श्री गणेश चतुर्थी पूजाविधि

आषाढ पूर्णिमा से कार्तिकी पूर्णिमा तक, इन १२० दिनों में विनाशकारक, तमप्रधान यमतरंगें पृथ्वी पर अधिक मात्रा में आती हैं । इस काल में उनकी तीव्रता अधिक होती है एवं इसी काल में, अर्थात भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक, गणेश तरंगों के पृथ्वी पर अधिक मात्रा में आने से, यमतरंगों की तीव्रता को घटाने में सहायता मिलती है ।

श्री गणेश चतुर्थी पर तथा श्री गणेशोत्सवकाल में नित्य की तुलना में पृथ्वी पर गणेशतत्त्व १ सहस्र गुना अधिक कार्यरत रहता है । इस काल में की गई श्री गणेशोपासना से गणेशतत्त्व का लाभ अधिक होता है ।

श्री गणेश चतुर्थी के दिन पूजी जानेवाली मूर्ति घर कैसे लाएं ?

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१. श्री गणेशजी की मूर्ति घर लाने के लिए घर के कर्ता पुुरुष अन्यों के साथ जाएं ।

२. मूर्ति हाथ में लेनेवाला व्यक्ति हिन्दू वेशभूषा करे, अर्थात धोती-कुर्ता अथवा कुर्ता-पजामा पहने । वह सिरपर टोपी भी पहने ।

३. मूर्ति लाते समय उसपर रेशमी, सूती अथवा खादी का स्वच्छ वस्त्र डालें । मूर्ति घर लाते समय मूर्ति का मुख लानेवाले की ओर तथा पीठ सामने की ओर हो । मूर्ति के सामने के भाग से सगुण तत्त्व, जब कि पीछे के भाग से निर्गुण तत्त्व प्रक्षेपित होता है । मूर्ति हाथ में रखनेवाला पूजक होता है । वह सगुण के कार्य का प्रतीक है । मूर्तिका मुख पूजक की ओर करने से उसे सगुण तत्त्व का लाभ होता है और अन्यों को निर्गुण तत्त्व का लाभ होता है ।

४. श्री गणेशजी की जयजयकार और भावपूर्ण नामजप करते हुए मूर्ति घर लाएं ।

५. घर की देहली के बाहर खडे रहें । घर की सुहागिन स्त्री मूर्ति लानेवाले के पैरों पर दूध और तत्पश्‍चात जल डाले ।

६. घर में प्रवेश करने से पूर्व मूर्ति का मुख सामने की ओर करें । तदुपरांत मूर्ति की आरती कर उसे घर में लाएं ।

परिवार के किस सदस्यको यह व्रत रखना चाहिए ?

श्री गणेश चतुर्थी के दिन रखे जानेवाले व्रत को ‘सिद्धिविनायक व्रत’ के नाम से जाना जाता है । वास्तव में परिवार के सभी सदस्य यह व्रत रखें । सभी भाई यदि एक साथ रहते हों, अर्थात सभी का एकत्रित द्रव्यकोष (खजाना) एवं चूल्हा हो, तो मिलकर एक ही मूर्ति का पूजन करना उचित है । यदि सब के द्रव्यकोष और चूल्हे किसी कारणवश भिन्न-भिन्न हों, तो उन्हें अपने-अपने घरों में स्वतंत्र रूप से गणेशव्रत रखना चाहिए । कुछ परिवारों में कुलाचारानुसार अथवा पूर्व से चली आ रही परंपरा के अनुसार एक ही श्री गणेशमूर्ति पूजन की परंपरा है । ऐसे घरों में प्रतिवर्ष भिन्न-भिन्न भाई के घर श्री गणेश मूर्ति की पूजा की जाती है । कुलाचार के अनुसार अथवा पूर्व से चली आ रही एक ही श्री गणेशमूर्ति के पूजन की परंपरा तोडनी न हो, तो जिस भाई में गणपति के प्रति भक्तिभाव अधिक है, उसी के घर गणपति की पूजा करना उचित होगा ।

