दानवीर कर्ण

बालमित्रों, कर्ण दुर्योधन का घनिष्ठ मित्र था । वह एक महान दानी के रूप में प्रसिद्ध था । वह अपने पास आए किसी भी याचक को कभी खाली हाथ नहीं लौटाता था, ऐसी उसकी कीर्ति थी । वह प्रतिदिन सुबह स्नान के लिए नदीपर जाता था । जल में उतरकर सूर्य को अर्घ देता और स्नान के उपरांत जो भी याचक उसके पास आता, उसे वह मुंहमांगी वस्तु प्रदान करता था ।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन बैठे वार्तालाप कर रहे थे । बातों- बातों में कर्ण की दान वीरता का विषय आ गया । श्रीकृष्णजी ने कर्ण की दानवीरता की प्रशंसा की । श्रीकृष्ण बोले, ‘‘कर्ण जितना उदार व्यक्ति अन्य कोई नहीं है ।’’ इसपर अर्जुन को थोडा आश्चर्य हुआ । अर्जुन बोला, ‘‘श्रीकृष्ण, धर्मराज भी दानवीर हैं ।” तब सर्वाधिक दानवीर कौन है ? इसपर उनकी चर्चा आरंभ हो गई । श्रीकृष्ण बोले, ‘‘ठीक है, कल ही हम धर्मराज और कर्ण दोनों के पास जा कर इसकी परीक्षा लेंगे ।”

वर्षा के दिन थे । अगले दिन सूरज निकलते ही श्रीकृष्ण तथा अर्जुन धर्मराज के पास गए । उन्हें देखकर धर्मराज को अत्यंत आनंद हुआ । उन्होंने उन दोनों का यथोचित स्वागत किया और फिर उनके वहां आने का कारण पूछा । तब श्रीकृष्ण बोले, ‘‘राजधानी में अचानक एक महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्य करना है । उसके लिए लकडियां चाहिए ।” धर्मराज ने अपने सेवकों को बुलाया तथा निर्माण कार्य के लिए उत्तम प्रकार की लकडियां लाने की आज्ञा दी । इधर-उधर की बातें हुईं । बहुत समय निकल गया, किंतु सेवक वापस नहीं लौटे । कुछ समय के उपरांत सेवक अपना सिर झुकाए लौटे । धर्मराज बोले, ‘‘क्या हुआ ? लकडियां नहीं मिलीं ?” सेवकों ने उत्तर दिया, ‘‘वर्षा के कारण सारी लकडियां भीग चुकी थीं, इस कारण हम लकडियां नहीं ला सके हैं ।’’ हार कर धर्मराज ने अर्जुन तथा श्रीकृष्ण को लकडियां न मिलने का कारण बताया । श्रीकृष्ण तथा अर्जुन लौट गए ।

तदुपरांत वे कर्ण के पास गए । कर्ण ने उन्हें आदरपूर्वक आसन ग्रहण करने को कहा और उनका कुशलक्षेम पूछा । इसपर अर्जुन ने लकडियों की अचानक आवश्यकता आन पडने के बारे में बताया । कर्ण बोला, ‘‘इतना ही न, तो इसमें इतनी चिंता करने की क्या बात है ?” ऐसा कहा कर उसने अपने सेवकों को लकडियां लाने भेजा । कुछ समय में वह सेवक लौट आया और बोला, ‘‘बारिश में लकडियां भीग चुकी हैं । इसलिए नहीं मिलीं ।’’ सेवकों की बात सुनते ही कर्ण अंदर गया और बहुत समय होने के उपरांत भी जब वह बाहर नहीं आया तो अर्जुन श्रीकृष्ण की और देखने लगा । श्रीकृष्ण उसे साथ लेकर कर्ण के दालन में गया । तब देखता क्या है, कर्ण अपने पलंग के पाये काट रहा था और उसने आसपास भी लकडी का अन्य सामान तोडकर रखा है । तब उनके ध्यान मे आया कि कर्ण को इतना समय क्यों लग रहा है । अर्जुन ने पूछा, ‘‘कर्ण, इतनी सी बात के लिए तुम ने चंदन का कलात्मक लकडी का पलंग क्यों तोड डाला ?” इसपर कर्ण बोला, ‘‘ये वस्तुएं पुनः बनाई जा सकती हैं; परंतु जब किसी को कुछ देने का समय आए और हम वह क्षण गंवा दें, इसके समान दु:ख कौन-सा होगा ?”

आगे इसी कर्ण ने अपनी वरदान में मिले अंग के कवचकुंडल भी दान कर त्याग का अनुपम उदाहरण इतिहास में प्रस्तुत किया ।

बालमित्रों, दानवीर कर्ण की कथा हमने देखी । हमें अपनी छोटी-सी वस्तु भी देने की इच्छा नहीं होती । जबकि कर्ण ने तो वरदान में मिले अंग के कवच-कुंडल भी दान कर दिए । हमें भी अपनी वस्तुओं का त्याग करना आना चाहिए ।