नित्य देवता पूजन कैसे करें ?

१. देवता पूजन की निर्मिति

अ. पूजविधिसंबंधी कृत्यों की निर्मिति ब्रह्मांड में विद्यमान इच्छाशक्ति की सहायता से होना

पूजन, नैवेद्य-निवेदन आदि कर्मकांडसंबंधी कृत्य ब्रह्मांड की इच्छाशक्ति से (ब्रह्मांड में तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं – क्रिया, इच्छा, ज्ञान ।) संबंधित होते हैं । विशिष्ट कृत्य से जीव को उसके भाव के अनुरूप विशिष्ट देवता की इच्छाशक्ति से संबंधित तरंगें प्राप्त होती हैं ।

आ. सगुण उपासना पर आधारित हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म का आधारस्तंभ मूलतः सगुणात्मक कर्मकांड पर आधारित है । षोडशोपचार पूजन का पूर्वार्ध (१ से ८ उपचार), अर्थात जीव का कुंडलिनी मार्ग से निर्गुण ध्येय की प्राप्ति हेतु होनेवाली ऊध्र्व भासमान यात्रा जबकि उत्तरार्ध (९ से १६ उपचार) अर्थात् कार्य के लिए चरण-दर-चरण अद्वैतावस्था से होनेवाली निर्गुणमय प्रत्यक्ष यात्रा । भासमान यात्रा का अर्थ, इस यात्रा में जीव अपने भाव-भावनाओं में उतार-चढाव के कारण सगुण एवं निर्गुण में निरंतर दोलायमान रहता है जैसे हिंडोले में झूल रहा हो । ‘कभी द्वैत का भान, तो कभी अद्वैत का आकर्षण’, इसमें आनेवाले संकल्प-विकल्प से, ईश्वर जीव को बोध कराता रहता है कि ‘माया’ मृगजल समान है ।

इसलिए, इस विश्व को ‘भासमान विश्व’ कहा गया है । जब जीव द्वैत के बोध से परे जाकर आत्मशक्ति के बल पर अद्वैत की ओर बढता है, तब उसे ‘स्व’के परिपक्व पिंड के दर्शन होते हैं । इसीको, ‘माया में ब्रह्म का साक्षात्कार’ कहते हैं । यही शाश्वत अथवा प्रत्यक्ष विश्व है ।

२. देवता पूजन का महत्त्व

पंचोपचार एवं षोडशोपचार जीव को विधिवत धर्माचरण सिखाती हैं । इससे, हिन्दू धर्म में समाविष्ट उपचारों की उच्च अध्यात्मशास्त्रीय सटीकता स्पष्ट होती है ।

अ. मूर्ति के आकार के कारण उसमें देवता का तत्त्व आना; उसपर पूजादि संस्कारों के कारण उस तत्त्व का जागृत होना

प.पू. पागनीस महाराजजी द्वारा एक स्थान पर स्थापित मूर्ति के आकार के कारण उसमें २ प्रतिशत देवता का तत्त्व आ गया था । प.पू. पागनीस महाराज प्रतिदिन उस मूर्ति की पूजा करते थे । मूर्ति पर निरंतर हो रहे इन संस्कारों के कारण उसमें विद्यमान देवता का तत्त्व जागृत हुआ तथा वह ५ प्रतिशत तक बढ गया । मूर्ति के आकार के कारण उसमें तत्त्व आता है तथा पूजादि संस्कारों के कारण उसमें विद्यमान तत्त्व जागृत होता है । साथ ही, संस्कारों में भाव हो, अर्थात् पूजा के कृत्यों में भाव हो, तो मूर्ति में विद्यमान तत्त्व बढता है ।

आ. देवता की कृपा होना : देवता पूजन से देवता प्रसन्न होते हैं । अतः देवता की कृपा प्राप्त करना पूजक के लिए सुलभ होता है ।

इ. पूजक में चैतन्य बढना : देवता पूजन से पूजक द्वारा देवता का तत्त्व ग्रहण होता है । उसमें विद्यमान रज-तम की मात्रा घटकर चैतन्य वृद्धिंगत होता है ।

ई. देवता पूजन की सात्त्विक तरंगों से दिनभर का कार्य होता है ।

उ. वातावरण-शुद्धि : देवता पूजन, वातावरण की सात्त्विकता बढाने में सहायक होता है ।

४. देवता पूजन के प्रकार

धर्मशास्त्र में देवता पूजन के निम्नांकित प्रकार बताए हैं । पहले दो प्रकार, जिन्हें हम ‘पूजा’ कहते हैं, स्थूल स्तर के हैं; आगे के दो प्रकार सूक्ष्म स्तर के हैं ।

अ. पंचोपचार पूजा (मूर्ति अथवा चित्र की पूजा) : इसमें चंदन, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य, ये पांच उपचार देवता को समर्पित किए जाते हैं ।

आ. षोडशोपचार पूजा (मूर्ति अथवा चित्र की पूजा) : इसमें ऊपर उल्लेखित पंचोपचारसहित सोलह उपचारों का समावेश है ।

इ. मानस पूजा : मन से सगुण मूर्ति की कल्पना कर, उसकी पूजा करना

ई. परा पूजा : परावाणी से निर्गुण परब्रह्म की पूजा करना

५. देवता पूजन दिन में कितनी बार और किस समय करें ?

