वराहमिहिर

         ग्रहोंका वैज्ञनिक दृष्टिसे अध्ययन करनेवाले ५वें शतकके सुप्रसिद्ध भारतीय खगोलशास्त्री वराहमिहिरजीने खगोलशास्त्र, फलज्योतिषविज्ञान आदि विषयोंका गहन अध्ययन किया था । पृथ्वीका आकार गेंदके समान है, यह तथ्य गेलेलियोसे बहुत पूर्व ही उन्होंने अंतर्राष्ट्रीrय और अंतर्देशीय विद्वानोंकी सभामें प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर दिखाया था । उनका निरीक्षण इस प्रकार था ।

१. विश्वके विविध भागोंमें विविध ऋतुएं होती हैं । यदि पृथ्वी सपाट होती, तो सभी स्थानोंपर एक ही ऋतु होती ।

२. सूर्योदय एवं सूर्यास्तका समय भी सभी स्थानोंपर एक समान नहीं होता ।

३. उत्तर प्रदेशके भागोंमें सामान्यत: अधिक ठंड रहती है ।

४. समुद्रतटसे देखनेपर जानेवाली नावका पाल अंत तक दिखाई देता है  एवं आनेवाली नावका पाल प्रथम दिखाई देता है ।

         उपर्युक्त निरीक्षणसे उन्होंने ‘पृथ्वीका आकार गोल है’ यह निष्कर्ष निकाला । इस निष्कर्षपर उस समयके धर्मगुरु एवं मगधके राजाने भी पूर्ण सहयोग दिया था ।

         शास्त्रज्ञोंद्वारा ‘भूकंप मेघ’के संदर्भमें हालमें किया गया शोध, वराहमिहिरजीने सैकडों वर्ष पूर्व ही इस विषयमें गहन संशोधन किया था ।

         वराहमिहिरजी ने भी उनके ‘बृहदसंहिता’ ग्रंथमें इस प्रकारके विचित्र मेघोंका वर्णन किया हैं । भूकंपके लक्षणके विषयमें बताते समय, ‘विराट विश्व एवं आकाशके ग्रह और नक्षत्रके प्रभावसे भूकंप होते हैं’ ऐसे वराहमिहिरजीने बताया है । भूमिके नीचेका जल, सागरके तलका जल इसपर ग्रह-नक्षत्रोंका प्रभाव होकर विचित्र रीतिसे निर्माण होनेवाले मेघ एवं भूकंपके पहलेका पशुओंका विचित्र आचरण इसके विषयमें विस्तारसे वर्णन वराहमिहिरजीने ग्रंथके अध्यायमें किया है ।

          ‘भूकंपके पहले एक सप्ताह ऐसे मेघ दिखाई देते हैं’, ऐसे उन्होंने बताया है । वे आगे बताते हैं कि, ‘भूकंपके पहले एक सप्ताह दिखनेवाले यह भूकंप-मेघ हाथी जैसे विशाल आकारके होते हैं । वे नील कमल जैसे दिखते हैं । उनका गमन अत्यंत मंदगतिसे और सुखदायक होता है । बीच-बीचमेंसे उनमेंसे बिजली चमकती हैं एवं धिरे धिरे जलसिंचन होता हैं । इस प्रकारके मेघ दिखनेके उपरांत जो भूकंप होता हैं वह समुद्र तथा नदी किनारे होता हैं और उसके उपरांत प्रचंड बारीश होती हैं ।’ वराहमिहिरजीने अपने बृहदसंहिता इस ग्रंथमें भूकंपके कारण, भूकंपका दिन एवं समय भी बताया हैं ।

संदर्भ : ‘ऋषीस्मृती – २, आचार्य वराहमिहिर’ – प.पू. गुरूदेव काटेस्वामीजी 

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