स्त्रियों के अलंकार

        स्त्रियों के अलंकार अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर हैं जो उनकी सुंदरता को बनाये रखते हैं तथा उनके सतीत्व की रक्षा करते हैं । स्त्रियों के लिए अलंकार मात्र दिखावे अथवा सुख पानी की वस्तुएं नहीं हैं अपितु वे चैतन्य प्रदान करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम हैं, जो दिव्यता को क्रियाशील करते हैं । अलंकार धारण करने का आध्यात्मिक महत्त्व अत्यधिक है । अलंकार स्त्रियों को उनके पतिव्रत धर्म का भान कराते हैं तथा दांपत्य जीवन में विश्वासघात का भी प्रतिकार करते हैं, उनके शरीर में विद्यमान काली शक्ति को घटाते हैं तथा अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से भी उनकी रक्षा करते हैं; इसके साथ ही शरीर के जिस अंग में अलंकार धारण किए जाते हैं, उन अंगों पर सूचिदाब के समान आध्यात्मिक उपाय भी होते हैं

१. स्त्रियों द्वारा अलंकार धारण करने का महत्त्व एवं लाभ

अ. सौभाग्यालंकार अर्थात स्त्रियों को उनके पतिव्रत-धर्म का भान कराने का माध्यम

  • ‘कुमकुम, मंगलसूत्र, कंगन, बिछिया आदि घटकों की सहायता से, रजोगुण के सामर्थ्य पर विवाहित स्त्री अल्पावधि में पुरुषप्रधान शिवस्वरूप कर्तृस्वरूप से एकरूप हो सकती है; इसलिए स्त्री का क्रियाशीलत्व जागृत करके पति के कर्तृभाव में उसे परिपूर्ण सहायता कर, रजोगुण की सहायता से कृत्य और कर्म का उचित संबंध स्थापित करने हेतु विवाहित स्त्रियों पर विशिष्ट अलंकारों का कर्मबंधन रखा गया ।

  • सौभाग्यालंकारों के माध्यम से स्त्री को तेजदायी तरंगों का स्पर्श होता है । उन्हें पतिव्रत-धर्म का निरंतर भान रहे, इसके लिए यह व्यवस्था की गई ।

  • सौभाग्यालंकारों के बाह्य भानद्वारा समाज एकपत्नीत्व एवं पतिव्रत-धर्मका पालन कर स्वेच्छाचारसे मुक्त रहे, ऐसी व्यवस्था करना कलियुग में अपरिहार्य सिद्ध हुआ ।

  • सौभाग्यालंकार अर्थात आसुरी शक्तियों की लोलुप दृष्टि से रक्षा हेतु किया गया प्रयास : कलियुग रज-तम प्रधान है । यह काल स्वेच्छाचार के लिए अनुकूल एवं साधना के लिए प्रतिकूल है । इस युग में स्त्रीरूपी पवित्रता अथवा सौभाग्यशीलता में अलंकाररूपी तेजस्विता जडी गई है । इस तेजस्विता के बल पर उसके शील की भी रक्षा होती है । सौभाग्यवती स्त्री मंगलसूत्र, कंगन तथाकुमकुम जैसे सौभाग्यालंकारोंद्वारा संरक्षित होने से, एक प्रकार से उसे आसुरी शक्तियों की भुक्त (लालसायुक्त) दृष्टि से दूर रखने का प्रयास कलियुग में किया गया है ।’

आ. स्व-उन्नति हेतु अलंकारों का उपयोग करना

        ‘अलंकार भावसहितधारण करने से जीव असत् से सत् की ओर जाता है । इसलिए प्रत्येक स्त्री-जीव को संस्कृति का पालन कर स्व-उन्नति के लिए अलंकारों का उपयोग करना चाहिए ।

  • स्त्रियोंद्वारा अलंकार धारण करना, अर्थात स्वयं में विद्यमान देवत्वजागृत करना

  • अलंकारों के कारण स्त्री के शरीर में विद्यमान तेजतत्त्वरूपी आदिमाया का, आदिशक्ति का प्रकटीकरण होता है ।

इ. शास्त्रीय पद्धति से अलंकार धारण करना, अर्थात देवता के शक्तिरूप का पूजन

        स्त्री, देवता की अप्रकट शक्ति का प्रतीक है । शास्त्रीय पद्धति से अलंकार धारण करना, उस शक्तिरूप की पूजा करना है । उसका कार्य है, अलंकारोंद्वारा स्वयं में शक्ति प्रकट कर अपने साथ अन्यों को भी उसका लाभ पहुंचाना ।’