नई मूर्ति का प्रयोजन

पूजाघर में गणपति की मूर्ति होते हुए भी नई मूर्ति लाने का उद्देश्य इस प्रकार है – श्री गणेश चतुर्थी के समय पृथ्वी पर गणेशतरंगें अत्यधिक मात्रा में आती हैं । उनका आवाहन यदि पूजाघर में रखी गणपति की मूर्ति में किया जाए तो उसमें अत्यधिक शक्ति की निर्मिति होगी । इस ऊर्जित मूर्ति की उत्साहपूर्वक विस्तृत पूजा-अर्चना वर्षभर करना अत्यंत कठिन हो जाता है । उसके लिए कर्मकांड के कडे बंधनों का पालन करना पडता है । इसलिए गणेश तरंगों के आवाहन के लिए नर्इ मूर्ति उपयोग में लाई जाती है । तदुपरांत उसे विसर्जित किया जाता है । सामान्य व्यक्ति के लिए गणेश तरंगोंको अधिक समय तक सह पाना संभव नहीं । इसलिए कि, गणपति की तरंगों में सत्त्व, रज एवं तम का अनुपात ५:५:५ होता है, तथापि सामान्य व्यक्ति में इसका अनुपात १:३:५ होता है ।

गणेशतत्त्व आकर्षित और प्रक्षेपित करनेवाली रंगोलियां

श्री गणेश का पूजन, संकष्टी चतुर्थी, गणेशोत्सव जैसे प्रसंगों पर घर में अथवा देवालय में श्री गणेश का तत्त्व आकर्षित और प्रक्षेपित करनेवाली सात्त्विक रंगोलियां बनाएं । इससे वहां का वातावरण गणेशतत्त्व से प्रभारित होकर उससे सभीको लाभ होता है ।

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शास्त्रोचित विधि एवं रूढि की अवधि

भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के दिन मिट्टी का गणपति बनाते हैं । उसे बाएं हाथ पर रखकर वहीं उसकी ‘सिद्धिविनायक’ के नाम से प्राणप्रतिष्ठा एवं पूजा कर तुरंत ही विसर्जित करने की शास्त्रोचित विधि है; परंतु मनुष्य उत्सवप्रिय है, इसलिए इतना करने पर उसका समाधान नहीं होता । इसलिए डेढ, पांच, सात अथवा दस दिन रखकर उसका उत्सव मनाने लगे । कई लोग (ज्येष्ठा) गौरी के साथ गणपति का विसर्जन करते हैं ।

कुलाचारांतर्गत किसी के परिवार में पांच दिन गणपति रखने की प्रथा है और यदि वह डेढ अथवा सात दिन रखना चाहता है, तो ऐसा कर सकता है । इसके लिए उसे किसी अधिकारी व्यक्ति से पूछने की आवश्यकता नहीं है । रूढि अनुसार पहले, दूसरे, तीसरे, छठे, सातवें अथवा दसवें दिन श्री गणेशविसर्जन करें ।

आसन पर मूर्ति की स्थापना

जिस चौकी पर मूर्ति की स्थापना करनी है, उस पर पूजा के पूर्व चावल (धान्य) बिछाते हैं एवं चावलों पर मूर्ति रखते हैं । अपनी-अपनी प्रथानुसार थोडे चावल अथवा चावल का छोटासा पुंज बनाते हैं । चावल पर मूर्ति रखने का लाभ आगे दिए अनुसार होता है । मूर्ति में गणपति का आवाहन कर उसकी पूजा करने से मूर्ति में शक्ति निर्मित होती है, जिससे चावल संचारित होते हैं । समान कंपनसंख्या के दो तंबूरों के दो तार हों, तो एक तार से नाद उत्पन्न करने पर वैसा नाद दूसरी तार से भी उत्पन्न होता है । उसी प्रकार मूर्ति के नीचे रखे चावलों में शक्ति के स्पंदन निर्मित होने से घर में रखे चावलों के भंडार में भी शक्ति के स्पंदन निर्मित होते हैं । इस प्रकार शक्ति से आवेशित चावल वर्षभर प्रसाद के रूप में ग्रहण कर सकते हैं ।

पूर्वपूजाविधियां तथा उनका महत्त्व

आगे दी गई पूजा की विधि में प्रत्येक विधि के विशेष मंत्र का उच्चारण करते हैं ।

१. आचमन : इससे अंतर्शुद्धि होती है ।

२. देशकाल : देशकाल का उच्चारण करें ।

३. संकल्प : संकल्प बिना किसी भी विधि का फल मिलना कठिन होता है ।

४. आसनशुद्धि : इसके लिए अपने आसनको स्पर्श कर नमस्कार करें ।

५. श्री गणपतिपूजन : नारियल पर अथवा सुपारी पर श्री गणपति का आवाहन कर उनका पूजन करें ।

