सरखेल कान्‍होजी आंग्रे : मराठा नौदल प्रमुख !

सरखेल कान्‍होजी आंग्रे

मराठा साम्राज्‍य में सरखेल कान्‍होजी आंग्रे ‘मराठा नौसेना’ के प्रमुख थे । कान्‍होजी आंग्रे लगभग २५ वर्षों तक भारत के कोंकण का सागरी तट को स्‍वराज्‍य में सुरक्षित रखने में सफल हुए थे । सागर के सम्राट कान्‍होजी आंग्रे को नौसेनाधिपति (सरखेल) आंग्रे भी कहा जाता है । १८ वीं शताब्‍दी में वह मराठा साम्राज्‍य की नौसेना के सेनापति थे । उन्‍होंने हिन्‍द महासागर में अंग्रेज, पुर्तगाली और डच नौसैनिक गतिविधियों के विरुद्ध भीषण युद्ध किया था । उनके पिता तान्‍होजी आंग्रे भी छत्रपति शिवाजी महाराज के सेना में नायक थे और कान्‍होजी आंग्रे का बचपन से ही मराठा सेना के साथ संबंध रहा है । उन्‍होंने मराठा नौसेना को एक नए स्‍तर पर पहुंचाया और कई स्‍थानोंपर मराठा नौसैनिक तल स्‍थापित किए, जिनमें अंडमान द्वीप, विजयदुर्ग आदि समाविष्ट थे । वह मृत्‍यु समय तक अपराजित रहे । अर्थात उन्‍हें कोई पराजित नहीं कर पाया था । कान्‍होजी आंग्रे विदेशी शत्रुओं की नींद उडानेवाले मराठा सेनानी, (सरदार) ‘सागराधिपति’ कहलाते थे ! पुणे मंडल के (जिला) खेड उपमंडल में कालो से गांव के आंगरवाडी प्रभाग में १६६९ (सोलह सौ उनहत्तर) को उनका जन्‍म हुआ था और आंगरवाडी से ही उनका कुलनाम आंग्रे पडा ।

छत्रपति शिवाजी महाराज के काल में कान्‍होजी सुवर्ण दुर्गपर नौकरी करते थे । १६८८ (सोलह सौ अठ्ठासी) में सुवर्ण दुर्ग का दुर्गपाल अचलोजी मोहिते धन के लोभ में आकर किला सिद्दी को सौंपनेवाला था । यह गुप्‍त समाचार मिलनेपर कान्‍होजीने सिद्दी से युद्ध किया और अपने पराक्रम के बलपर सिद्दी को पराजित किया । सुवर्णदुर्ग का युद्ध जीतकर उन्‍होंने अपनी विजययात्रा आरंभ की और मुगलों के अधिकार में जितने भी दुर्ग थे उन पर विजय प्राप्‍त की थी । वर्ष १६९८ (सोलह सौ अठ्ठानबे) में नौदल सेनापति सिधोजी गुजरजी के निधन के पश्‍चात राजाराम महाराजने उन्‍हें नौदल अधिपति बनाया । वह आजीवन उस पद की प्रतिष्ठा बढाते रहे । मराठा – मुगल युद्ध में पूरा कोंकणतट कान्‍होजी ने संभाला था । अंग्रेज, पुर्तगाली, डच और सिद्दी को नाकों चने चबवाए । संपूर्ण सागर पर अपना वर्चस्‍व प्रस्‍थापित किया; इसी कारण उन्‍हें आगे चलकर सागरस्‍वामी शिवाजी कहकर पहचाना जाने लगा ।

कर्तृत्‍व, पराक्रम और स्‍वामीनिष्ठा की परंपरा कान्‍होजी को अपने पूर्वजों से ही मिली थी । फिर भी स्‍वपराक्रम से, अपनी एक स्‍वतंत्र छाप उन्‍होंने इतिहास में छोडी है । छत्रपति राजाराम महाराज के काल में मराठों का अस्‍तित्‍व टिकाने का उत्तरदायित्त्व कान्‍होजीपर था । अपने अनुभव तथा कूटनीति से वह शत्रु का सामना कर रहे थे । उनकी योग्‍यता देखकर ही राजाराम महाराजने उन्‍हें ‘सागराधिपति’ यह सम्‍मानजनक पद दिया ।

कान्‍होजीने श्रीबाग का (अलिबाग) कुलाबा दुर्ग जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया । वर्ष १७०० में महारानी ताराबाईने (राजाराम महाराज की धर्मपत्नीने) भी इस महापराक्रमीवीर को सम्‍मानित करके सावंतवाडी से लेकर मुंबई तक का सागरीतट सुरक्षा के लिए उनके अधिकार में दिया । इस नए आव्‍हान के साथ कान्‍होजी को एक ही समय विदेशियों तथा स्‍वदेशियोंके साथ युद्ध करना पड रहा था । १७०७ में मराठा राज्‍य में फूट पडने से उन्‍होंने अपना स्‍वतंत्र कार्यकाज आरंभ किया; परंतु आगे चलकर उनके बालमित्र बालाजी विश्‍वनाथ पेशवेजीने उन्‍हें सातारा के (छत्रपति शाहू महाराज) साथ संधि करने हेतु मना लिया था ।

कोंकण के साथ कच्‍छ, सौराष्ट्र से त्रावणकोर, कोचीन तक की सागरी सत्ता कान्‍होजी के हाथ में थी । सागरपर स्‍वेच्‍छा से संचार करनेवाली विदेशी शक्‍तियोंपर प्रतिबंध लग गया था । वर्ष १६९८ से मराठा राज्‍य की संपूर्ण सागरी सत्ता कान्‍होंजी के हाथ में थी । उनकी अनुमति के बिना कोई भी सागरीमार्ग से व्‍यापार नहीं कर सकता था । विदेशी सत्ताधारीने इसका प्रतिकार करने की ठान ली । सर्व विदेशी सत्ताधारी एक हो गए तथा उन्‍होंने कान्‍होजी को समाप्‍त करने का प्रयास किया; परंतु उन्‍होंने सभी को पराजित कर दिया । शत्रु के आक्रमणों का सामना करने के लिए उन्‍होंने दूरदृष्टि रखकर पहले ही अनेकों राजाओं के साथ मित्रता के संबंध बनाए थे । इन्‍हीं की सहायता से उन्‍होंने अपना नौसेना दल अधिक शस्त्रसज्‍ज किया । पुर्तगालियों की सहायता से ही शस्त्र निर्मिति काकारखाना और कुलाबा, विजयदुर्ग, सुवर्णदुर्गपर सुधारित पद्धति के जलयान (जहाज) बनाने के कारखाने बनाए और बडी सुसज्‍जता के साथ कान्‍होजीने समुद्र तट को अपने नियंत्रण में ले लिया ।

कान्‍होजी का युद्ध धार्मिक आक्रमण के विरोध में भी था । उन्‍होंने कोंकण तथा पंढरपुर, आलंदी, जेजुरी, तुलजापुर के देवस्‍थानों को, मठ-मंदिरों को धन भी अर्पण किया था । छत्रपति शिवाजी महाराजजी की मृत्‍यु के पश्‍चात भी औरंगजेब मराठी प्रदेश को अपने अधिकार में नहीं ले पाया; क्‍योंकि स्‍वराज्‍य की सुरक्षा में अनेक शूरवीर मराठा सेनानियों का योगदान था । कोंकणतट पर राजसत्ता की सुरक्षा के लिए जागृत/सचेत रहकर पहरा देनेवाले कान्‍होजी उन्‍हीं में से एक थे ।