देवता पूजन नित्य कर्म है । प्रतिदिन त्रिकाल (प्रातःकाल, मध्याह्न तथा सूर्यास्त के उपरांत) षोडशोपचार (सोलह उपचारों से) पूजा करें । यदि ऐसा त्रिकाल करना संभव न हो तो प्रातः षोडशोपचार पूजन करें तथा दोपहर और सूर्यास्त के उपरांत पंचोपचार पूजन करें । त्रिकाल पूजन करना संभव न हो तो सवेरे न्यूनतम एक बार पूजन करें । षोडशोपचार तथा पंचोपचार पूजन असंभव हो, तो चंदन और पुष्प के दो उपचारों से पूजन करें । धर्मशास्त्र में इस प्रकार विकल्प दिए गए हैं । इसका उद्देश्य यह है कि किसी भी स्थिति में उपासक द्वारा देवता पूजन हो !

अ. शास्त्रोें में देवता के त्रिकाल पूजन का उपदेश होते हुए भी, कलियुग में केवल सवेरे के पूजन के प्रचलन के विविध कारण

शास्त्रोें में देवता के त्रिकाल पूजन का उपदेश होते हुए भी, कलियुग में केवल सवेरे के पूजन के प्रचलन के विविध कारण ‘पूर्वकाल सात्त्विक था, इसलिए त्रिकाल पूजन कर दिनभर के तीन प्रहरों में होनेवाली ब्रह्मांड की रज-तमात्मक ऊत्सर्जनात्मक धारणा को नष्ट कर वायुमंडल शुद्ध रखना संभव था; परंतु अब कलियुग में सात्त्विकता का लोप हो गया है । इसलिए कर्मकांड की भांति धर्म के सर्व आचारों का पालन करना असंभव हो गया है । अतः न्यूनतम सवेरे के समय भावपूर्वक पूजा कर देवता से प्रक्षेपित चैतन्य वास्तु में बनाए रखने हेतु प्रतिपादित यह रूढीवाद है । कलियुग में मानव ने सर्व देवधर्म छोडना आरंभ कर दिया है । इसलिए संतों ने न्यूनतम प्रातःकाल तो पूजा करने की शिक्षा दी है ।

६. देवता पूजन कब नहीं करना चाहिए ?

अ. स्नान किए बिना तथा मादक पदार्थ के प्रभाव में

आ. सूतक अर्थात् जननाशौच एवं मरणाशौच । जननाशौच अर्थात् घर में संतान होने पर परिवारवालों को लगनेवाला अशौच तथा मरणाशौच अर्थात् घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर परिवारवालों को लगनेवाला अशौच । सूतक लगने पर दस दिनों तक अशौच रहता है । ग्याहरवें दिन शुद्धि कर पूजा की जा सकती है । सूतक लगने पर कर्ता १२ वें दिन के उपरांत ही पूजा कर सकता है ।

इ. घर की स्त्री रजस्वला हो और जिस कक्ष में उसका विचरना न होता हो, उस कक्ष में पूजाघर स्थापित हो, तो घर के ज्येष्ठ पुरुष स्नानोपरांत पूजा करें । स्थान के अभाव में यदि पूजा घर दूसरे कक्ष में रखना संभव न हो, तो चार दिन (स्त्री का रजोकाल समाप्त होनेतक) पूजाघर को पट से (परदे से) ढककर रखें । विशिष्ट कारण से इस प्रकार पूजाघर को ढककर रखना अनुचित नहीं है । वैष्णव संप्रदाय के मंदिरों में भी ‘भगवान स्नान कर रहे हैं, भगवान सो रहे हैं’ आदि कारणों से भगवान की मूर्ति पट से (परदे से) ढककर रखने की पद्धति है । यह एक प्रकार से भगवान के लिए अलग कक्ष बनाने समान ही है ।

स्त्री के रजोकालमें पूजाघर को पटसे ढकें । इसके कारण निम्न हैं ।

१. रजोकाल में स्त्री का रजोगुण बढता है । पूजाघर खुला रहने से देवताओं से प्रक्षेपित सात्त्विक स्पंदन अधिक मात्रा में बाहर निकलते हैं । इस सात्त्विक शक्ति से स्त्री को कष्ट हो सकता है ।

२. रजोकाल में स्त्री के रजोगुण में वृद्धि होती है तथा उसके अस्तित्व के कारण वातावरण एक प्रकार से अपवित्र बन जाता है । संपूर्ण वास्तु राजसिक स्पंदनों से दूषित होती है । देवता की मूर्ति पर भी राजसिक स्पंदनों का आवरण आता है । उपरोक्त कारणों से चार दिन देवता पूजन न करें; परंतु मानसपूजा अवश्य करें । पांचवें दिन घर में गोमूत्र (उपलब्ध न हो तो विभूति का जल) छिडककर तथा धूप दिखाकर वास्तुशुद्धि करें । तदुपरांत सदैव की भांति देवता पूजन आरंभ करें ।

७. देवता पूजन किस दिशा में करना चाहिए ?