६. पुुरुषसूक्त न्यास : पुुरुषसूक्त बोलते हुए पूजक अपना हृदय, मस्तक, चोटी, मुख, दोनों नेत्र तथा भ्रूमध्य के स्थान पर देवता की स्थापना करें । इससे सात्त्विकता बढने में सहायता मिलती है ।

७. कलशपूजा : कलश में सर्व देवता, समुद्र एवं पवित्र नदियां इत्यादि का आवाहन कर कलश को गंध, अक्षत एवं फूल चढाने चाहिए । इस सात्त्विक जल का पूजा में प्रयोग करते हैं ।

८. शंखपूजा : शंख धोकर उसमें जल भरें, फिर शंख पर गंध एवं श्‍वेत फूल चढाएं । शंख पर अक्षत तथा तुलसीदल न चढाएं ।

९. घंटापूजा : देवताओं के स्वागत हेतु एवं राक्षसोंको निकालने के लिए घंटानाद करें । घंटा धोकर, बाएं हाथ में रखकर, उस पर गंध, अक्षत एवं फूल चढाएं ।

१०. दीपपूजा : दीप पर गंध एवं फूल चढाएं ।

११. श्री गणपति की मूर्ति पर बांधे विशिष्ट बंदनवार (कच्चे फल, कंदमूल इत्यादि का एकत्रित बंधन, जिसे गोवा राज्य में ‘माटोळी’ कहते हैं) पर गंध, पुष्प एवं अक्षत चढाकर पूजा करें ।

१२. पवित्रिकरण : शंख में भरे पानीको अपने दाहिने हाथ में उंडेलकर अपने ऊपर तथा पूजासामग्री पर छिडकें ।

१३. द्वारपूजा : हाथ में फूल एवं अक्षत लेकर सर्व दिशाओं में बिखेरें । यह दिक्पाल पूजा ही है ।

१४. प्राणप्रतिष्ठा : देवता की मूर्ति के हृदय पर दाहिना हाथ रख मंत्रोच्चारण करें । श्री गणेश चतुर्थी पर अथवा नई मूर्ति स्थापित करने के लिए प्राणप्रतिष्ठा करते हैं । यह सामान्य पूजा में नहीं किया जाता; क्योंकि प्रतिदिन पूजित मूर्ति में ईश्‍वरीय तत्त्व आ चुका होता है ।

१५. ध्यान : ‘वक्रतुण्ड महाकाय’ इस मंत्र का उच्चारण करें ।

१६. आवाहन : आमंत्रण के समय ‘ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः’ इस मंत्र का उच्चारण करते हुए अक्षत चढाएं । देवता का तत्त्व मूर्ति में तुरंत आने हेतु अक्षत सहायक है ।

१७. आसन : आसनप्रीत्यर्थ अक्षत चढाएं ।

१८. पाद्य (पादप्रक्षालन) : चरण धोने के लिए फूलों से / दूर्वा से मूर्ति के चरणोंपर जल छिडकें ।

१९. अर्घ्य : चम्मच में जल लेकर उसमें चंदन-गंध घोलकर, उस जलको फूल से श्री गणपति के शरीर पर छिडकें । यह गुलाबजल छिडककर स्वागत करने के समान है ।

२०. आचमन : देवता आचमन कर रहे हैं, ऐसा मानकर आचमनी में जल लेकर देवताको चढाएं ।

२१. स्नान : देवता पर आचमनी से जल डालकर स्नान कराना चाहिए ।

२२. पंचामृतस्नान : प्रथम पंचामृत से (दूध, दही, घी, मधु एवं शक्कर इस क्रम से) स्नान कराएं । प्रत्येक बार आचमनी में जल लेकर स्नान कराएं । तदुपरांत आचमन हेतु तीन बार आचमनी से जल डालकर अंत में चंदन, अक्षत तथा फूल चढाएं ।

