गोवा मुक्ति अभियान के समय ऋण (कर्जा) लेकर जीवनयापन करनेवाले भाऊसाहब बांदोडकर !

१. स्व. भाऊसाहेब बांदोडकर को गोवा मुक्ति अभियान को चलाने हेतु बहुत पैसा व्यय करना पडा

‘गोवा मुक्ति अभियान’ को चलाने के लिए महाराष्ट्र से पैसा भेजा गया था, ऐसा अपप्रचार कुछ लोग करते हैं । प्रत्यक्ष में ऐसा नहीं हुआ था। अधिकांश व्यय (खर्च) स्व. भाऊसाहेब बांदोडकर को ही करना पडा था । महाराष्ट्र से आए स्वतंत्रता सेनानियों के पथकों के लिए, कार्यकर्ताओं एवं अन्य के लिए पैसा व्यय करना आवश्यक था । उस समय अकारण किसी को पैसे बांटने का प्रश्‍न ही नहीं था ।

२. ऋण चुकाने के लिए पैसे न होने के कारण, ‘अपना खनिज आप ले जाएं’, ऐसा वैकल्पिक सुझाव भाऊद्वारा संबंधितों को दिया जाना

भाऊसाहेब बांदोडकरने यह सब व्यय कहां से किया, ऐसा प्रश्‍न इस प्रतिनिधिद्वारा किए जानेपर श्री काकोडकरने कहा, ‘‘उस समय भाऊ को (भाऊसाहेब बांदोडकर को) ऋण लेना पडा था । मुक्ति-विरोधी लोग मुक्ति के विरोध में अत्यधिक पैसा बहा रहे थे । एक उद्योगपतिने इस कार्य में बढचढकर भाग लिया था । जनमत संग्रह अभियान के समय सभी ओर से विरोधियोंद्वारा इतना पैसा बहाया रहा था कि उनका प्रतिकार करने में भाऊसाहब का सारा पैसा समाप्त हो गया । उसके पश्‍चात उनपर इतना ऋण चढ गया कि उसे चुकाने के लिए उनके हाथ में कोई पैसा शेष नहीं रहा । भाऊसाहब लोगों के पैसे डुबानेवालों में से नहीं थे ।’’ तब उन्होंने ऋण के पैसे कैसे चुकाए’, यह प्रश्‍न करनेपर काकोडकरजीने कहा, ऋण चुकाने के लिए पैसा नहीं था; इसलिए उन्होंने अपने ऋणदाताओं को (महाजनों को) सुझाव दिया कि आप लोग ऋण के बदले मेरा खनिज माल ले जाएं ।

उन्होंने कहा कि उनके पास ऋण लौटाने के लिए पैसे नहीं हैं । उसके अनुसार वेळगे का खनिज माल देकर ऋण चुकाया गया ।’’ काकोडकरने कहा, जिस दिन जनमत जानने के लिए मतदान हुआ, उसी दिन भाऊसाहब विश्राम करने महाबलेश्वर चले गए थे ।’’

३. जनमत-संग्रह का परिणाम ज्ञात होनेपर थोडा भी बुरा न लगना, तब भाऊ का मन राजनीति से खिन्न होना; परंतु लोगों के तीव्र आग्रहपर कि ‘हमें भाऊसाहब चाहिए ही’, उन्होंने अपने विचार में परिवर्तन किया

हमें जब जनमत का निर्णय ज्ञात हुआ, तब कुछ समय तक बुरा लगा । अंत में भाऊसाहब ने यह मान्य किया कि लोगों को जैसा चाहिए था, वैसा हुआ । अब उनकी भूमिका ऐसी थी कि मुझे कुछ नहीं चाहिए । मैं अपने व्यवसायपर ही ध्यान दूंगा’ । उनका मन राजनीति से खिन्न हो गया था । परंतु उस समय दोनापावला एवं अन्य एक स्थानपर बडी जनसभा हुई, जिसमें लोगों ने तीव्र आग्रह करते हुए मांग की कि हमें भाऊसाहब चाहिए ही ।’भाऊसाहब, आप हमें अकेला नहीं छोड सकते । हमें आपका नेतृत्व चाहिए ही ।’ लोगों का यह प्रबल प्रेम देखकर भाऊसाहब को अपने विचार में परिवर्तन करना पडा ।

– भाऊसाहब की कन्या एवं भूतपूर्व मुख्यमंत्री शशिकलाताई काकोडकर (दैनिक लोकमत’, १६.१.२०११)

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