पूर्वकाल में स्त्रियां स्नान से पूर्व फनीघर के (प्रसाधन-पेटी के) समक्ष बैठकर अपने केश में कंघी किया करती, टूटे हुए केश को चूल्हे में डालकर जलाती और केश को खुला छोडकर घर से बाहर नहीं जाती थीं । मां अथवा नानी-दादी द्वारा केश संबंधी इस प्रकार के आचार-संस्कार सहजता से बालिकाओं पर होते थे । प्रति मास बालक को भी केश कटवाने के लिए नाई के पास भेजा जाता था । स्नानोपरांत सिर के केश में तेल लगाने का आचार भी पिता बालक को सिखाते थे । बीच के काल में धर्मशिक्षा के अभाव में हिंदुओं द्वारा धार्मिक आचार और परंपरा का धीरे- धीरे त्याग अथवा उस संबंध में अनास्था उत्पन्न हुई । इसलिए सांस्कृतिक स्तर पर हिंदू समाज की हानि तो हुई ही; उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक हानि अधिक हुई । मानवीय शरीर में प्रकृति द्वारा की गई केश की योजना केवल सौंदर्यवर्धन के लिए नहीं, तो केश के माध्यम से ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण करने के लिए तथा मनुष्य की सात्त्विकता बढाने के लिए है । इस लेख में केश के माध्यम से ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण कर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से मानव की रक्षा किस प्रकार से होती है, इसका शास्त्रीय विवेचन किया गया है ।
१. केश संवारने की उचित पद्धति
अ . केश संवारने से पूर्व तेल युक्त तीन उंगलियों से मंडल बनाना
केश संवारने के लिए बैठने से पूर्व पहलेके समय में पीढे पर बैठकर पीढे के चारों कोनों पर कुलदेवता का नामजप करते हुए हाथ की बीच की तीन उंगलियों से तेल के तीन बिंदु लगाए जाते थे । इन तीन बिंदुओं के द्वारा एक प्रकार से पीढे के सर्व ओर रजोगुणी तरंगों का मंडल बनाकर ‘केश संवारना’, इस रज-तमात्मक प्रक्रिया में अनिष्ट शक्तियों के संभावित हस्तक्षेप को अवरुद्ध किया जाता था ।
आ. केश संवारने की उचित पद्धति
पूर्वकाल में स्त्रियां स्नान करने से पूर्व अपनी शृंगारपेटी (सिंदूर, कुमकुम, मोम, कंघी रखने के लिए दर्पण वाली लकडी की पेटी) के सामने बैठकर दायां घुटना पेट से सटाकर एवं कुछ आगे झुककर तत्पश्चात ही कंघी से केश व्यवस्थित संवारती थीं । आगे झुककर कंघी करने से देहांतर्गत पंचप्राण भी निरंतर जागृत अवस्था में रहते थे । स्नान करने के पश्चात दर्पण में देखते हुए कुमकुम लगाने तथा अव्यवस्थित केश में कंघी करने से दर्पण से उपाय होकर स्त्री में रज-तमात्मक तरंगें आने की मात्रा घटती थी ।
२. कंघी नियमित धोने का तथा एक-दूसरे की कंघी का उपयोग न करने का महत्त्व
केश धोने पर मेरे सिर तथा शरीर में स्थित काली शक्ति नष्ट होती तथा इससे कष्ट न्यून होता । केश धोने के पश्चात बिना धुले कंघे से पुनः केश संवारने पर सिर तथा केश में पुनः काली शक्ति आती और कष्ट होता । तब से केश धोने के पश्चात मैं तुरंत कंघी भी धोने लगी । कपडे के साबुन से धोने पर कंघी स्थूल रूप से तो स्वच्छ हो जाती; किंतु वह सूक्ष्मरूप से उतना स्वच्छ नहीं लगती थी । विभूति के पानी से कंघी धोने पर उसमें स्थित काली शक्ति के साथ ही मेरे शरीर की काली शक्ति नष्ट हुई प्रतीत होती । उस समय ऐसा प्रतीत होता जैसे कंघी पूर्णरूप से स्वच्छ हो गई । विभूति के पानी से कंघी धोने पर उस में निहित काली शक्ति नष्ट होती है तथा उसमें चैतन्य निर्मित होता है । केश धोने के पश्चात कंघी भी विभूति के पानी से धोनी चाहिए, यह साधना आरंभ करने पर समझ में आया ।
३. एक-दूसरे की कंघी अथवा वस्तु का उपयोग न करने का महत्त्व
मार्च २००८ में मेरी (पीडाग्रस्त साधिका की) कंघी खो गई थी । उस समय एक कष्टमुक्त साधिका की कंघी का मैंने २-३ दिन उपयोग किया । आगे जब वह कष्टमुक्त साधिका उस कंघी से केश संवारती थी, तो उसका सिर भारी हो जाता, जिससे वह अस्वस्थ हो जाती थी । इससे यह सिद्ध हुआ कि पीडित साधिकाओं के केश में प्रचंड मात्रा में काली शक्ति होने से उसकी कंघी भी काली शक्ति से प्रभारित होती है । आध्यात्मिक कष्ट से पीडित व्यक्तियों को एक-दूसरे की कंघी अथवा अन्य किसी वस्तु का उपयोग नहीं करना चाहिए, इसका भान मुझे उस समय हुआ ।
४. कंघी को चैतन्य से कैसे प्रभारित करें ?
