मृत व्यक्ति को अग्नि देने के पश्चात १३ वें दिन तक किए जानेवाले धार्मिक संस्कार

पूर्वजों की अतृप्ति के कारण, परिजनों को होने वाले कष्टों तथा अनिष्ट शक्तियों द्वारा लिंगदेह के वशीकरण की संभावना भी अल्प हो जाती है । किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसका क्रियाकर्म धर्मशास्त्र में बताए अनुसार पुरोहित से करवाएं । अधिकांश स्थानों पर अंत्यविधि के विषय में ज्ञानी पुरोहित शीघ्र मिलना कठिन होता है । ऐसी स्थिति में साधारणतः  मृत व्यक्ति को अग्नि देने के पश्चात १३ वें दिन तक क्या करना चाहिए यह आगे दिया गया है ।

१. दहन विधि के पश्चात उसी दिन किए जाने वाले कृत्य

अ. शास्त्रानुसार पद्धति

  • दहन विधि के पश्चात तुरंत नदी, तालाब अथवा कुंए पर कर्ता सहित सभी परिजन स्नान करें ।
  • तिलांजली देने के लिए एक पात्र में जल लेकर कर्ता उसमें काले तिल डालें । तत्पश्चात कर्ता, परिजन तथा आप्तजन उसी स्थान पर ‘….गोत्र (मृत व्यक्ति के गोत्र का उच्चारण करे) ….प्रेत (मृत व्यक्ति के नाम का उच्चारण करें) एष ते तिलतोयाञ्जलिस्तवोपतिष्ठताम् ।’, कहते हुए अश्मा पर पितृ तीर्थ से ३ बार तिलांजली दे । जिनके पिता विद्यमान हैं, ऐसों ने तिलांजली नहीं देनी चाहिए ।
  • घर आने पर पहले अश्मा आंगन के तुलसी वृंदावन के परिसर में रखना चाहिए; परंतु तुलसी में नहीं रखना चाहिए । तुलसीवृंदावन न हो, तो अश्मा घर के बाहर सुरक्षित स्थान पर रखें ।
  • घर में प्रवेश करने से पूर्व नीम की पत्ती चबाएं । तत्पश्चात आचमन कर अग्नि का दर्शन कर तथा जल, गोमय, श्वेत राई आदि मांगलिक पदार्थों को हाथ से स्पर्श करते हुए पत्थर पर (घर की पत्थर की सीढी) पैर रखकर धीरे धीरे घर में प्रवेश करें ।
  • भोजन के लिए पडोसी के घर कढी-चावल बनाकर वह मृतक के घर लाना चाहिए । उसमें से थोडा भाग एक पत्ते पर लेकर वह वास्तु देवता आणि स्थान देवता के लिए नैवेद्य स्वरूप घर के बाहर रखना चाहिए । शेष अन्न इष्ट देवता को अर्पण करने के पश्चात सभी ग्रहण करें ।

आ. शास्त्रानुसार बाहर स्नान करना संभव न होने पर आचरण में लाई जाने वाली पद्धति

  • घर आने पर पहले अश्मा आंगन के तुलसी वृंदावन के परिसर में रखें; तुलसी में नहीं रखना चाहिए । तुलसीवृंदावन न हो तो अश्मा घर से बाहर सुरक्षित स्थान पर रखें ।
  • घर में प्रवेश करने से पूर्व सर्वांग पर गोमूत्र छिडककर शुद्धि करें ।
  • नीम की पत्ती चबाएं … धीरे धीरे घर में प्रवेश करें । – यह कृत्य ऊपर किए गए उल्लेख के अनुसार करें ।
  • नामजप करते हुए सर्व स्नान करें ।
  • ऊपर किए गए उल्लेख के अनुसार तिलांजली दें ।
  • भोजन के लिए पडोसी के घर कढी-चावल…..ग्रहण करें । – यह कृत्य ऊपर किए गए उल्लेख के अनुसार करें ।

२. अस्थिविसर्जन

दाह संस्कार के दिन अथवा मृत होने के तीसरे, सातवें अथवा नौवें दिन अस्थिसंचय कर उनका विसर्जन दस दिनों के भीतर करना चाहिए । अंतिम संस्कार होने के पश्चात तीसरे दिन अस्थि एकत्रित करना अधिक योग्य होता है । दस दिनों के उपरांत अस्थिविसर्जन करना हो, तो तीर्थ श्राद्ध कर विसर्जन करें ।

अ. अंत्यसंस्कार उपरांत तीसरे दिन ही अस्थिसंचय क्यों करते हैं ?

मंत्रोच्चार की सहायता से मृत देह को दी गई अग्नि की धधक, अर्थात अस्थियों में आकाश एवं तेज तत्त्वों की संयुक्त तरंगों का संक्रमण । यह तीन दिन के उपरांत न्यून होने लगता है । इस कारण अस्थियों की चारों ओर निर्मित सुरक्षा कवच की क्षमता भी अल्प होने लगती है । ऐसे में अस्थियों पर विधि कर, अनिष्ट शक्तियां उस जीव के लिंग देह को कष्ट दे सकती हैं और उसके माध्यम से परिजनों को भी कष्ट दे सकती हैं । इस कारण परिजन तीसरे दिन ही श्मशान जैसे रज-तमात्मक वातावरण में से अस्थियों को इकट्ठा कर वापस ले आते हैं ।

३. पिंडदान

शास्त्रानुसार पहले दिन से दसवें दिन तक प्रतिदिन तिलांजली, पिंडदान, तथा विषम दिन को विषम श्राद्ध करना चाहिए । ऐसा संभव न हो, तो नौवें दिन से उत्तर क्रिया प्रारंभ करें । आज कल पहले दिन से दसवें दिन का पिंडदान दसवे दिन एकत्रित रूप में ही करते हैं । दसवें दिन नदी के तट पर अथवा घाट पर स्थित शिवजी अथवा कनिष्ठ देवताओं के देवालय में पिंडदान करना चाहिए । दसवें दिन पिंडदान की विधि होने पर अश्मा पर नारियल का तेल डालकर उसे विसर्जित करना चाहिए ।

अ. पिंडदान कर्म नदी के तट पर अथवा घाट पर क्यों किया जाता है ?

