मंदिरों को वापस कीजिए !

मंदिर हिन्दू धर्म की आधारशिला और हिन्दू धर्मियों के लिए चैतन्य के स्रोत हैं । विदेशी आक्रमणों के सहस्रों वर्ष पश्‍चात भी हिन्दू धर्म टिका रहा; इसका प्रमुख कारण मंदिर संस्कृति था । ऐसी महान संस्कृति होते हुए भी आज उन्हीं हिन्दुओं की मंदिरोंपर अर्थात उनकी संपत्ति तथा उनके पास उपलब्ध सभी प्रकार की साधनसंपत्ति का उपयोग अन्य धर्मियों के तुष्टीकरण के लिए, पैसे उडाने के लिए, अपनी जेब भरने के लिए और प्रलंबित विकासकार्य करने के लिए किया जा रहा है । इसके केवल २ ही उदाहरण देने हों, तो एक है श्री साईबाबा संस्थान द्वारा विविध उत्सवों की निमंत्रणपत्रिकाएं छापने के लिए प्रतिवर्ष ६० लाख रुपए का व्यय किया है । दूसरा उदाहरण है विगत अनेक वर्षों से श्री तुळजाभवानी देवस्थान के अधिकारी और कर्मचारियों ने ही देवी के आभूषण, मूल्यवान माणिक, चांदी की वस्तुएं और प्राचीन ७१ सिक्के गायब किए हैं । जांच समिति ने विधानसभा और जिलाधिकारी को यह ब्यौरा दिया है । वास्तव में यह ब्यौरा आने में बहुत विलंब हुआ है; क्योंकि मंदिर में घटित चोरी की घटनाएं वर्ष १९८०-८१ की अवधि की हैं । इससे अनेक बार शिकायतें और विविध माध्यमों द्वारा आवाज उठाने के पश्‍चात ही जांच समिति गठित की गई है, यह स्पष्ट होता है । इसी चोरी के प्रकरण में पिछले राज्य सरकार ने सीआईडी जांच आरंभ की है; किंतु उसका ब्यौरा और उसपर आधारित कार्रवाई वास्तव में हुई ही नहीं है । उक्त उल्लेखित दोनों मंदिरों का सरकारीकरण किया गया है, यह इसमें विशेष बात है !

निधि के उपयोग के संदर्भ में विवेकशीलता ?

वास्तव में वर्षभर के उत्सवों के लिए ६० लाख रुपए के निमंत्रणपत्रिकाओं का व्यय करने की क्या आवश्यकता है, यह एक प्रश्‍न ही है; क्योंकि जो सच्चा साईभक्त होता है, उसे ‘आप साईजी के उत्सव में आईए’, ऐसा बोलने की आवश्यकता होती है क्या ? तो इसका उत्तर ‘नहीं’, ऐसा ही देना पडेगा । जब किसी घर में विवाह अथवा वास्तुशांति अथवा व्रतबंध समारोह होता है, तब परिजनो ंको आमंत्रण देना पडता है; क्योंकि व्यवहार की दृष्टि से उन्हें सम्मान चाहिए होता है । उन्हें यदि आमंत्रणपत्रिका नहीं मिली, तो उन्हें वह अपमानकारक लगता है । इसलिए प्रतिशोध के रूप में उस कार्यक्रम में कोई नहीं जाता; परंतु संत और देवी-देवताओं के उत्सवों के संदर्भ में ऐसा नहीं होता; क्योंकि देवता-संत और भक्त का संबंध अटूट होने से भक्तों को आमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती । भारतभर में आज लाखों मंदिर ऐसे हैं कि वहां वर्षभर में होनेवाले उत्सवों के लिए भक्तों को आमंत्रण न देकर भी वे सहस्रों की संख्या में उपस्थित होते हैं । भले ही ऐसा हो; परंतु कुछ प्रतिष्ठित दानशूर व्यक्ति, शंकराचार्य, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री जैसे महनीय व्यक्तियों के उत्सव की आमंत्रणपत्रिका देने के लिए कितनी महंगी पत्रिकाएं छापनी हैं ?, इसपर विवेक और आर्थिक मितव्यय की दृष्टि से विचार होना ही चाहिए । हम अपने स्वयं के घर में विवाहपत्रिकाएं छापते समय होनेवाला व्यय, स्वयं के पास उपलब्ध धनराशि और करना आवश्यक कुल व्यय और उसमें बचत कैसे की जा सकती है ?, इसपर हम विचार करते हैं; क्योंकि वह स्वअर्जित धन होता है । ऐसा होते हु, भी यहां मंदिर के संदर्भ में विचार किया जाए, तो वहां आनेवाला धन भक्तों द्वारा श्रद्धा और भक्तिभाव से समर्पित किया जाता है । मंदिर में प्रतिदिन की जानेवाली पंचोपचार पूजा-अर्चना, आरती, भोग, अभिषेक, देवता का उत्सव और मंदिर के माध्यम से समाज को धर्मशिक्षा मिले; इसके लिए भक्त मंदिर में धन समर्पित करते हैं । अतः इस निधि का व्यय करते समय यदि श्री साईबाबा संस्थान द्वारा धन उडाया गया, तो उससे महापाप तो लगता ही लगता है; परंतु उसके आगे जाकर बताना हो, तो इस प्रकार से मंदिर के धन को उडानेवालों को देवता, संत, अवतार अथवा श्री साईबाबा की अवकृपा झेलनी पडती है । यह अवकृपा दिखाई न देनेवाली होने से कालांतर से उसका परिणाम अवश्य ही दिखाई देगा; परंतु यही धर्मशास्त्र का भाग आज जिन मंदिरों का सरकारीकरण किया गया है, उनके न्यासियों को कैसे ज्ञात होगा; क्योंकि उन्हें तो धर्म और नैतिकता की शिक्षा ही नहीं मिली है । इसीलिए ही उनके द्वारा देवनिधि को प्रचुर मात्रा में उडाया जा रहा है और उसके द्वारा अपने स्वार्थ के साथ ही उनके परिचितों के जेब भरने का काम हो रहा है ।