अ. कंघी को शुद्ध करने की आवश्यकता
केश में विद्यमान रजतमात्मक तरंगों का प्रभाव कंघी पर भी होता है; इसलिए कंघी सर्वदा स्वच्छ तथा चैतन्यमय रखनी चाहिए । सिर से स्नान करने पर बिन धुली अथवा शुद्ध न की गई कंघी से केश नहीं संवारने चाहिए । आगे दी हुई पद्धति से कंघी स्थूल तथा सूक्ष्म से स्वच्छ करनी चाहिए ।
१. केश संवारने के पश्चात कंघी सर्वदा पानी से धोएं ।
२. सिर से स्नान करने के दिन केश संवारने से पूर्व कंघी साबुन से धोएं । तत्पश्चात उसे खडा नमक, गोमूत्र अथवा विभूति के मिश्रण वाले पानी से धोकर धूप में सुखाएं ।
३. कंघी सात्विक अगरबत्ती के वेष्टन में रखें ।
४. प्रतिदिन कंघी को विभूति लगाएं ।
५. कंघी तथा उसके रखने के अगरबत्ती के वेष्टन को सात्विक अगरबत्ती काधुआं दिखाएं ।
आ. केश कंघी से संवारने के पश्चात वह काली शक्ति से प्रभारित होना तथा उसे अगरबत्ती के वेष्टन में रखने पर चैतन्यमय हो जाने से पुनः उपयोग में ला पाना
केश संवारने के पश्चात मेरी कंघी काली शक्ति से प्रभारित हुई लगती है । उस कंघी से पुनः केश संवारने पर मेरे केश में काली शक्ति आती है । इसपर उपाय के रूप में मैं केश संवारने के पश्चात कंघी ‘सात्विक अगरबत्ती’ के वेष्टन में रखती हूं । तब कंघी की काली शक्ति नष्ट होकर उसमें चैतन्य निर्मित होता है । पुनः केश संवारते समय कंघी का चैतन्य केश में जाकर उसकी काली शक्ति बाहर निकलती है । उस समय मेरा सिर हलका लगता है । ३-४ दिनों पश्चात उस अगरबत्ती के वेष्टन पर भी कालीशक्ति का आवरण आता है । ऐसे में उसे विभूति लगाकर अथवा देवता के चित्र के समीप रखकर प्रभारित करने पर उसमें चैतन्य निर्मित होता है ।
ई. कंघी रखने के अगरबत्ती के वेष्टन की शुद्धि क्यों करनी चाहिए ?