२३. पूर्वपूजा : गंध, अक्षत, फूल (गणपतिको लाल फूल), धूप, दीप इत्यादि से पूजा कर बचे हुए पंचामृत का भोग लगाएं । इसके लिए मूर्तिके सामने जल का मंडल बनाकर उस पर पंचामृत रखें । (मंडल बनाने पर देवताओंके अतिरिक्त अन्य शक्तियां भोग ग्रहण करने हेतु नहीं आतीं ।) देवताको नैवेद्य अर्पित करने की दो पद्धतियां हैं ।

पद्धति १ – कर्मकांड के स्तर पर : नैवेद्य पर दो तुलसीदलों से पानी प्रोक्षण कर (छिडककर) एक दल नैवेद्य पर रखें एवं दूसरा देवता के चरणों में अर्पित करें । तदुपरांत ‘प्राणाय स्वाहा…..’ आदि मंत्रों का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की पांचों उंगलियों के सिरों से नैवेद्य की सुगंध देवता की ओर ले जाएं ।

पद्धति २ – भाव के स्तर पर : नैवेद्य पर दो तुलसीदलों से पानी प्रोक्षण कर (छिडककर) एक दल नैवेद्य पर रखिए तथा दूसरा देवता के चरणों में अर्पित करें । तदुपरांत हाथ जोडकर ‘प्राणाय स्वाहा….’ इत्यादि मंत्र से देवताको नैवेद्य समर्पित करें । पूजा के अंत में हाथ तथा मुंह धोने की क्रिया के संदर्भ में तीन बार ताम्रपात्र में जल अर्पित करें । गंध में फूल डूबोकर गणपतिको चढाएं । देवता के समक्ष बीडा रखकर उस पर जल अर्पित करें । फूल चढाकर प्रणाम कर ताम्रपात्र में जल अर्पित करें ।

२४. अभिषेक : पूर्वपूजा उपरांत अभिषेक करते हैं । अथर्वशीर्ष या ब्रह्मणस्पतिसूक्त से अभिषेक करें । उस समय दूब अथवा लाल फूल से मूर्ति पर जल छिडकें ।

२५. वस्त्रार्पण : रुई से बने दो लाल वस्त्र लेकर ‘समर्पयामि’ कहते हुए एक वस्त्र मूर्ति के गले में अलंकार के समान पहनाएं तथा दूसरा वस्त्र मूर्ति के चरणों पर चढाएं ।

२६. यज्ञोपवीत : जनेऊ अर्पण करें ।

२७. विलेपन : छोटी उंगली के पासवाली उंगली से (अनामिकासे) चंदन लगाएं ।

२८. अक्षतार्पण : अक्षत चढाएं ।

३०. अन्य परिमलद्रव्य : हलदी, कुमकुम, गुलाल, बुक्का (काला चूर्ण), अष्टगंध आदि चढाएं ।

३१. पुष्प : लाल फूल चढाएं ।

३२. अंगपूजा : इस पूजा में चरणों से मस्तकतक प्रत्येक अवयव पर अक्षत अथवा फूल चढाते हैं ।

३३. पुष्पपूजा : एकेक प्रकार के पुष्प के साथ एक-एक विशिष्ट नाम लेते हुए देवता की ओर डंठल कर फूल चढाएं ।

३४. पत्रपूजा : एक-एक प्रकार के पत्ते के साथ एक-एक विशिष्ट नाम लेकर चरणों पर पत्री चढाएं । श्री गणेशको आगे दी गई इक्कीस प्रकार की पत्री चढाकर पूजा करते हैं – मधुमालती (मालती), माका (भृंगराज), बेल, श्‍वेत दूर्वा, बेर, धतूरा, तुलसी, शमी, चिचडा, बृहती (डोरली), करवीर (कनेर), मदार, अर्जुनसादडा, विष्णुकांत, अनार, देवदार, मरुबक (मरवा), पीपल, जाही (चमेली), केवडा (केतकी) एवं अगस्त्य । वास्तव में श्री गणेश चतुर्थी के अतिरिक्त अन्य दिन तुलसीदल गणपतिको कभी नहीं चढाते ।

