गुरुकुल शिक्षणपद्धति

आजतक आपने अनेक बार भारतकी प्राचीन शिक्षण पद्धति गुरुकुलके विषयमें सुना होगा । इस शिक्षणप्रणालीमें गुरूके घर जाकर शिक्षा प्राप्त करना , इतनाही अर्थ आपको ज्ञात होता है । गुरुकुल निश्चित क्या है, वहांकी दिनचर्या, अध्यापन पद्धति कैसी होती है, इत्यादि ज्ञात होनेके लिए उदाहरण के रूपमें एक गुरुकुल पद्धतिकी जानकारी यहां दे रहे हैं । गुरुकुल शिक्षण पद्धतिद्वाराही श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे आदर्श पुरुष होते हैं । इस कारण उसकी उपयोगिता अनन्यसाधारण ही है ।

दिनचर्या

‘गुरुकुलकी दिनचर्यामें कडा अनुशासन होता है ।

अ. प्रात: ५ बजे प्रार्थना, गंगास्नान, सूर्यनमस्कार, योगासन, गायत्री मंत्र का जप, इत्यादि कृत्य होते हैं ।

आ. तदुपरांत दिनमें ११.३० तक पाठ होते हैं ।

इ. तदनंतर भिक्षा मांगना; ब्रह्मचर्यव्रतका एक अनिवार्य भाग है भिक्षाटन ।

ई. तत्पश्चात् १ घंटा विश्राम कर पुन: पाठ होते हैं ।

उ. सूर्यास्तसे दस-पंद्रह मिनट पूर्व अध्ययन बंद करते हैं ।

ऊ. तदुपरांत संध्या स्तोत्रपठन एवं थोडासा उपाहार ।

ए. विश्राम ।

अध्ययन-अध्यापन

नूतन पाठका संबंध पूर्वपाठसे होता है । पूर्वावलोकन होता है । पाठ आरंभ करनेसेपूर्व आचार्य दस मिनट पूर्वपाठ कहांतक ज्ञात हुआ, इसकी परीक्षा लेते हैं । तदनंतर नया पाठ आरंभ होता था । छात्रोंकी सिद्धता हो रही है अथवा नहीं यह प्रतिदिन ही ज्ञात होता है । अर्थात् प्रतिदिन परीक्षा ही होती है । इस कारण परीक्षा कब है, परीक्षाकी सिद्धता कैसे करें , ऐसे प्रश्नही नहीं होते हैं ।

आर्थिक सहायता

हमारे शिक्षणसंस्थान कभी भी शासनकी सहायतापर निर्भर नहीं रहे एवं आज भी नहीं हैं । समाजके व्यक्तिही उन्हें धन देते हैं एवं ऐसा कर वे स्वयंको कृतार्थ मानते हैं । शासन कभी भी शिक्षाप्रणाली अथवा संस्थानोंमें हस्तक्षेप नहीं करता था । हमारी प्राचीन राजनीति तथा शासनप्रणालीका यह दंडक होता था । शिक्षाक्षेत्र पूर्णतः स्वायत्त होता था ।

गुणवान बच्चोंको, अल्प गुणवान बच्चोंके कारण, विषय धीमी गतिसे सीखना अनिवार्य न करनेवाली गुरूकुल पद्धति; जबकि वर्तमान शिक्षणप्रणालीमें यह सुविधा नहीं है ।

मानलें एक बच्चा कुशाग्र बुद्धिका है तथा दसवीं तककी पढाई वह तीन वर्षोंमेंसहजतासे पूर्ण कर प्रथम श्रेणीमें उत्तम प्रतिशतके साथ उत्तीर्ण होनेकी उसकी क्षमता है; परंतु वर्तमान शिक्षाप्रणालीमें वैसी व्यवस्था नहीं है । अन्योंके साथही उसे ११ वीं तककी पढाई पूर्ण करनी पडती है । इस कारण उसके जीवनके ८ वर्ष व्यर्थ जाते हैं । प्रत्येक परीक्षामें वह प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण हो सकता है; परंतु वर्तमान शिक्षा पद्धति उसे इसकी अनुमति नहीं देती तथा उसके ८ बहुमूल्य वर्ष व्यर्थ जाते हैं ।

हमारी गुरुकुल पद्धतिमें ऐसा नहीं होता । छात्र गुरुसे संहिता सीखते हैं । एक मंद बुद्धि छात्रको केवल पुरुषसूक्त कंठस्थ करने में एक महीनेकी अवधि लगती है । दूसरा छात्र ८ दिनोंमें वह सूक्त याद कर लेता है है । गुरुजी उसे आगेका सौरसूक्त सिखाते हैं । तदनंतर तीसरा, चौथा सिखाते हैं । उसकी प्रगतिमें अन्य छात्रोंके कारण बाधा नहीं आती । कुछ छात्र ३ वर्षोंमें संहिता कहने लगते है । आगे पद, क्रम, जटा, घन इत्यादिकी सिद्धता करते हैं । मंद विद्यार्थीको कदाचित् (शायद) ५-६ वर्ष लग सकते हैं । इस पद्धतिके कारण किसीकी भी हानि नहीं होती थी ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामी (साप्ताहिक सनातन चिंतन, २७ दिसंबर २००७)

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