मैं अपनी कंघी सात्विक अगरबत्ती के वेष्टन में रखती हूं । वेष्टन की शुद्धि करने के लिए उसे भी अगरबत्ती का धुआं दिखाया । उस समय केवल वेष्टन के छोरों को धुआं न दिखाकर उसके अंदर भी धुआं दिखाया । इससे उपरोक्त अनुसार ही अनुभूति हुई । इस प्रसंग से कंघी में स्थित काली शक्ति अगरबत्ती के वेष्टन में भी संग्रहित होती है, इसलिए उसकी भी शुद्धि करना आवश्यक है, यह सिद्ध हुआ ।
५. कंघी की अपेक्षा फनी उपयुक्त
- कंघी : अब सर्वत्र कंघी के उपयोग का प्रचलन है । साथ ही, कंघी को मध्य भाग से पकडकर केश संवारने पडते हैं । ऐसे में केश से उत्सर्जित रज-तमात्मक तरंगें हाथ पर आकर संपूर्ण देह ही रज-तम से प्रभारित हो जाती है ।
- फनी : पूर्वकाल में कंघी के स्थान पर फनी का उपयोग किया जाता था । फनी दोनों हाथों से पकडने में सरल होने से केश में फनी घुमाते समय अपना हाथ उस फनी के दांतों के कार्यक्षेत्र में न आने से केश से प्रक्षेपित रज-तमात्मक तरंगों का संपर्क अपने आप ही टल जाता था । (अब फनी का प्रयोग जूं निकालने के लिए ही किया जाता है ।)
अ. फनी से केश संवारने पर काली शक्ति का वेग से आकर्षित होकर बाहर प्रक्षेपित होना तथा आवरण न्यून होना
‘कंघी से केश संवारने की अपेक्षा फनी से केश संवारने पर काली शक्ति वेग से खिंचकर बाहर फेंकी जाती है । इस कारण मन, बुद्धि तथा सिर पर आया काली शक्ति का आवरण न्यून होकर सूझने की मात्रा बढती है । कंघी से केश संवारने पर काली शक्ति का आवरण न्यून होने की मात्रा, फनी से केश संवारने की तुलना में अल्प है । यह अनुभव होने के कारण मैंने फनी से ही केश संवारने का निश्चय किया; किंतु अनिष्ट शक्ती मुझे वैसा नहीं करने देता । मैं टालमटोल करती हूं तथा कंघी से ही केश संवारे जाते हैं ।’ – कु. गिरिजा
आ. लकडी की शृंगार पेटी का महत्त्व
लकडी की शृंगार पेटी (फनीघर) में ही यह सामग्री (कुमकुम, मोम, फनी) रखी होने से लकडी में सुप्त अग्नि के कारण वह सामग्री शुद्ध भी रहती थी ।
६. केश संवारने के संदर्भ में आचार
अ. केश संवारने के पश्चात स्नान करना आवश्यक
केश अस्त-व्यस्त हो जाते हैं, इसलिए अनेक स्त्रियां स्नान के पश्चात केश संवारती हैं । केश संवारने की प्रक्रिया से देह में जो कुछ रज-तमात्मक तरंगों का संक्रमण होता है, वह स्नान के माध्यम से हुई देह की शुद्धि के कारण नष्ट होता है । इस कारण पहले केश संवारने के उपरांत स्नान करने की पद्धति है । इसके विपरीत, स्नान के पश्चात केश संवारने से देह पुनः रज-तम से अशुद्ध होती है । इससे यह ज्ञात होता है कि कलियुग का मनुष्य केवल बाह्य स्वच्छता की ओर अर्थात देह के बाह्य सौंदर्य की ओर देखता है । वह आध्यात्मिक जीवनशैली के सिद्धांत से अर्थात खरे आचार से दूर जा चुका है ।
आ. चोटी करने के पश्चात छोटी बालिका का मां को नमस्कार करना
चोटी करने के पश्चात छोटी बालिका द्वारा मां को नमस्कार करने से उस बालिका की देह में संवर्धित रज-तमात्मक तरंगों का भी उस समय देवत्वरूपी भाव के कारण उच्चाटन होता था । चोटी करने के पश्चात बहते पानी में ही हाथ धोया जाता; क्योंकि, केश में विद्यमान रज-तमात्मक तरंगों के स्पर्श से मलिन हुए कृत्यों के पापयुक्त परिणामों का भी जल के स्पर्श से परिमार्जन होता था ।
इ. केश संवारने के पश्चात टूटे हुए केश तुरंत बाहर क्यों नहीं फेंकने चाहिए ?
