आइए, जानते हैं महाशिवरात्रि का महत्त्व एवं व्रत की विधि

पृथ्वी का एक वर्ष स्वर्गलोक का एक दिन होता है । पृथ्वी स्थूल है । स्थूल की गति अल्प होती है अर्थात स्थूल को ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए अधिक समय लगता है । देवता सूक्ष्म होते हैं एवं उनकी गति भी अधिक होती है । इसलिए उन्हें ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए अल्प समय लगता है । यही कारण है कि, पृथ्वी एवं देवता इनके कालमान में एक वर्ष का अंतर होता है । शिवजी रात्री एक प्रहर विश्राम करते हैं । उनके इस विश्राम के काल को ‘महाशिवरात्रि’ कहते हैं । महाशिवरात्रि दक्षिण भारत एवं महाराष्ट्र में शक संवत् कालगणनानुसार माघ कृष्ण चतुर्दशी तथा उत्तर भारत में विक्रम संवत् कालगणनानुसार फाल्गुण कृष्ण चतुर्दशी को आती है ।

१. महाशिवरात्रि का महत्त्व

१. महाशिवरात्रि के दिन शिवतत्त्व नित्य की तुलना में १००० गुना अधिक कार्यरत रहता है । शिव तत्त्व का अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने हेतु महाशिवरात्रि के दिन शिव की भावपूर्ण रीति से पूजा-अर्चा करने के साथ ‘ॐ नमः शिवाय ।’ यह नामजप अधिकाधिक करना चाहिए ।’

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२. एक निर्दयी एवं महापापी व्याध (बहेलिया), एक दिन आखेट (शिकार)करने निकला । मार्ग में उसे शिवमंदिर दिखाई दिया । उस दिन महाशिवरात्रि थी । इस कारण, शिवमंदिर में भक्तजन पूजन, भजन, कीर्तन करते दिखाई दे रहे थे । ‘पत्थर को भगवान माननेवाले मूर्ख लोग, ‘शिव शिव’ और ‘हर हर’ कह रहे हैं’, इस प्रकार से उपहासात्मक वक्तव्य करते हुए वह वन में गया । आखेट (शिकार) ढूंढने के लिए वह एक वृक्ष पर चढकर बैठ गया । किंतु पत्तों के कारण उसे आखेट दिखाई नहीं दे रहा था । इस कारण उसने एक-एक पत्ता तोडकर नीचे गिराना आरंभ किया । यह कृत्य करते समय वह शीत से पीडित होकर, ‘शिव शिव’ कहता जा रहा था । तोडकर नीचे पेंâके जानेवाले बेल के पत्ते उस वृक्ष के नीचे स्थित शिव की पिंडी पर गिर रहे थे, जिसका ज्ञान बहेलिए को नहीं था । प्रातःकाल उसे एक हिरण दिखाई दिया । बहेलिया उसे बाण मारने ही वाला था कि हिरण उससे बाण न मारने की विनती करने लगा । तत्पश्चात पाप का परिणाम बताकर वहां से चला गया । अनजाने हुआ महाशिवरात्रि का जागरण, शिव पर चढे बेलपत्र और शिव के जप के कारण बहेलिए के पाप नष्ट हुए एवं ज्ञान भी प्राप्त हुआ । इस कथा से ज्ञात होता है कि अनजाने में भी हुई शिवजी की उपासना से शिव कितने प्रसन्न होते हैं !

२. व्रत के प्रधान अंग

इस व्रत के तीन अंग हैं – उपवास, पूजा एवं जागरण ।

३. व्रत की विधि

फाल्गुन कृष्ण पक्ष त्रयोदशी पर एकभुक्त रहें । चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल व्रत का संकल्प करें । सायंकाल नदी पर अथवा तालाब पर जाकर शास्त्रोक्त स्नान करें । भस्म और रुद्राक्ष धारण करें । प्रदोषकाल में शिवजी के मंदिर जाएं । शिवजी का ध्यान करें । तदुपरांत षोडशोपचार पूजा करें । भवभवानी प्रीत्यर्थ (यहां भव अर्थात शिव) तर्पण करें । नाममंत्र जपते हुए शिवजी को एक सौ आठ कमल अथवा बिल्वपत्र अर्पित करें । पुष्पांजलि अर्पित कर, अघ्र्य दें । पूजासमर्पण, स्तोत्रपाठ तथा मूलमंत्र का जाप हो जाए, तो शिवजी के मस्तकपर चढाए गए फूल लेकर अपने मस्तकपर रखें और शिवजी से क्षमायाचना करें ।’ ‘महाशिवरात्रि पर शंकरजी को आम्रमंजरी (आम के बौर का गुच्छा) भी अर्पण करते हैं ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

अ. महाशिवरात्रि को हर एवं हरि एक होते हैं; इसलिए शंकर को तुलसी तथा विष्णु को बेल चढाते हैं ।

४. यामपूजा

शिवरात्र की रात्रि के चारों प्रहरों में चार पूजा करने का विधान है, जिसे यामपूजा कहा जाता है । प्रत्येक यामपूजा में देवता को अभ्यंगस्नान कराएं, अनुलेपन करें, साथ ही धतूरा, आम तथा बेलपत्र अर्पित करें । चावल के आटे के २६ दीप जलाकर देवता की आरती उतारें । पूजा के अंत में १०८ दीप दान करें । प्रत्येक पूजा के मंत्र भिन्न होते हैं; मंत्रोंसहित अघ्र्य दें । नृत्य, गीत, कथाश्रवण इत्यादि करते हुए जागरण करें । प्रातःकाल स्नान कर, पुनः शिवपूजा करें । पारण अर्थात व्रत की समाप्ति के लिए ब्राह्मणभोजन कराएं । आशीर्वाद प्राप्त कर व्रतसमाप्ति हो जाती है । बारह, चौदह अथवा चौबीस वर्ष जब व्रत हो जाएं, तो उनका उद्यापन करें ।’

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