बाबाराव सावरकर

क्रांतिवीर गणेश दामोदर तथा बाबाराव सावरकर स्वा. विनायक दामोदरसावरकरजी के बडे भाई । उन्होंने ही स्वा. सावरकर को पितृतुल्य प्रेम देकर,बहुत कष्ट भोगकर छोटे से बडा किया एवं क्रांतिकार्य में उनके बराबर सहभागी हुए ।

बाबारावजी का जन्म नासिक जनपद के भगूर नामक गांव में १३ जून१८७९ को हुआ । बचपन में उनकी प्रकृति दुर्बल थी । छठे वर्ष से चौदहवें वर्षतक उन्हें लगभग दो सौ बार बिच्छू दंश हुआ । आगे क्रांतिकारी जीवन में यातना सहने की शक्ति प्राप्त हो, प्रकृति का कदाचित यही नियोजन रहा होगा । युवावस्था में भी उन्होंने अपने शरीर को बहुत कष्ट दिए । कडकडाती ठंड में भी वे खुले बदन, ओढना के बिना घर के बाहर सोते थे । उनके सिर में निरंतर क्रांति के ही विचार घूमते रहते थे । बलशाली ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध क्रांति करना, यह एक-दो व्यक्तियों का काम नहीं है, उसके लिए प्रबल एवं कट्टर संगठन की आवश्यकता है, बाबारावजी ने यह छोटी आयु में ही जान लिया। इस हेतु `मित्रमेला’ नामक संगठन की स्थापना की गई । उन्होंने आमसभा आयोजित कर राष्ट्रगुरु रामदासस्वामी, छत्रपति शिवाजी महाराज,नाना फडणवीस आदि महान पुरुषों की जयंतियां मनाना आरंभ किया । उस कारण युवाओं में तथा जनता में देशभक्ति जागृत होने में बहुत मदद हुई । इस कारण नासिकवासियों को लोकमान्य तिलक, `काल’ नामक समाचारपत्र के संपादक शिवराम महादेव परांजपेजी के देशभक्ति से ओतप्रोत भाषण सुनने का अवसर प्राप्त हुआ ।वन्दे मातरम् अभियोग !

बाबारावजी का (`साहेब’ शब्द फारसी है । इसलिए सावरकरबंधुओं ने साहब की अपेक्षा `राव’ शब्द रूढ किया । जैसे बाबारावजी, तात्यारावजी)अंग्रेज सरकार से पहला संघर्ष वर्ष १९०६ में हुआ । नासिक में आम सभा लेनेपर लगा प्रतिबंध उन्होंने तोडा, इस अपराध में उन्हें बंदी बनाया गया एवं उनके ऊपर १० रुपए का आर्थिक दंड भी थोपा गया । बाबारावजीने इसके विरुद्ध वरिष्ठ न्यायालय में याचना की जिससे उनका दंड रद्द हुआ । २७ सितंबर१९०६ को दशहरे के उपलक्ष्य में नासिक के कालिका मंदिर की ओर से सीमोल्लंघन कर वापस आनेवाले युवाओंने `वन्दे मातरम्’का जयघोष किया ।उसे सुनकर एक पुलिसने `चिल्लाना बंद करो’, ऐसा कहते हुए बाबाजीपर हाथ डाला । परंतु उस पुलिस को ही पछताना पडा । बाबजी के साथ ही सभी ने उस पुलिसवाले की पिटाई कर दी ! इस प्रसंग से संतप्त अंग्रेज सरकार ने ११युवाओंपर अभियोग लगाया । वह अभियोग `वन्दे मातरम् अभियोग’के नाम से जाना गया । इसमें बाबारावजी मुख्य आरोपी थे । यह अभियोग नासिक जनपद में भिन्न-भिन्न स्थानोंपर छह माह तक चला; क्योंकि न्यायाधीश दौरेपर रहते एवं वे जहां रहते, यह अभियोग वहीं चलता था । इस अभियोग में बाबारावजी को २० रुपए दंड होकर बडी राशि के प्रतिभू की (जमानत की) मांग की गई । अन्य युवाओं को भी इसी प्रकार के दंड दिए गए । बाबारावजीने नासिक में रहकर राष्ट्रहित की दृष्टि से मूलभूत स्वरूप के अनेक अभियान आरंभ किए । स्वदेशी अभियान, विलायती मालका बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा का आरंभ इत्यादि अभियानों का सूत्रसंचालन बाबारावजी नेतृत्व लेकर किया करते थे ।

प्रकाशक बाबाराव !

इसी समय बाबारावजी के छोटे बंधु स्वा. वि.दा. सावरकर लंदन में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे । वर्ष १९०६ में स्वा. सावरकरजीद्वारा लिखे प्रसिद्ध इटालियन क्रांतिकारी जोसेफ मैजिनी के चरित्र का हस्तलिखित बाबारावजी के पास आया । अंग्रेजो की दृष्टि से यह चरित्र अत्यंत विस्फोटक था । जून १९०७में बाबारावजी ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया । दो माह में ही २ सहस्र प्रतियों की प्रथम आवृत्ति लगभग समाप्त हो गई । इसकी सफलता के लिए पुस्तक के विषय के साथ ही बाबजी का परिश्रम भी बहुत बडा कारण था । इस पुस्तक के लिए स्वा. सावरकरजीद्वारा लिखित २६ पृष्ठों की प्रस्तावना उस समय अनेक व्यक्तियोंने कंठस्थ कीं । इसके ज्वलंत विचारों से प्रभावित होकर अनंत कान्हेरेजी ने नासिक के जनपद अधिकारी जैक्सन का वध किया ।शीघ्र ही स्वा. सावरकरजीद्वारा लिखित एवं हौलेंड में मुदि्रत `१८५७ का स्वतंत्रतासमर’ इस ग्रंथ की प्रति बाबारावजी के हाथ लगी । बाबारावजीने इसकी प्रतियां भी अत्यंत गुप्त रूप से क्रांतिकारियोंतक पहुंचार्इं । इस अदि्वतीय ग्रंथ के कारण अंग्रजों के विरुद्ध बंगाल, पंजाब एवं महाराष्ट्र में `गदर’ पक्ष की स्थापना हो सकी ! `अभिनव भारत’ संगठन के युवकों को हम किस आग से खेल रहे हैं,तथा हमारे कृत्यों को भारतीय दंड विधान में (इंडियन पिनल कोड) कौनसा दंड बताया है, यह ज्ञात हो इसलिए भारतीय दंड विधान की एक छोटी आवृत्ति भी बाबारावजीने छपवाई थी । भावना में बहकर नहीं अपितु समझ बूझकर युवा क्रांतिकार्य में आएं, इसके पीछे यह उद्देश्य था ! लंदन से स्वा. सावरकरजीने हस्तबम तैयार करने का तंत्र सिखानेवाले दस्तावेज सेनापति बापटजी के माध्यम से बाबारावजीको भेजे । बाबारावजीने हस्तबम तैयार करने की यह विधि क्रांतिकारियोंतक पहुंचाई । इस पद्धति से ही खुदीराम बोसने न्यायाधीश किंग्जफोर्ड की गाडीपर हिंदुस्थान में बनाया हुआ पहला बम फैंका !

१ माह का सश्रम कारावास !

इन सभी कार्यों के कारण अंग्रेज सरकार बाबारावजी को बंदी बनाने का अवसर ढूंढने लगी । ११ जून १९०८ को शिवरामपंत परांजपेजी को पुणे में बंदी बनाया गया तथा दूसरे ही दिन मुंबई लाकर उनपर अभियोग चलाया गया ।स्वराज्य अभियान के संबंध में परांजपेजी के ओजस्वी तथा परिणामकारक वक्तव्य से अनेक युवा आकर्षित हुए थे । इसलिए परांजपेजी की गिरफ्तारी से बाबारावजी सहित अनेक युवा क्षुब्ध हुए । उन्हें किसी प्रकार सहायता करें इस उद्देश्य से बाबारावजी भी मुंबई आए । यहां के न्यायालय के समक्ष एक खोजाजमात के व्यापारी का पुलिस अधिकारी बहुत उत्पीडन कर रहे थे, यह बाबारावजी ने देखा । बाबारावजी का युवा रक्त खौल उठा । उस व्यापारी का साथ देते हुए बाबारावजीने उस पुलिस अधिकारी से बहुत वादविवाद किया । उससे क्रोधित होकर पुलिस ने बाबारावजी को ही बंदी बनाया । यह क्या हो रहा है इसे देखने आए वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गाइडर बाबारावजी के पास आए तथा उनका नाम पूछा । `बाबा सावरकर’ यह नाम सुनते ही गाइडर को अत्यानंद हुआ । उसने तुरंत बाबारावजी की जांच-पडताल की (तलाशी ली) तब उनके पास रशियन क्रांतिसंबंधी एक पत्रक मिला । उस पत्रक के आधारपर बाबारावजी को एक माह के सश्रम कारावास का दंड हुआ । उसे उन्होंने ठाणे तथा नासिक के बंदीगृह में आनंद से भोगा ।

आजीवन कारावास का दंड !