पूर्व दिशा का विशेष महत्त्व है तथा उस दिशा की ओर मुख कर पूजा विधि करने हेतु बताया गया है; इसीलिए पूजा घर सदैव पूर्व-पश्चिम दिशा में होना उचित है । (इस विषय में अधिक जानकारी इस लेख में दी है ।)

८. देवता पूजन किसे करना चाहिए ?

यद्यपि ऐसा नियम नहीं है कि देवता पूजन कोई एक व्यक्ति ही करे, तथापि साधारणतः परिवार का ज्येष्ठ पुरुष शुचिर्भूत होकर देवता पूजन (पूजा घर में रखे देवता, वास्तु देवता इत्यादि की पूजा) करे । पुरुष न हो, तो घर की ज्येष्ठ स्त्री पूजा करे । वह नाम मंत्र सहित पूजा करे । एक व्यक्ति द्वारा पूजा किए जाने के उपरांत दूसरा पुनः पूजा न करे । देवता पूजन के उपरांत यदि संभव हो, तो घर के सभी सदस्य भगवान को फूल चढाएं तथा नमस्कार करें । यथासंभव आरती के समय सभी उपस्थित रहकर एक स्वर में तथा भावपूर्वक आरती करें । यदि ऐसा संभव न हो, तो कोई एक सदस्य आरती गाए एवं अन्य सभी तालियां बजाएं ।

९. देवता पूजन की पद्धति

  • आवाहन (पुकारना) : देवता का ध्यान करें । ‘ध्यान’ अर्थात् देवता का वर्णन व स्तुति । ‘देवता अपने अंग, परिवार, आयुध और शक्तिसहित पधारें व मूर्ति में प्रतिष्ठित होकर हमारी पूजा ग्रहण करें’, इस हेतु संपूर्ण शरणागतभाव से देवता से प्रार्थना करना, यानी ‘आवाहन’ करना । आवाहन के समय हाथ में गंध, अक्षत एवं तुलसीदल अथवा पुष्प लें । तदुपरांत देवता का नाम लेकर अंत में ‘नम:’ बोलते हुए उन्हें गंध, अक्षत, तुलसीदल अथवा पुष्प अर्पित कर हाथ जोडें । उदा. श्री गणपति के लिए ‘श्री गणपतये नम:’ । श्री दुर्गादेवी के लिए ‘श्री दुर्गादेव्यै नम: ।
  • आसन देना : आसन के रूप में विशिष्ट देवता को प्रिय पुष्प-पत्र आदि (उदा. श्रीगणेशजी को दूर्वा, शिवजी को बेल, श्रीविष्णु को तुलसी) अथवा अक्षत अर्पित करें ।
  • चरण धोने के लिए जल देना : देवता को ताम्रपात्र (तामडी) में रखकर उनपर आचमनी से जल चढाएं ।
  • हाथ धोने के लिए जल देना : आचमनी में जल लेकर उसमें गंध, अक्षत व पुष्प डालकर, उसे देवतापर चढाएं ।
  • आचमन (कुल्ला करने के लिए जल देना) : आचमनी में कर्पूर-मिश्रित जल लेकर, उसे देवता को अर्पित करने के लिए ताम्रपात्र में छोडें ।
  • स्नान (देवतापर जल चढाना) : धातु की मूर्ति, यंत्र, शालग्राम इत्यादि हों, तो उनपर जल चढाएं । मिट्टी की मूर्ति हो, तो पुष्प अथवा तुलसीदल से केवल जल छिडकें । चित्र हो, तो पहले उसे सूखे वस्त्र से पोंछ लें । तदुपरांत गीले कपडे से, पुन: सूखे कपडे से पोंछें ।
  • वस्त्र : देवताओं को कपास के दो वस्त्र अर्पित करें । एक वस्त्र देवता के गले में अलंकार के समान पहनाएं, तो दूसरा देवता के चरणों में रखें ।
  • उपवस्त्र अथवा यज्ञोपवीत (जनेऊ) देना : पुरुषदेवताओं को यज्ञोपवीत (उपवस्त्र) अर्पित करें ।
  • गंध (चंदन) लगाना : प्रथम देवता को अनामिका से गंध लगाएं । इसके उपरांत दाहिने हाथ के अंगूठे व अनामिका के बीच चुटकीभर लेकर, पहले हलदी, फिर कुमकुम देवता के चरणों में चढाएं ।
  • पुष्प-पत्र (पल्लव) चढाना : विशिष्ट देवता को उनका तत्त्व अधिक मात्रा में आकृष्ट करनेवाले विशिष्ट पुष्प-पत्र चढाएं, उदा. शिवजी को बेल व गणेशजी को लाल पुष्प आदि । पुष्प देवता के सिरपर चढाने की अपेक्षा चरणों में अर्पित करें, पुष्पका डंठल देवता की ओर और मुख अपनी दिशा में रहे ।
  • धूप दिखाना : देवता को धूप दिखाते समय उसे हाथ से न फैलाएं । विशिष्ट देवता का तत्त्व अधिक मात्रा में आकृष्ट कर पाने हेतु, उनके सम्मुख विशिष्ट सुगंध की उदबत्तियां जलाएं, उदा. शिवजी को हिना व श्री लक्ष्मीदेवी को गुलाब । साधारणत: दो उदबत्ती से आरती उतारें ।
  • दीपसे आरती उतारना : घडी के कांटों की दिशा में देवता की दीप-आरती तीन बार धीमी गति से उतारें । साथ ही, बाएं हाथ से घंटी बजाएं ।

अ. नैवेद्य निवेदित करना

  • देवता को नैवेद्य के रूप में दूध-शक्कर (दुग्ध-शर्करा), मिश्री, शक्कर-नारियल, गुड-नारियल, फल, खीर, भोजन इत्यादि पदार्थों में से अपने लिए जो संभव हो, वह समर्पित करें । नैवेद्य केले के पत्तेपर परोसें । नमक न परोसें ।
  • मिर्च, नमक और तेल का प्रयोग कम करें और घी जैसे सात्त्विक पदार्थों का प्रयोग अधिक करें ।
  • देवता से प्रार्थना कर देवता के सामने धरतीपर जल से चौकोर मंडल बनाएं व उसपर नैवेद्य का पत्ता (या थाली) रखें । नैवेद्य के पत्ते का डंठल देवता की ओर व अग्रभाग अपनी ओर हो ।
  • नैवेद्य के पत्ते के चारों ओर तुलसी के दो पत्तों से जल से गोलाकार मंडल बनाएं । तदुपरांत तुलसीदल से पत्तों से नैवेद्यपर जल प्रोक्षण कर उसमें से एक पत्ता नैवेद्यपर (अन्नपर) रखें व दूसरा देवता के चरणों में चढाएं ।
  • कर्मकांड के स्तर की पद्धति : बाएं हाथ का अंगूठा बाईं आंखपर व बाएं हाथ की अनामिका दाईं आंखपर रखकर आंखें मूंद लें और ‘ॐ प्राणाय स्वाहा । ॐ अपानाय स्वाहा । ॐ व्यानाय स्वाहा । ॐ उदानाय स्वाहा । ॐ समानाय स्वाहा । ॐ ब्रह्मणे स्वाहा ।।’, पंचप्राणों से संबंधित इस मंत्र का उच्चारण करते हुए नैवेद्य की सुगंध को दाहिने हाथ की पांचों उंगलियों के सिरों से देवता की ओर दिशा दें ।
  • उसके उपरांत ‘नैवेद्यमध्येपानीयं समर्पयामि ।’ बोलते हुए दाहिने हाथ से ताम्रपात्र में थोडा जल छोडें व पुन: ‘ॐ प्राणाय…’, पंचप्राणों से संबंधित इस मंत्र का उच्चारण करें । उसके उपरांत ‘नैवेद्यम् समर्पयामि, उत्तरापोशनम् समर्पयामि, हस्तप्रक्षालनम् समर्पयामि, मुखप्रक्षालनम् समर्पयामि’ बोलते हुए दाहिने हाथ से ताम्रपात्र में जल छोडें ।
  • नैवेद्य अर्पित करने के उपरांत अंत में देवता के सामने नारियल, दक्षिणा, तांबूल व सुपारी रखें । देवता की दीप-आरती करें ।
  • तदुपरांत देवता की कर्पूर आरती करें ।  देवता को मन:पूर्वक नमस्कार करें ।

नमस्कार के उपरांत देवता के चारों ओर परिक्रमा करें । परिक्रमा के लिए स्थान न हो तो अपने आसनपर ही तीन बार घूम जाएं ।

मंत्रपुष्प का उच्चारण कर, देवता को अक्षत अर्पित करें । पूजा में हमसे जाने-अनजान में हुई गलतियों व कमियों के लिए अंत में देवता से क्षमा मांगें और पूजा की समाप्ति करें ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार