९३ वा ‘अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन’ : सम्मेलन या औपचारिकता ?

धाराशिव – यहां संत गोरोबाकाका साहित्य नगरी में ९३ वे ‘अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन’ को आज १० जनवरी से प्रारंभ हुआ है । सम्मेलन के आरंभ में सुबह ९ बजे मां तुळजाभवानी क्रीडा संकुल से ग्रंथदिंडी संपन्न हुई । ग्रंथदिंडी सम्मेलन स्थल पर पहुंचने के बाद मराठवाडा साहित्य परिषद के अध्यक्ष कौतिकराव ठाले-पाटील इनके द्वारा ध्वज को फहराया गया ।

साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष फ्रांसिक दिब्रिटो समेत ३५ चर्च के १२५ पादरी एवं सहयोगी

कोई भी मराठी साहित्यप्रेमी इस साहित्य सम्मेलन को उपस्थित रह सकता है; किंतु पादरीयों को सम्मेलन में लाकर दिब्रिटो क्या दिखाना चाहते है ? फादर फ्रान्सिस दिब्रिटो लेखक न होकर ईसाई धर्मप्रसारक होने का आरोप कई बार हुआ है । यह आरोप सत्य होने की बात इस घटना से सिद्ध होती है । ‘यह साहित्य सम्मेलन है या ईसाई प्रसार सम्मेलन ?’, ऐसा प्रश्‍न मराठीप्रेमियों को मन में आ सकता है !

धाराशिव – अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष फादर फ्रान्सिस दिब्रिटो इनके साथ मुंबई के वसई क्षेत्र से ३५ चर्च के १२५ पादरी तथा सहयोगी आए है । यहां के विद्यमाता हायस्कूल में उनके निवास एवं प्रार्थना की व्यवस्था की गई है ।

इस विषय में कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र उपस्थित होते है….

जब करने के लिए बहुत कुछ होता है, तब उतनी क्षमता भी होती है; परंतु वास्तव में ठोस कुछ भी नहीं किया जाता, अपितु उसके विपरीत बहुत कुछ किए जाने का चित्र खडा किया जाता है और तब उससे विषय का सारभाग उपेक्षित रहता है । अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन की विगत कुछ वर्षों में कुछ ऐसी ही स्थिति बनी होने का चित्र है, जो अर्थात ही दुर्भाग्यजनक है । आज से धाराशिव (महाराष्ट्र) में ९३वां अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन मनाया जा रहा है । मराठी भाषा के सारस्वतोंपर जिन्होंने अपनी सभी निष्ठाएं ईसा मसी के चरणों में समर्पित की है, उन फ्रान्सिस दिब्रिटो को संमेलनाध्यक्ष के रूप में विराजमान होने का दृश्य देखने की स्थिति आई है । इसी फ्रान्सिस दिब्रिटो ने अपना लेखन मराठी में किया, वह कोई भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के अधःपात के लिए ! अखिल भारतीय स्तर के सम्मेलन के लिए उनका अध्यक्ष चुना जाना निंदनीय तो था ही; परंतु इस चयन के विरुद्ध उठी आवाज का बहुत-कुछ संज्ञान भी नहीं लिया गया । या शुभ्रवस्राव्रता कहकर जिस विद्या की देवता सरस्वतीजी की आराधना की जाती है, तो भविष्य में इस शुभ्र वस्र ईसाई धर्मोपदेशक का गाऊन, ऐसा समीकरण बनेगा, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी ।

विशेष बात यह कि दिब्रिटोसहित वसई परिसर के ३५ चर्चों से आए १२५ पादरी भी सम्मेलन में उपस्थित रहेंगे और उनके निवास और प्रार्थना का प्रबंध एक विद्यालय में किया गया है । वास्तव में इस गिरोह के लिए स्वागताध्यक्ष द्वारा कालिन बिछाई जाना अपेक्षित नहीं है, इसका कारण विगत कुछ वर्षों में इस सम्मेलन की भटकी हुई दिशा में है । प्रतिवर्ष बडे गाजेबाजे के साथ सम्मेलन का आयोजन किया जाता है; किंतु इस तुलना में सम्मेलन के माध्यम से होनेवाला कार्य मामुली ही होता है । वर्षों से सम्मेलनों का आयोजन कर भी मराठी भाषा के सामने की चुनौतियां आज भी जैसी की वैसी ही हैं और इसके विपरीत उसमें बढोतरी ही हो रही है । प्रत्येक वर्ष के सम्मेलन में पिछले वर्ष में मराठी के संवर्धन की दृष्टि से किए गए कार्य का वस्तुनिष्ठ लेखाजोखा रखा गया, तो सम्मेलन की फलोत्पत्ति ध्यान में आ सकती है; परंतु फलोत्पत्ति के संदर्भ के चिंतन की सम्मेलन में व्ययकलन ही होता हुआ दिखाई देता है । यह साहित्य सम्मेलन भाषा के संदर्भ में कुछ ठोस करने के संबंध में ध्यान में रहने के स्थानपर सम्मेलन के कारण उठनेवाले विवादों के कारण ही स्मरणीय बन रहा है । वास्तव में मराठी साहित्य सम्मेलन एक बडा और प्रतिष्ठा का व्यासपीठ है; किंतु विगत कुछ वर्षों में इस सम्मेलन की गुणवत्ता गिरकर उसे केवल एक औपचारिकता का स्वरूप आ गया है । इसीलिए तो जिन्होंने इस साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षपद का निर्वहन किया तथा जो कवी, लेखक और क्रांतिकारी स्वतंत्रतावीर सावरकरजी के संदर्भ में जब कांग्रेस द्वारा निचले स्तर की राजनीति की गई, तब इस सम्मेलन के कर्ता-धर्ताआें में धुरीणों में उसकी निंदा करने का सौजन्य भी दिखाई नहीं दिया । स्वतंत्रतावीर सावरकरजी राजनीतिकदृष्टि से एक महान नेता तो थे ही; परंतु उसके परे भी वे एक उच्च कोटि के लेखक और प्रतिभावान कवी भी थे । उनकी कविता और उनके प्रेरक वाक्य आज भी पाठकों के मन में देशभक्ति के तरंग उत्पन्न करते हैं । जब ऐसे व्यक्ति के चरित्रपर कीचड उछाला गया, तब साहित्यकार के नाते इस सम्मेलन में कांग्रेसियों के इस आचरण की निंदा की जाना आवश्यक है ।

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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