विशेषताएं एवं कार्य

१. सर्वार्थ से आदर्श

अ. आदर्श पुत्र

राम ने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया; परंतु प्रसंग पडने पर बडों को उपदेश भी दिया, उदा. वनवास के समय उन्होंने अपने माता-पिता से कहा, ‘दुःख न करो’ । जिस कैकेयी  के कारण राम को १४ वर्ष वनवास हुआ, उस कैकेयी माता को वनवास से लौटने पर रामने नमस्कार किया तथा पूर्वसमान ही उससे प्रेमसे बोले ।

आ. आदर्श बंधु

आज भी आदर्श बंधुप्रेम को राम-लक्ष्मण की ही उपमा दी जाती है ।

इ. आदर्श पति

राम एकपत्नीव्रती थे । सीता का त्याग करने के उपरांत श्रीराम ने विरक्त जीवन व्यतीत किया । आगे चलकर जब यज्ञ करना था, तब उन्होंने पुनः विवाह न कर, सीता की प्रतिकृति (प्रतिमा) साथ बिठाई । इससे राम की एकपत्नी प्रतिज्ञा व्यक्त होती है । उस काल में प्रथागत एक राजा की अनेक रानियां होती थीं । इस पृष्ठभूमि पर राम के एकपत्नीव्रती होने का तीव्रता से भान होता है ।

र्इ. आदर्श मित्र

राम ने सुग्रीव, बिभीषण इत्यादि के संकटकाल में सहायता की ।

उ. आदर्श राजा

१. गुरुसेवा के रूप में राज्यकारोबार करनेवाले : ‘वनवास से लौटने के उपरांत राज्याभिषेक हो जाने पर प्रभु श्रीरामचंद्र द्वारा अपना सर्व राज्य श्रीगुरु वसिष्ठ के चरणों में अर्पित किए जाने का उल्लेख है; क्योंकि श्रीराम की ऐसी धारणा थी कि ‘इस समुद्रवलयित पृथ्वी पर राज्यशासन का अधिकार केवल ब्राह्मण वर्णियों का ही होता है ।’ तदुपरांत श्रीराम ने श्री वसिष्ठ की आज्ञास्वरूप,  गुरुसेवा के रूप में ११००० वर्ष राज्यकारोबार चलाया । इसलिए रामराज्य अत्यंत समृद्ध था तथा उस काल में सत्ययुग का साम्राज्य था ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.

२. राजधर्म का पालन करने में तत्पर : सीता के प्रति प्रजा द्वारा शंका व्यक्त किए जाने के पश्चात अपने व्यक्तिगत संबंध का (रिश्ते का) विचार न कर, राजधर्म के पालन हेतु उन्होंने अपनी धर्मपत्नी का त्याग कर दिया । इस विषय में महाकवि कालिदास ने एक मार्मिक श्लोक लिखा – ‘कौलीनभीतेन गृहन्निरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्तः ।’ (रघुवंश, सर्ग १४, श्लोक ८४) अर्थात ‘लोकनिंदा के भय से श्रीराम ने सीताको घर से तो बाहर भेज दिया, परंतु मन से नहीं ।’

ऊ. आदर्श शत्रु

रावण की मृत्यु के पश्चात उसके भाई बिभीषण ने उसका अग्निसंस्कार करने से मना कर दिया, तब राम ने उससे कहा, ‘‘बैरी की मृत्यु के साथ बैर का भी अंत हो जाता है । तुम यदि रावण का अंतिम संस्कार नहीं करोगे, तो मैं स्वयं करूंगा । वह मेरा भी भाई था ।’’

२. धर्मपालनकर्ता

श्रीराम ने धर्म की सर्व मर्यादाओं का पालन किया; इसी कारण उन्हें ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम’ कहते हैं । ‘श्रीराम ने प्रजा को भी धर्म सिखाया । उनकी सीख आचरण में लाने से मानव की वृत्ति सत्त्वप्रधान रही तथा इस कारण समष्टि पुण्य निर्माण हुआ । अतः नैसर्गिक वातावरण मानवी जीवन के लिए सुखदायी हो गया । उसी प्रकार निवृत्तिमार्गीय तथा प्रवृत्तिमार्गियों का संबंध अखंडित रहने के कारण उसकी परिणति प्रत्येक जीव के सुखी होने में हुई । इसीलिए रामराज्य का जीवन आदर्श माना गया है ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.

३. एकवचनी

अ. यदि किसी को कोई बात सत्य प्रमाणित करनी हो, तो वह कहता है कि ‘मैं यह तीन बार दोहराता हूं ।’ (मैं त्रिवार सत्य कहता हूं ।) ‘शांति’ शब्द भी तीन बार बोला जाता है । त्रिवार सत्य में ‘त्रिवार’ शब्द का प्रयोग निम्न दो अर्थों से होता है ।

१. ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की शपथ लेकर कहता हूं ।

२. ‘त्रिवार’ शब्द त्रि + वार (अर्थात ३ बार) शब्दों से बना है । यदि तीन बार वही स्वप्न दिखाई दे, तो उसे मात्र स्वप्न न मानकर स्वप्नदृष्टांत मानते हैं । उस स्वप्नांतर्गत सूचना अनुसार कृत्य करें अथवा उस संदर्भ में किसी उन्नत पुरुष से पूछें । उसी प्रकार यदि कोई बात तीन बार सुनाई दे, तो ही उसे सत्य मानें । श्रीराम मात्र एकवचनी थे अर्थात यदि उन्होंने केवल एक बार भी कोई बात कही हो, तो वह सत्य ही होती थी । उन्हें किसी भी बातपर बल देकर तीन बार बोलने की आवश्यकता नहीं होती थी । श्रीराम से कोई नहीं पूछता था, ‘क्या यह सत्य है ?’

