गुरु गोविंद सिंह – संतों के क्षात्रधर्म का उत्तम उदाहरण !

‘सत्केमार्गपर जब कदम रख ही दिए हैं, तो पीछे नहीं हटना; प्रसंग आने पर सत्के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर करना है ।’गुरु गोविंदसिंहजी सदा-सर्वदा ऐसे विचार करनेवाले थे। उनकी माता का नाम गुजरी एवं पिताजी का नाम गुरु तेगबहादुर सिंहजी था । गुरु गोविंद सिंहजी ने जीवनभर क्षात्रधर्म साधना की । उन्होंने अपने शिष्यों तथा अपनी संतान को भी सदैव क्षात्रधर्म साधना की ही सीख दी ।

गुरु गोविंद सिंहजी बाल्यावस्था से ही अपने साथियों के साथ ही निडरता से तीर-कमान एवं सैनिक साज समान के खेल खेलते थे । गुरु गोविंद सिंहजी को शस्त्रविद्या का विशेष प्रशिक्षण भी दिया गया था ।

उनके जीवनकाल में मुगल साम्राज्य के अनेक दुष्ट नवाबों ने प्रजापर अनगिनत अत्याचार किए । अन्याय सहन न करते हुए गुरु गोविंद सिंहजी ने ऐसे दुष्टों का डटकर सामना किया । उन्होंने अपनी फौज का उत्तम नेतृत्व एवं नियोजन कर दुर्जनों का नाश किया । कई बार उन्होंने अधर्मियोंपर विजय प्राप्त की । वे सदा ही धर्म (केवल सत्-ईश्वर) के हेतु लडना अपना कर्तव्य एवं ईश्वरीय कार्य मानते थे । गुरु नानकदेवजी के सुवचन को उन्होंने भली-भांति आत्मसात कर लिया था । वे सदैव कहते थे – ईश्वर से यदि सच्चा प्रेम हो, तो यह खेल खेलने (सत् हेतु लडाई) अपना शीश अपनी हथेली में रखकर, सिद्ध रहें तथा निर्भय होकर आगे बढें । धर्म हेतु (सत्) ही हमें गुरुदेव ने इस जगत में भेजा है !

गुरु गोविंद सिंहजी ने अपने चारों पुत्र अधर्मियों के विरुद्ध लडाई में भेंट चढा दिए । उन्होंने सत्के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करते हुए देग, तेग एवं फतेह का आदर किया । देग अर्थात कडा ही, जिसमें सत्संग-भंडारे का भोजन बनता है; तेग अर्थात तलवार एवं फतेह अर्थात सत् की असत्पर विजय । उनकी वाणी भक्तिभाव एवं वीर रस से भरपूर रही ।

– कु. नेहा गुप्ता, सरिता विहार, नई दिल्ली.