदार्थ विशिष्ट स्थान पर ही परोसें ।

अ. सामान्यतः रज-सत्त्वगुणी पदार्थ भोजनकर्ताके दाएं हाथ की ओर परोसते हैं ।

आ. सत्त्व-रजोगुणी पदार्थ भोजनकर्ता के बाएं हाथ की ओर परोसे जाते हैं । इससे अन्न से प्रक्षेपित तरंगों से शरीर की सूर्यनाडी एवं चंद्रनाडी के कार्य में संतुलन बनता है तथा स्थूल स्तर पर अन्न का पाचन भलीभांति होता है ।

इ. लवण में (नमक में) त्रिगुणों की मात्रा लगभग समान होती है । अतः उसे थाली के छोर पर सामने एवं मध्य में परोसते हैं । अधिकतर अन्न-पदार्थ बनाते समय लवण का उपयोग किया ही जाता है; क्योंकि लवण स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों दृष्टि से अन्न में विद्यमान तरंगों में संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है ।’

४. थाली में चार प्रकार के भात परोसने का क्रम एवं उसकी अध्यात्मशास्त्रीय कारणमीमांसा

अ. थाली में प्रथम सादी दाल एवं भात परोसते हैं, तदुपरांत पुलाव (मसाला- भात), तत्पश्चात मीठा-भात एवं अंत में दही-भात, यह क्रम होता है । थाली का मध्यभाग सुषुम्ना नाडी का दर्शक है ।

आ. श्वेत रंग से (भात के रंग से) उत्पत्ति होना एवं श्वेत रंग में ही लय, ऐसा समीकरण यहां है; अर्थात निर्गुण से उत्पत्ति एवं निर्गुण में ही लय, यह सुषुम्ना नाडी के कार्य की विशेषता है ।

इ. भोजन में प्रथम सत्त्वगुणी सादी दाल एवं भात ग्रहण करने के पश्चात प्रायः तमोगुणी पुलाव (मसालेयुक्त भात) ग्रहण करने को प्रधानता दी जाती है । ऐसा करने से पुलाव के तमोगुण का विलय सादी दाल एवं भात के सत्त्वगुणी मिश्रण में होने में सहायता मिलती है । इससे देह पर पुलाव के मसालों का विपरीत परिणाम नहीं होता ।

ई. तत्पश्चात मीठा-भात ग्रहण किया जाता है । इससे देह में मधुर रस जागृत होने में सहायता मिलती है ।

उ. भोजन के अंत में दही-भात सेवन को प्रधानता दी जाती है । इससे देह के सर्व रसों का शमन होकर अन्न की आगे की पाचन-संबंधी प्रक्रिया प्रारंभ होती है ।

ऊ. दही में विद्यमान रजो गुण पाचक रसों की क्रियाशक्ति बढाता है । इससे अन्न का पाचन उचित प्रकार से होने में सहायता मिलती है ।

५. भोजन की एवं नैवेद्य की थाली परोसने की पद्धति में अंतर

भोजन की एवं नैवेद्य की थाली परोसने की पद्धति में विशेष अंतर नहीं है । भोजन की थाली में पदार्थ परोसते समय प्रथम लवण परोसा जाता है, जबकि नैवेद्य की थाली में लवण नहीं परोसा जाता ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजन-पूर्वके आचार, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार