सुरत – आलिशान जीवन का त्याग कर जैन धर्मिय हीरा व्यापारी के 8 वर्ष की बेटी ने ग्रहण की संन्यास दीक्षा

सुरत (गुजरात) – यहां हीरे व्यापारी की केवल ८ वर्ष की बेटी ने जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की है । लडकी का नाम देवांशी है, उसने विलासी जीवन त्याग कर भिक्षुकी होने का निर्णय लिया । वयस्क होने पर देवांशी करोडो रुपए के हीरे आस्थापन की स्वामिनी बनी होती; परंतु उसने सभी विलासिता त्याग कर संन्यासी जीवन स्वीकारा । वह हीरे व्यापारी धनेश तथा आमी संघवी दांपत्य की बडी बेटी है । देवांशी के पिता ‘संघवी एंड सन्स’ प्रतिष्ठान के स्वामी है तथा गत ३० वर्षाें से उनका हीरों को काटने तथा उनका निर्यात करने का व्यवसाय है । उनका घराना पूर्व से ही धार्मिक है । ८ वर्ष की देवांशी को हिन्दी तथा अंग्रेजी के साथ अनेक भाषाओं का ज्ञान है । इतना ही नहीं, अपितु देवांशी संगीत, नृत्य तथा योगा में भी कुशल है । देवांशी का बचपन से ही अध्यात्म के प्रति आकर्षण था । उसके परिवारजनों ने कहा कि यहां आयोजित एक कार्यक्रम में आचार्य कीर्तीयशसुरी ने देवांशी को संन्यास दीक्षा दी है ।

क्या होती है जैन धर्म में दीक्षा !

जैन धर्म में दीक्षा ग्रहण करना अर्थात सभी भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग करना है । दीक्षा लेनेवालों को तपस्वी का जीवन जीना पडता है । जैन धर्म में इसे ‘चरित्र’ अथवा ‘महानिभिश्रमण’ भी कहते हैं । दीक्षा ग्रहण करने के उपरांत अहिंसा, सत्य बोलना, ब्रह्मचर्य पालन, अस्तेय अर्थात लालसा न करना एवं अपरिग्रह अर्थात आवश्यक इतना ही संचय करने का पालन करना पडता है । भिक्षा मांग कर जीवन यापन करना पडता है । सूती वस्त्र परिधान करना पडतो हैं । पैदल यात्रा करनी पडती है । दीक्षा ग्रहण करते समय अपने सिर के केश स्वयं के हाथ से खिंच कर निकालने पडते है । तदुपरांत दीक्षा लेने का क्रम पूर्ण होता है ।

क्यों ग्रहण करते हैं लडके-लडकियां दीक्षा !

१. गत कुछ वर्षाें में भारी मात्रा में छोटे बच्चे तथा युवक जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं । भौतिक सुखसुविधाएं उन्हें आनंद नहीं दे सकीं; इसीलिए सादगी में जीवन जीने तथा स्वयं को ईश्वर की उपासना हेतु समर्पित करने का निर्णय ये लडके-लडकियां ले रहे हैं ।

२. जैन मुनियों की कठोर जीवनशैली उन्हें वास्तव में जीवन का सार प्रतीत होती है ।

३. घर के अभिभावकों का धर्म से दृढ संबंध ही उन्हें दीक्षा की दिशा में ले जाता है ।

स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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