भक्त ही न्यासी होने चाहिए !

अकेले श्री साईबाबा संस्थान का विचार करना हो, तो वर्ष २००८ में तत्कालीन राष्ट्रपति की यात्रा में दी गईं सुविधाओंपर ९३ लाख रुपए, शिरडी हवाईअड्डे के निर्माण हेतु ६० करोड रुपए, श्रीरामपुर में भक्तनिवास हेतु ११२ करोड रुपए आदि प्रकार से मंदिर का धन उडाया गया । संस्थान ने वर्ष २०१५ में नासिक में संपन्न सिंहस्थ कुंभपर्व के लिए पुलिस विभाग द्वारा की गई मांग के अनुसार ६६ लाख ५५ सहस्र ९९७ रुपए की वस्तुओं का बढे मूल्य से क्रय किया । इसपर ही न रुकते हुए संस्थान ने नगर जनपद के निळवंडे परियोजना के लिए राज्य सरकार को ५०० करोड रुपयों का बिना ब्याजवाला ऋण दिया; परंतु अब न्यायालय ने ही इस निर्णयपर रोक लगा दी है । संस्थान के न्यासियों द्वारा इस प्रकार के अन्य कुछ अयोग्य निर्णय लेनेसहित कुछ अनुचित परंपराएं भी स्थापित की गई हैं । वहां केवल श्री साईबाबा संस्थान की संपत्ति का ही दुरूपयोग, अपहार और धन को उडाने का भाग होता है, ऐसा नहीं है, अपितु महाराष्ट्रसहित कर्नाटक, आंध्र पदेश, ओडिशा आदि देशभर के अन्य राज्यों में सरकारीकरण किए गए मंदिरों के संदर्भ में भी यही स्थिति है । मंदिरों के धन को मदरसों और चर्चों में बांटा जा रहा है । भक्त मंदिर की दानपेटी में उनके धन को उडाने के लिए अथवा उसमें भ्रष्टाचार करने के लिए धन समर्पित नहीं करते । अतः भक्तों को उनके द्वारा समर्पित धन के विनियोग की जानकारी वैधानिक पद्धति से पूछनी चाहिए । आज भक्तों को ही सरकारीकरण किए गए मंदिरों की संपत्ति का उचित उपयोग होने हेतु मंदिरों को भक्तों के अधीन करने की मांग करनी चाहिए, साथ ही मंदिरों के न्यासियों के रूप में केवल भक्तों की नियुक्ति हो; इसका आग्रह रखना चाहिए !

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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