केश संवारने में उत्पन्न घर्षण के कारण केश में रज-तम कणों का संक्रमण बढ जाता है । इस संक्रमण के कारण केश से रज-तमात्मक वेगवान तरंगें वातावरण में प्रक्षेपित होती हैं । केश संवारते समय टूटे हुए केश भी इन तरंगों से प्रभारित होते हैं । इस कारण वातावरण में संचार करने वाली अनिष्ट शक्तियां इन रज-तमात्मक तरंगों की ओर आकर्षित होती हैं । इन तरंगों के माध्यम से काली शक्ति छोडकर अनिष्ट शक्ती उस जीव पर करनी कर सकते हैं; क्योंकि, उस व्यक्ति के केश और देह के त्रिगुणों की मात्रा समान होने से केश के माध्यम से अघोरी विधि कर अनिष्ट शक्ती उस जीव को कष्ट दे सकते हैं । दो घंटे के पश्चात केश से रज-तमात्मक तरंगों के संक्रमण का वेग न्यून होकर केश मृतवत हो जाते हैं । घर के वातावरण की अपेक्षा बाहर का वातावरण अधिक मात्रा में रजतमात्मक होने से केश संवारने के पश्चात (टूटे हुए) केश बाहर नहीं फेंकने चाहिए ।
ई. संवारते समय टूटे हुए केश तुरंत घर से बाहर फेंकने पर अनिष्ट शक्ती द्वारा उस केश के माध्यम से कष्ट दे पाना
केश संवारते समय टूटे हुए केश में विद्यमान सूक्ष्म स्पंदनों की सहायता से अनिष्ट शक्ती उस व्यक्ति के केश का उपयोग सूक्ष्म स्तरीय अघोरी यज्ञ के लिए कर सकते हैं । इससे उस व्यक्ति के केश भी अत्यधिक झडने लगते हैं । इसलिए संवारते समय टूटे हुए केश तुरंत ही बाहर फेंकना अशुभ माना जाता है । टूटे हुए केश एकत्र लपेटकर रखने चाहिए तथा दो दिन पश्चात, उनसे तरंगों का प्रक्षेपण बंद हो जाने के उपरांत ही दूर फेंकना चाहिए । संवारते समय टूटे हुए केश से रज-तमात्मक तरंगों के संक्रमण का वेग २ घंटे पश्चात घट जाता है । ऐसा होने पर भी उनमें रज-तमात्मक स्पंदन कुछ अंशों में शेष रहने की संभावना होती है । टूटे हुए केश में विद्यमान रज-तमात्मक स्पंदन दो दिन पश्चात पूर्णतः नष्ट होते हैं । इस कारण टूटे हुए केश का गुच्छा दो दिन पश्चात ही बाहर फेंकना उचित होता है ।
उ. टूटे हुए केश के गुच्छे पर थूंककर उसे जलाना
पहले चोटी करने के पश्चात एकत्र किए टूटे केश के गुच्छे पर थूंककर ही उसे बाहर पानी तपाने के स्थान पर अग्नि में जला दिया जाता था । उस पर थूंकने से चोटी करते समय देह में संक्रमित हुई अपनी देह से संबंधित रज-तमात्मक तरंगें उसमें प्रविष्ट हो जाती थीं । केश की रज-तमात्मक तरंगें अधिकतम प्रक्षेपण अवस्था में लाई जाती थीं । तदुपरांत वह गुच्छा अग्नि में भस्मसात कर अपनी देह की ऐसी तरंगों के संक्रमण को इस प्रकार रोका जाता था । थूंकने के माध्यम से देह में सक्रिय हुए वेगवान रज-तमात्मक स्पंदन अपने आप ही उत्सर्जित होकर अग्नि में जल जाने से, इस प्रक्रिया द्वारा अपनी देह पर उपाय भी होता था ।
ऊ. केश संवारने के पश्चात फनी तथा हाथ धोने की आवश्यकता
पूर्वकाल में केश संवारने के पश्चात फनी धोकर रखी जाती तथा हाथ भी धोए जाते थे । इस कारण रज-तमात्मक तरंगों के स्पर्श के माध्यम से देह में होने वाला संसर्ग अपने आप ही टल जाता था ।
ए. रात्रि में कंघी क्यों नहीं करनी चाहिए ?
अनिष्ट शक्ति से कष्ट होने की संभावना के कारण रात्रि में कंघी नहीं करनी चाहिए । ‘रात्रि के वायुमंडल में कष्टप्रद तरंगों की मात्रा अधिक होती है । गतिमान अवस्था में संचार करने वाली इन कष्टप्रद तरंगों के कारण वातावरण में तप्त ऊर्जा निर्मित होती रहती है । केश में कंघी करने की इस घर्षणात्मक प्रक्रिया से, तथा केश की गतिविधियों से उत्पन्न नाद तरंगों की ओर वायुमंडल में भ्रमण करने वाली कष्टप्रद तरंगें आकर्षित होती हैं । केश के सिरों से कष्टप्रद तरंगें वेग से जीव की देह में प्रवेश करती हैं । इस कारण जीव को अस्वस्थ लगना, शरीर भारी लगना, बुरे स्वप्न दिखाई देना, झुनझुनी होकर शरीर संवेदनहीन होना, इस प्रकार के कष्ट होते हैं । कभी-कभी कोई अनिष्ट शक्ति वेगपूर्वक संक्रमित होने वाली इन कष्टप्रद तरंगों के माध्यम से देह में प्रवेश भी कर जाती है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘केशकी आवश्यक देखभाल’