ई. अलंकारों से सुसज्जित स्त्री शक्तिजागृति का पूजनीय पीठ होना

        ‘अलंकारों से सुसज्जित स्त्री की ओर देखने पर पूज्यभाव उत्पन्न होने में सहायता होती है । इससे उसकी एवं अन्यों की भी शक्ति जागृत होती है । यह एक छोटासा शक्तिजागृति का पूजनीय पीठ है तथा देवता का निरंतर स्मरण करवानेवाली प्रतिमा है । स्थूलरूप में पूर्णत्व की दिशामें की गई यह यात्रा सगुण उपासना से निर्गुण की ओर ले जाती है और निर्गुण की अनुभूति प्रदान करती है ।’

उ . अलंकारों के कारण स्त्री का रज-तमात्मक तरंगों से रक्षा होना

        ‘स्त्री आदिशक्तिका रूप है । स्त्री मूलतः रजोप्रवृत्ति की ही होती है । इसलिए वायुमंडल में प्राकृतिक स्वरूप में विद्यमान रज-तमात्मक तरंगों के भ्रमणद्वारा उत्पन्न ऊर्जा से, शरीर पर धारण किए गए अलंकार स्त्री की रक्षा करते हैं । प्रत्येक अलंकार स्त्री को कवचरूपी संरक्षण प्रदान करता है । पुरुष की तुलना में स्त्री अधिक संवेदनशील होती है, वह वायुमंडल की रज-तमात्मक तरंगों का स्वय ंपर प्रभाव शीघ्र दर्शाती है । इसलिए प्राचीन काल से ही अलंकार का उपयोग कर उसकी रक्षा की जाती है ।’

ऊ . अलंकारों के कारण अनिष्ट शक्तियों पर प्रतिबंध होने में सहायता मिलना

  • अलंकारों के कारण विशिष्ट अवयव के सर्व ओर चैतन्य की आकृति बनती है एवं अनिष्ट शक्तियों के लिए आगे प्रवेश करना कठिन हो जाता है, उदा. पैरों में पायल एवं हाथों में चूडियां धारण करने से अनिष्ट शक्तियां हाथ-पैरोंद्वारा शरीर में सुलभता से प्रवेश नहीं कर पातीं ।

  • आजकल कुछ विवाहित स्त्रियों को हाथों में स्वर्ण के कंगन-चूडियां पहनने का मन नहीं करता, रात को सोते समय वे चूडियां एवं मंगलसूत्र उतार कर रख देती हैं । स्त्रियों के मन में ऐसे विचार अनिष्ट शक्तियां ही उत्पन्न करती हैं । इससे स्त्रियों पर आक्रमण करना अनिष्ट शक्तियों के लिए सुलभ हो जाता है । प्रत्यक्ष में स्वर्ण के कंगन, चूडियां एवं मंगलसूत्र के कारण हाथ और गले का अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होती है ।

  • कुछ स्त्रियों को पसीना न आते हुए भी गरदन पर फुंसियां होती हैं । ऐसे में उन्हें लगता है कि मंगलसूत्र पहनने से फुंसियां हुई हैं । अतः वे स्वर्ण का मंगलसूत्र उतारकर हलका बनावटी मंगलसूत्र पहनती हैं । इससे भी अनिष्ट शक्तियों को लाभ होता है । मंगलसूत्र के कारण अनिष्ट शक्तियों से गरदन की रक्षा होती है ।

  • अनिष्ट शक्तियों की पीडा होने पर भी स्त्रियों को देह पर धारण किए अलंकार उतार देने का मन करता है । हमने पढा है कि प्राचीन काल में रानियां क्रोधित होने पर कोप भवन में जाकर देह के सर्व अलंकार उतार देती थीं ।’

ए. स्वर्ण के एवं चांदी के अलंकारों के कारण अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होना

        अलंकारों में स्वर्ण एवं चांदी आदि धातुओं के कारण विशिष्ट प्रकार की अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का प्रतिकार होना :‘स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होती हैं । इस कारण उन पर अच्छी और अनिष्ट दोनों प्रकार की शक्तियों का शीघ्र परिणाम होता है, जो दीर्घकाल तक बना रहता है । अलंकार बनाने में प्रयुक्त स्वर्ण तथा चांदी आदि धातुओं के कारण विशिष्ट प्रकार की अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का प्रतिकार किया जाता है और कष्टदायक तरंगों से स्त्री की रक्षा होती है । स्त्रियों में सात्त्विकता की वृद्धि हो तथा अनिष्ट शक्तियों से उनकी रक्षा हो, इस हेतु स्त्रियां अलंकार धारण करें ।’

  • बलवान अनिष्ट शक्तियों से रक्षा हेतु, कटि (कमर) के ऊपरी भाग के अलंकार स्वर्ण के होना :