आ. संस्कृत व्याकरण में तीन वचन होते हैं – एकवचन, द्विवचन एवं बहुवचन । राम ‘एकवचनी’ हैं । इसका अर्थ यह कि, राम से एकरूप होना अर्थात तीन से (अनेक से) एककी ओर जाना । अनेक से एक की ओर एवं एकसे शून्य की ओर जाना, इस प्रकार अध्यात्म में प्रगति होती है । यहां पर शून्य अर्थात पूर्णावतार श्रीकृष्ण ।

इ. भूमिति अनुसार ‘तीन’ त्रिमिति (तीन डाइमेन्शन) दर्शाता है, तो श्रीराम एक मिति के दर्शक हैं । इस एक मिति से त्रिमिति निर्माण हुई है । यह एक मिति स्थल- कालातीत है ।

४. एकबाणी

श्रीराम का केवल एक ही बाण लक्ष्य भेदने का सामथ्र्य रखता था; उन्हें दूसरा बाण चलाने की आवश्यकता ही नहीं पडती थी ।

५. अति-उदार

सुग्रीव ने राम से पूछा, ‘‘बिभीषण के शरण आने पर आपने उन्हें लंका का राज्य दिया । (युद्ध आरंभ होने से पहले ही श्रीराम ने ऐसा कहा था ।) यदि रावण शरण में आ जाए, तो क्या करेंगे ?’’ उस पर श्रीराम ने कहा, ‘‘उसे अयोध्या दे दूंगा तथा हम सब भाई वन में रहने चले जाएंगे ।’’

६. सदैव स्थितप्रज्ञ रहनेवाले

स्थितप्रज्ञता उच्च आध्यात्मिक स्तरका लक्षण है । श्रीरामकी स्थितप्रज्ञावस्था निम्न श्लोकसे स्पष्ट होती है । प्रसन्नतां या न गतानभिषेकतः तथा न मम्ले वनवासदुःखतः । मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य या सदास्तु मे मञ्जुलमङ्लप्रदा ।। – रामचरितमानस, काण्ड २, अध्याय १, मङ्गलाचरण

अर्थ : राज्याभिषेक की वार्ता सुनकर जिस पर प्रसन्नता की लहर नहीं उभरी तथा वनवास का दुःख सामने खडा होने पर भी जिस पर विषण्णता (उदासी) नहीं फैली, ऐसे श्रीराम की मुखकांति हमारा नित्यमंगल करे । ‘जिसे न उल्लास हो, न संताप’, उसीको ताकी परिभाषा में स्थितप्रज्ञ कहा गया है ।

७. मानवता

सामान्य मनुष्य की भांति राम भी सुख-दुःख व्यक्त करते थे, अतः हम अन्य देवताओं की अपेक्षा उनसे अधिक समीपता अनुभव करते हैं, उदा. सीताहरण के उपरांत राम अत्यंत शोकाकुल हो गए । इस प्रसंग में भी राम का ईश्वरीय गुण किस प्रकार सिद्ध होता है, यह शिव(शंकर)-सती की आगे दी वार्ता से स्पष्ट होगा ।

सती : आप जिनका नामजप करते हैं, देखिए वह सामान्य मनुष्य जैसे अपनी पत्नी के लिए कितना शोक कर रहे हैं ।

शंकर : वह शोक मात्र दिखावा है । उन्होंने मनुष्यदेह धारण किया है, इसलिए उन्हें ऐसा व्यवहार करना पडता है ।

सती : राम वृक्षों का आलिंगन करते घूम रहे हैं, वे सीता के लिए क्या वास्तव में बांवले हो गए हैं ।

शंकर : जो मैं कहता हूं, वह सत्य है या असत्य, इसका अनुभव तुम स्वयं लो । सीता का रूप धारण कर तुम उनसे भेंट करो, तब देखो राम कैसा व्यवहार करते हैं ।

जब शिवजी के कहे अनुसार सती राम से मिलने गर्इं, तो उन्हें देखते ही राम ने नमस्कार किया और बोले, ‘‘मैंने आप को पहचान लिया । आप आदिमाया हैं ।’’ यह सुनते ही सती को विश्वास हो गया कि राम का शोक दिखावा मात्र है ।

८. रामदास एवं रामराज्य

अ. रामदास

इस शब्द के दो अर्थ हैं ।

१. राम का दास

२. वे, जिन के दास राम हैं !

आ. रामराज्य

१. ऐसा नहीं कि केवल श्रीराम ही सात्त्विक थे; अपितु प्रजा भी सात्त्विक थी । इसीलिए रामराज्य में श्रीराम की राजसभा में (दरबार में) एक भी शिकायत नहीं आई ।

२. खरा रामराज्य (भावार्थ) : पंचज्ञानेंद्रिय, पंचकर्मेंद्रिय, मन, चित्त, बुद्धि एवं अहंकारपर राम का (आत्माराम का) राज्य होना ही खरा रामराज्य है ।

संदर्भ : सनातन मा ग्रंथ, ‘श्रीविष्णु, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण