असाधारण पराक्रमी, वीरता झांसीकी रानी लक्ष्मीबाई

सारणी


 जन्म तथा बाल्यावस्था

        दूसरे बाजीराव पेशवाके बंधु चिमाजी अप्पाके व्यवस्थापक मोरोपंत तांबे तथा भागीरथीबाई दंपतिके घर कार्तिक कृष्ण १४, शके १७५७ अंग्रेजी कालगणनानुसार १९ नवंबर, १८३५ को लक्ष्मीबाईका जन्म हुआ । मोरोपंतने उसका नाम ‘मनुताई’ रखा । मनुताई सुन्दर तथा कुशाग्रबुद्धि की थी । जब मनुताई ३-४ वर्षकी थी तब उनकी मांका निधन हो गया ।  वह आगे ब्रह्मावर्तमें दूसरे बाजीराव पेशवाके आश्रयमें चली गई ।

 युद्धकलाका शिक्षण

        ब्रह्मावर्तकी हवेलीमें नानासाहेब पेशवा अपने बंधु रावसाहेबके साथ तलवार, दंडपट्टा तथा बंदूक चलाना साथ ही घुडदौडका शिक्षण लेते । उनके साथ रहकर मनुताईने भी युद्धकलाका शिक्षण लेकर उसके दांवपेंच सीख लिए । अक्षर- ज्ञान तथा लेखन-वाचन मनुताईने साथ-साथ ही सीख लिया ।

विवाह

        आयुके ७ वें वर्षमें शके १७६४ के वैशाख, १८४२ ईस्वीमें मनुताईका विवाह झांसी रियासतके अधिपति गंगाधरराव नेवाळकर के साथ धूम-धामसे हुआ । मोरोपंत तांबेकी मनुताई विवाहके उपरांत झांसीकी रानीके नामसे पुकारी जाने लगीं । विवाहके उपरांत उनका नाम ‘लक्ष्मीबाई’ रखा गया ।

पुत्रवियोगका दु:ख

        इ.स. १८५१ मार्गशीर्ष शु. एकादशीको रानी लक्ष्मीबाईने एक पुत्ररत्नको जन्म दिया । गद्दीका उत्तराधिकारी मिल गया । इस कारण गंगाधरराव अति प्रसन्न हुए । जब वह मात्र तीन महीने का था उस समय कालने उसे छीन लिया तथा रानी लक्ष्मीबाई तथा गंगाधरराव को पुत्रवियोग का दु:ख सहन करना पडा ।

पतिवियोगका आघात तथा दत्तक विधान

        पुत्रवियोगका दुःख सहन न होनेके कारण, अस्वस्थ होकर गंगाधरराव कुछ मासमें ही संग्रहणीके विकारसे ग्रस्त हो गए । गंगाधररावकी इच्छानुसार गद्दीके उत्तराधिकारीके रूपमें नेवाळकर राजवंशके वासुदेव नेवाळकरके पुत्र आनंदरावको दत्तक लेकर उसका नाम ‘दामोदरराव’ रखा गया । दत्तक विधिके उपरांत २१ नवंबर १८५३ की दोपहर गंगाधरराव मृत्युको प्राप्त हो गए । पतिके निधनके कारण आयुके मात्र १८वें वर्ष में ही रानी लक्ष्मीबाई विधवा हो गई ।

‘मेरी झांसी नही दूंगी’

        ७ मार्च १८५४ को अंग्रोजोंने एक राजघोषणा प्रसिद्ध कर झांसी रियासतके सर्व अधिकार निरस्त कर दिए । रानी लक्ष्मीबाई इस अन्यायकी आगमें जलते हुए भी गोरा अधिकारी मेजर एलिस लक्ष्मीबाईसे मिलने आया । उसने झांसी संस्थान निरस्त किए जानेकी राजघोषणा पढकर सुनाई । संतप्त रानी लक्ष्मीबाईसे एलिसने वापस जाने की अनुज्ञा मांगते ही चोटील शेरनीकी भांति गरजकर वे बोलीं, ‘‘मेरी झांसी नहीं दूंगी!”, यह सुनकर एलिस निकल गया ।