    ‘सामान्यतः स्त्रियों के अलंकारों में से कटि के ऊपरी भाग में धारण किए जानेवाले अलंकार स्वर्ण के बने होते हैं । स्वर्ण से तेज का संवर्धन होता है । इसलिए इसका उपयोग भूमि से वरिष्ठ स्तर पर (टिप्पणी १) कार्य करनेवाली बलवान अनिष्ट शक्तियों से रक्षा के लिए किया जाता है । इसलिए देह के मध्यम और वरिष्ठ स्तर के समस्त अलंकार स्वर्ण से बने होते हैं । (मणिपुरचक्र से ऊपर के चक्रों में अच्छी शक्ति ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है; अतएव नाभि से ऊपर के भाग में तेज प्रक्षेपित करनेवाले स्वर्र्ण के अलंकार धारण किए जाते हैं ।)स्वर्ण के कारण विशिष्ट पट्टी में स्थित क्रियाशक्तिरूपी वरिष्ठ अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का प्रतिकार किया जाता है ।

    टिप्पणी १ – वरिष्ठ स्तर अर्थात भूमि से ८ से १० फुट ऊपर, मध्यम स्तर अर्थात ५ से ६ फुट ऊपर और भूमि के निकट अर्थात २ से ३ फुट ऊपर की दिशा का भाग ।

  • पाताल से प्रक्षेपित कनिष्ठ तरंगों से रक्षा होने के लिए कटिभाग के (कमर के) एवं पैरों के अलंकारों में चांदी का उपयोग किया जाना :

    साधारणतः स्त्रियों के अलंकारों में कटि से (कमर से) निचले भाग में धारण किए जानेवाले अलंकार चांदी के होते हैं । चांदी में रजोगुणी चैतन्ययुक्त इच्छातरंगें ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए विशिष्ट कार्य के लिए पूरक धातु के अलंकारों का उपयोग विशिष्ट अवयव के लिए किया जाता है । पाताल से प्रक्षेपित पृथ्वी और आप तत्त्वयुक्त कष्टदायक तरंगों से रक्षा होने के लिए कटिप्रदेश और पैरों के अलंकारों में चांदी का विशेषरूप से प्रयोग किया जाता है ।’

२. विधवाओं को अलंकार क्यों धारण नहीं करने चाहिए ?

अ. जब सौभाग्यरूपी धारणा का लय होता है, तब वैराग्य भावना का उदय होता है !

        ‘जब सौभाग्यरूपी धारणा का लय होता है, तब वास्तविक अर्थ से स्त्री में विद्यमान उत्पत्तिसंबंधी तेजधारणा से (तेज धारण करने की क्षमता से) पुष्ट बीज नष्ट हो जाता है और उसी स्थान पर वैराग्यभावना का उदय होता है । तेजस्विता का लय होना, अर्थात अलंकाररूपी शृंगारत्व त्यागकर अलंकारविरहित वैराग्य जीवन आरंभ करना ।

आ . स्त्री में वैराग्यभाव की शीघ्र निर्मिति होने के लिए कलियुग में अलंकार त्याग की संकल्पना दृढ होना

        स्त्री में वैराग्यभाव का शीघ्र निर्माण होने के लिए कलियुग में अलंकारत्याग की संकल्पना दृढ हुई । पूर्वकाल में स्त्रियां तेजरूपी साधना से परिपक्व होती थीं । इसलिए उनमें धीरे-धीरे साधना के उत्तरोत्तर चरणों में वैराग्यभाव की निर्मिति होती थी । अब साधना के अभाववश अलंकार-त्यागद्वारा विधवा स्त्री में वैराग्यभाव की निर्मिति हो और वह शीघ्रता से मोक्षप्राप्ति की ओर अग्रसर हो, इस उद्देश्य से बाह्यतः विधवा स्त्री के लिए अलंकार-त्यागस्वरूप की आवश्यकता प्रतीत हुई । अलंकारों के स्पर्श से स्त्री में रजोगुण निरंतर जागृत अवस्था में रहता है; जबकि अलंकारविरहितता की भावना से रजोगुण का लय होकर वैराग्यभाव की निर्मिति शीघ्र होती है ।’

३. अलंकार धारण करने के कुछ व्यवहारिक सुझाव

अ. अब तक जो भी जानकारी दी गयी है उससे अलंकार धारण करने का महत्व स्पष्ट हो गया होगा । यदि घर के बाहर अलंकार धारण करना संभव न हो तो कम से कम धर्म ग्रंथों में बताए अनुसार घर पर रहते समय अलंकार धारण करने चाहिए ।

आ. यदि स्वर्ण अलंकार खरीदना संभव न हो तो स्वर्ण के पत्र चढे अलंकार पहने अथवा कम से कम इस प्रकार के अलंकार पहने

इ. यह स्मरण रखें कि अलंकार धारण करने में भाव अधिक महत्वपूर्ण है न कि कितने और किस गुण के धारण किए हैं ।

संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्त्विक ग्रंथ ‘स्त्री-पुरुषों के अलंकार

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