३५. नामपूजा : दूबको लाल चंदन में डुबोकर एक नामजप के साथ एक चढाएं ।

३६. धूपदर्शन : धूप तथा अगरबत्ती घुमाएं ।

३७. दीपदर्शन : नीरांजन (सकर्णक एवं पंचबाती दीप) से आरती करें ।

३८. नैवेद्य (भोग) : पूर्वपूजा में बताए अनुसार भोग लगाएं ।

३९. तांबूल : देवता के समक्ष बीडा रखकर उस पर जल अर्पित करें ।

४०. दक्षिणा : पान पर दक्षिणा रखकर उस पर जल अर्पित करें ।

४१. फलसमर्पण : देवता की ओर शिखा कर देवता के समक्ष नारियल रखें । उस पर जल अर्पित करें । नारियल न मिले तो उस ऋतुमें उपलब्ध फलोें का प्रयोग करेें । (नारियल की शिखा देवता की ओर करने से नारियल में देवता की शक्ति आती है । तदुपरांत भक्त नारियल में विद्यमान शक्ति प्राप्त करने हेतु ‘प्रसाद’ के रूप में उसका सेवन करते हैं ।)

४२. आरती : आरती एवं प्रार्थना करें ।

४३. नमस्कार एवं परिक्रमा : पूजक साष्टांग नमस्कार करे और अपने चारों ओर तीन परिक्रमा लगाए ।

४४. मंत्रपुष्पांजलि : ‘ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत’ मंत्ररूपी पुष्पांजलि अर्पित करें ।

४५. प्रार्थना : ‘आवाहनं न जानामि’ इस मंत्र से प्रार्थना कर हथेली पर जल लेकर उसे ताम्रपात्र में छोडें ।

४६. दर्शनार्थियों का नमस्कार : आरती एवं मंत्रपुष्पांजलि के लिए उपस्थित तथा दिनभर में कभी भी दर्शन के लिए आनेवाले श्रद्धालु, श्री गणेशको फूल तथा दूर्वा चढाकर साष्टांग नमस्कार करें । घर के व्यक्ति उन्हें प्रसाद दें ।

४७. तीर्थप्राशन : ‘अकालमृत्युहरणं’ मंत्र का उच्चारण कर तीर्थ प्राशन करें ।

मध्यपूजाविधि

जब तक गणपति घर पर हैं, तब तक प्रतिदिन सवेरे-सायंकाल प्राणप्रतिष्ठा के अतिरिक्त गणपति की नित्य पूजा करें तथा अंत में आरतियां एवं मंत्रपुष्प बोलें ।

श्री गणेशमूर्ति की निर्मिति से लेकर विसर्जनतक की विविध सेवाओं से मिलनेवाले फल की (आध्यात्मिक लाभ की) तुलनात्मक मात्रा

सेवा फलकी मात्रा (%)
१. मूर्ति की निर्मिति
    अ. मिट्टी लाना एवं मलना १०
    आ. मूर्ति को आकार देना २५
     इ. मूर्ति को रंग देना
     र्इ. मूर्ति में देवताआें के नेत्र खुले है, एेसी कलाकृति बनाना १५
२. मूर्ति घर लाना तथा अंत में विसर्जनस्थल पर पहुंचाना ११
३. पूजा, भजन एवं आरती करना
४. भोजन बनाना एवं नैवेद्य (भोग) निवेदित करना २१
५. धूप एवं दीप प्रज्वलित करना एवं दीप अखंड जलाए रखना
कुल १००

इस सारणी से निम्नलिखित कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं ।

अ. मूर्तिकार को मिलनेवाला फल सर्वाधिक अर्थात ५५ प्रतिशत होता है; ‘श्री गणेश की सेवा’ का भाव होगा तब ही उतनी फलप्राप्ति होगी । सेवा में व्यावसायिक दृष्टिकोण जितना अधिक होता है, उतना ही उस सेवा से आध्यात्मिक लाभ अल्प मिलेगा ।

आ. अनेक परिवारों में श्री गणेशमूर्ति घर लाने तथा विसर्जनस्थल पर पहुंचाने का उत्तरदायित्व अन्य किसी व्यक्ति को पैसे देकर सौंप दिया जाता है । सारणी से स्पष्ट होता है कि ये सेवाएं स्वयं करना कितना लाभदायक होता है ।

इ. पूजा-अर्चा, आरती आदि से केवल मन ईश्‍वरचरणों में अर्पित होता है; परंतु मूर्ति बनाने, नैवेद्य बनाने जैसी सेवाओं से तन-मन दोनों ही ईश्‍वरचरणों में अर्पित होते हैं । इसलिए इन सेवाओं से मिलनेवाले फल की मात्रा तुलनात्मक अधिक है ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्री गणपति

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