क्रांतिकारियों के अनेक गुप्त उद्योगों में बाबाराव सावरकरजी का हाथ है तथा उन्हें उनका मार्गदर्शन भी प्राप्त है, यह अंग्रेजी गुप्तचर विभाग ने जाना था। वर्ष १९०९ में बाबारावजी ने कवि गोविंद रचित चार क्रांतिकारी कविताएं प्रकाशित कीं । उनमें से `रणबिन स्वतंत्रता किसे मिला ?’ इस कविता में प्रतिपादित था कि गुलामगिरी में खट रहे विश्व के किसी भी देश को सशस्त्रक्रांति के अतिरिक्त स्वतंत्रता नहीं मिली । ऐसे में हिंदुस्थान ही कैसे अपवाद होगा? यह कविता प्रकाशित की इसलिए सरकार ने बाबारावजी को बंदी बनाकरआजीवन कारावास का कठोर दंड दिया । ८ जून १९०९ को बाबारावजी को दंडदेकर अंडमान ले जाया गया । उस समय उनकी आयु केवल ३० वर्ष की थी !

अंडमान

अंडमान के `सेल्युलर जेल’में बाबारावजीपर शारीरिक यातनाओं का अंत नहीं था । धोखादायी क्रांतिकारी के रूप में वहां के कारावास अधिकारीने बाबारावजी से बहुत कष्टदायी काम करवाए । तब भी बाबारावजी के मन की क्रांतिकी भावना किंचित भी अल्प न होकर वह अधिक धारदार ही हुई ।संगठन चातुर्य तथा अन्याय का प्रतिकार यह उनके रोम रोम में भरा होने के कारण उन्होंने अंडमान में ही कारावास भोग रहे स्वा. सावरकरजी की सहायता से वहां के राजकीय कैदियों को संगठित किया । अच्छा वर्तन तथा भोजन मिले इस हेतुअनशन, असहयोग, बंद आदि मार्गों से लडे । परिणाम स्वरूप उन्हें अधिकाधिक कठोर शारीरिक यातनाएं भोगनी पडीं; परंतु उस ओर ध्यान न देकर बाबारावजीने अपना कार्य अविरत जारी रखा । अंडमान के ११ वर्षों की प्रदीर्घ कालावधि में उनकी प्रकृति बहुत घट गई एवं उन्हें क्षय की व्याधिने जकड लिया । उनके अंडमान में रहते हुए ही उनकी पत्नी श्रीमती. येसू भाभी इस दुनिया से चली गर्इं । सरकारने उन दोनों की अंतिम भेंट भी नहीं होने दी । वर्ष १९२१ में बाबारावजी को हिंदुस्थान में वापस लाया गया तथा साबरमती के कारागृह में रखा गया । उस समय उनकी प्रकृति बहुत ही बिगड गई थी । बाबारावजी अब कुछ घंटों के ही साथी हैं, ऐसा जब सरकारी डाक्टर ने बताया तभी अर्थात सितंबर १९२२ में सरकारने उन्हें छुट्टी दी !

बाबारावजी की ग्रंथसंपदा

बाबारावजी ने अनेक पुस्तकें लिखी । `वीर बैरागी’ भाई परमानंद लिखित इस पुस्तक का उन्होंने भाषांतर किया । इस पुस्तक में बंदा वीर का चरित्र बताकर हिंदुओं को स्फूर्ति दें, बदला कैसे लेना है यह सिखाए तथा पंजाब के सिख एवं मराठे के संबध सुदृढ हों, बाबारावजी का यही उद्देश्य था । इस पुस्तक में औरंगजेब की सत्ता से वीर बंदा वैराग्य से किए संघर्ष की कहानी है । `राष्ट्रमीमांसा’ इस पुस्तक में उन्होंने `भारत यह हिंदुराष्ट्र है’ यह सिद्ध किया है । `श्री शिवाजी की आगरापर गरुडझेप’ इस पुस्तक में आगरा जाने में शिवाजी का उद्देश्य औरंगजेब का वध करने का था, उन्होंने ऐसा प्रतिपादन किया है । `वीरा-पूर्व में, अभी और आगे’, `धर्म क्यों चाहिए ?’, `ईसाई का परिचय अर्थात ईसाई का हिंदुत्व’ ये उनकी अन्य पुस्तकें हैं ।

जीनवभर देशहित के लिए प्राणपण से लडनेवाला यह वीरात्मा १६ मार्च१९४५ को सांगली में कालग्रसित हुआ । बाबारावजी का चरित्र अर्थात राष्ट्र के लिए चंदन समान अखंड डटे एक महान देशभक्त की स्फूर्तिदायक कथा है !