मृत्यु के उपरांत स्थूल देहत्याग के कारण लिंग देह के आसपास विद्यमान कोष में पृथ्वीतत्त्व अर्थात जडता की मात्रा घटती है और आप तत्त्व की मात्रा बढ जाती है । लिंगदेह की चारों ओर विद्यमान कोष में सूक्ष्म आद्र्रता की मात्रा सर्वाधिक होती है । पिंडदान कर्म लिंग देह से संबंधित होता है, इस कारण लिंग देह के लिए पृथ्वी की वातावरण-कक्षा में प्रवेश करना सरल बनाने हेतु, अधिकतर ऐसी विधियां नदी के तट पर अथवा घाट पर की जाती हैं । ऐसे स्थानों में आपतत्त्व के कणों की प्रबलता होती है और वातावरण आद्र्रता (नमी)दर्शक होता है । अन्य जडता दर्शक वातावरण की अपेक्षा उक्त प्रकार का वातावरण लिंग देह को निकट का एवं परिचित का लगता है और उसकी ओर वह तुरंत
आकर्षित होता है । इसलिए पिंडदान जैसी विधि को नदी के तट पर अथवा घाट पर ही किया जाता है ।

आ. पिंडदान कर्म नदी के तट पर अथवा घाट पर शिवजी के अथवा कनिष्ठ देवताओं के मंदिरों में क्यों किया जाता है ?

सामान्यतः नदी के तटपर अथवा घाट पर बने मंदिरों में पिंडदान कर्म किया जाता है । इसके लिए अधिकांशतः शिवजी के अथवा कनिष्ठ देवता के मंदिरों का उपयोग किया जाता है; क्योंकि उस स्थान की अनिष्ट शक्तियां इन देवताओं के वश में होती हैं । इससे पिंडदान में किए आवाहनानुसार पृथ्वी की वातावरण कक्षा में प्रवेश करनेवाले लिंग देह की यात्रा में बाधाएं निर्माण नहीं होती हैं । अन्यथा पिंडदान कर्म के समय अनिष्ट शक्तियां वातावरण-कक्षा में प्रवेश करनेवाले लिंगदेह पर आक्रमण कर उसे अपने वश में कर सकती हैं । इसलिए पिंडदान कर्म से पहले उस मंदिर के देवता से अनुमति लेकर व उनसे प्रार्थना कर के ही यह विधि की जाती है ।

४. ११ वें तथा १२ वें दिन किए जाने वाले कृत्य

११ वें दिन स्नान होने के उपरांत वास्तु में पंचगव्य होम कर सर्वत्र पंचगव्य छिडकना चाहिए । सर्व लोग पंचगव्य प्राशन करें । कर्ता मृतक के उद्देश्य से संकल्प कर सीधा (भोजन की कच्ची सामग्री) तथा दशदान इत्यादि दें । घर के बाहर, गोशाला अथवा अन्यत्र एकोद्दिष्ट श्राद्ध, वसुगण श्राद्ध तथा रुद्रगण श्राद्ध करना चाहिए ।

अ. सपिंडीकरण श्राद्ध

सपिंडीकरण श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए १६ मासिक श्राद्ध सपिंडीकरण श्राद्ध से पूर्व ११ वें अथवा १२ वें दिन करना चाहिए । १२ वें दिन सपिंडीकरण श्राद्ध करना चाहिए । सपिंडीकरण श्राद्ध करने से मृत जीव को ‘पितृ’ संज्ञा प्राप्त होकर उसे पितृलोक में स्थान मिलता है । वास्तव में १६ मासिक श्राद्ध संबंधित मास में करना तथा सपिंडीकरण श्राद्ध वर्ष श्राद्ध से एक दिन पूर्व करना उचित होता है; परंतु वर्तमान में यह सर्व १२ वें दिन ही करने की परंपरा है ।

५. निधन शांतिविधि (शांतोदक) : १३ वें दिन सब को बुलाकर मीठा भोजन बनाना

१३ वें दिन पाथेय श्राद्ध कर निधन शांतिविधि करनी चाहिए । सब को आमंत्रित कर मीठा भोजन खिलाना चाहिए । वर्तमान में यह विधि १२ वें दिन ही की जाती है । १३ वें दिन की विधि से लिंगदेह पृथ्वी की वातावरण-कक्षा भेदकर आगे की गति प्राप्त करता है । लिंग देह को गति प्राप्त होना, अर्थात परिजनों से सर्व रिश्ते व बंधन टूटकर, ईश्वर से नाता जुडना । ‘प्रत्यक्ष स्थूल देह संबंधी आसक्ति छूटकर ईश्वर की ओर जाने की उत्कंठा निर्माण होती है’, इस आनंद स्वरूप प्रक्रिया के स्वागत में इस दिन सबको बुलाकर मीठा भोजन खिलाया जाता है ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘मृत्युपरांत के शास्त्रोक्त क्रियाकर्म