१८५७ का संग्राम

        १८५७ की जनवरीमें प्रारंभ हुए स्वतंत्रता संग्रामने १० मईको मेरठमें भी प्रवेश कर लिया । मेरठके साथ ही दिल्ली, बरेली और झांसी भी अंग्रेजोंके राज्यसे स्वतंत्र हो गए । झांसीमें अंग्रेजोंकी सत्ता समाप्त होनेपर रानी लक्ष्मीबाईने ३ वर्ष के बाद शासन हाथमें ली । उसके बाद उन्होंने अंग्रेजोंके संभाव्य आक्रमणसे झांसीकी रक्षा करने की दृष्टिसे सिद्धता की । अंग्रेजोंने लक्ष्मीबाईको जीवित पकड लाने हेतु सर ह्यू रोजको नामित किया । २० मार्च १८५८ को सर ह्यू रोजकी सेनाने झांसीसे ३ मीलकी दूरीपर अपनी सेनाको पडाव डाला तथा लक्ष्मीबाईको शरण आनेका संदेश भेजा; परंतु इसे न स्वीकार कर उन्होंने स्वत: झांसीके तटपर खडे होकर सेनाको लडनेकी प्रेरणा देना आरंभ किया । लडाई प्रारंभ होनेपर झांसीके तोपोंने अंग्रेजोंके छक्के छुडा दिए । ३ दिनोंतक सतत लडाई करके भी झांसीके दुर्ग पर तोप न चला पानेके कारण सर ह्यू रोजने भेदमार्गका अवलंब किया । अंततः ३ अप्रैलको सर ह्यू रोजकी सेनाने झांसीमें प्रवेश किया । सेनाने झांसीके लोगोंको लूटना आरंभ कर दिया । केंद्रीय दुर्गसे रानी लक्ष्मीबाईने शत्रुका घेरा तोडकर पेशवाओंसे जा मिलेने की ठानी । रातमें चुनिन्दा २०० सवारोंके साथ अपने १२ वर्षके दामोदरको पीठपर बांध ‘जय शंकर’ ऐसा जयघोष कर लक्ष्मीबाई दुर्गसे बाहर निकलीं । अंग्रेजोंका पहरा तोडकर कालपीकी दिशामें उन्होंने कूच की । इस बीच उनके पिता मोरोपंत उनके साथ थे । घेरा तोडकर बाहर जाते हुए अंग्रेजोंकी टुकडीके साथ हुई अचानक लडाईमें वे घायल हो गए । अंग्रेजोंने उन्हें पकडकर फांसी दे दी ।

कालपीका संघर्ष

        सतत २४ घंटे घोडा दौडाते १०२ मील अंतर पार कर रानी कालपी पहुंची। पेशवाओंने सर्व परिस्थिति देखकर रानी लक्ष्मीबाईको सर्व सहायता करनेका निश्चय किया । लडाई हेतु आवश्यक सेना उन्हें दिए गए । २२ मईको सर ह्यू रोजने कालपीपर आक्रमण किया । युद्ध आरंभ हुआ देख लक्ष्मीबाईने हाथकी तलवार बिजलीके चपलतासे चमकाते हुए अग्राकूच की । उनके इस आक्रमणसे अंग्रेज सेना पिछड गयी । इस हारसे स्तब्ध हुए सर ह्यू रोज अतिरिक्त ऊंटोंका दल रणभूमि पर ले आया । नए ताजे सेनाके आते ही क्रांतिकारियोंका आवेश न्यून हो गया । २४ मई को कालपीपर अंग्रेजोंने अधिकार कर लिया ।

        कालपीमें पराभूत रावसाहेब पेशवे, बांदाके नवाब, तात्या टोपे, झांसीकी रानी तथा प्रमुख सरदार गोपालपुरमें एकत्रित हुए । लक्ष्मीबाईने ग्वालियर हस्तगत करने की सूचना दी । ग्वालियरके शिंदे अब भी ब्रिटिशसमर्थक थे । रानी लक्ष्मीबाईने आगे होकर ग्वालियर जीता तथा पेशवाओंके हाथमें दे दिया ।

स्वतंत्रतावेदीपर प्राणोंका बलिदान

        ग्वालियरकी विजयका वृत्त सर ह्यू रोजको मिल गया था । उसके ध्यानमें आया कि समय खर्च करनेपर हमारी परिस्थिति कठिन हो जाएगी । उसने अपनी सेनाका मोर्चा ग्वालियरकी ओर कर दिया । १६ जूनको सर ह्यू रोज ग्वालियर पहुंचा । सर ह्यू रोजसे लक्ष्मीबाई तथा पेशवेने मुकाबला करनेकी ठानी । ग्वालियरके पूर्व बाजूसे रक्षण करनेका काम लक्ष्मीबाईने स्वयंपर लिया । लडाईमें लक्ष्मीबाईका अभूतपूर्व धैर्य देख सैनिकोंको स्फूर्ति आ गयी । उनकी मंदार तथा काशी ये दासियां भी पुरूष वेशमें लडने आयीं । उस दिन रानीके शौर्यके कारण अंगे्रज पीछे हट गए ।

        १८ जूनको रानी लक्ष्मीबाईके शौर्यसे हताश अंग्रेजोंने ग्वालियरपर सर्व ओरसे एकसाथ आक्रमण किया । उस समय शरणागति न करते हुए शत्रुका घेरा तोडकर बाहर जानेकी सोची । घेरा तोडकर जाते हुए बागका एक नाला आगे गया । रानीके पास सदाकी भांति ‘राजरत्न’ घोडा न होने के कारण दूसरा घोडा नालाके पास ही गोल-गोल घूमने लगा । रानी लक्ष्मीबाईने अपना भविष्य समझकर आक्रमण कर रहे अंग्रेजोंपर धावा किया । इससे वह रक्तसे नहाकर घोडेसे नीचे गिर पडीं । पुरूष वेशमें होनेके कारण रानी लक्ष्मीबाईको गोरे सैनिक उन्हें पहचान नहीं सके । उनके गिरते ही वे चले गए । रानी लक्ष्मीबाईके एकनिष्ठ सेवकोंने उन्हें पास ही स्थित गंगादासके मठमें ले जाकर उनके मुखमें गंगोदक डाला । मेरा देह म्लेच्छोंके हाथ न लगे, ऐसी इच्छा प्रदर्शित कर उन्होंने वीर मरण स्वीकार लिया ।

        जगभर फैले क्रांतिकारियोंको, सरदार भगतसिंहकी संगठन तथा अंतमें नेताजी सुभाषचंद्र बोसकी सेनाको यही झांसीकी रानी लक्ष्मीबाईके शौर्यने स्फूर्ति दी । हिंदुस्तानकी अनेक पीढियोंको स्फूर्ति देते हुए झांसीकी रानी तेईस वर्षकी बाली आयुमें स्वतंत्रता संग्राममें अमर हो गई । ऐसी वीरांगना झांसीकी रानी लक्ष्मीबाईके चरणोंमें शतश: प्रणाम!

रे हिंद बांधव । रुक इस स्थलपर । अश्रु दो बहाना ।।
वो पराक्रम की । ज्योति बुझ गयी । यहां झांसीवाली  ।।

– कविवर्य तांबे (मराठी से अनुवादित)

        मात्र २३ वर्षकी आयुमें रणभूमिमें वीरगतिको प्राप्त झांसीकी रानीका चरित्र स्फूर्तिदायी है । १८५७ के संग्राममें प्रथम झांसी, फिर कालपी तथा अंततः ग्वालियरकी लडाइयोंमें अपनी असामान्य क्षात्रवृत्तिकी झलक दिखाकर उन्होंने गोरोंको चकित कर डाला । झांसीका दुर्ग लेनेके लिए ब्रिटिश सेनापति सर ह्यू रोज को अंततः भेदमार्गका आश्रय लेना पडा । अपने पुत्रको पीठसे बांधकर लडनेवाली ऐसी असामान्य स्त्री संसारके इतिहासमें नहीं हुई ! प्रथम महायुद्धमें `गदर’ पक्षके देशभक्तोंको, सरदार भगतसिंहके संगठनको तथा स्वा. सावरकरसे लेकर सुभाषचंद्र तक सर्व क्रांतिकारियोंको स्फूर्ति देनेवाली इस रणचंडिकाका पराक्रम तथा वीरमरण दैदीप्यमान है !

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