महाराज रघु का दान ! 

महाराज रघु अयोध्या के सम्राट थे । वे प्रभू श्रीरामजी के परदादा थे । उनके नामसे ही उनके वंश के क्षत्रिय ‘रघुवंशी’ कहे जाते हैं ।

एक बार महाराज रघु ने एक बडा यज्ञ किया । जब यज्ञ पूरा हो गया तब महाराज ने ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियों को अपना सब धन दान कर दिया । महाराज रघु इतने बडे दानी थे कि उन्होंने अपने आभूषण, सुन्दर वस्त्र से लेकर बर्तन सहित सब दान कर दिया । उसके बाद वे मिट्टी के बर्तनों से काम चलाने लगे ।

एक दिन वरतन्तु ऋषि के शिष्य ब्राह्मणकुमार कौत्स महाराज रघु के पास आए । महाराज ने उनको प्रणाम किया, उन्हें आसनपर बिठाकर मिट्टीके गडुवे से उनके पैर धोए । स्वागत-सत्कार होनेपर महाराज ने उनसे पूछा, ‘हे ब्राह्मणकुमार, आप मेरे पास कैसे पधारे हैं ? मैं आपकी क्या सेवा करूं ?’

कौत्सने कहा, ‘महाराज ! मैं आया तो किसी काम से ही था; किंतु आपने तो अपना सर्वस्व ही दान कर दिया है । अब मैं आप जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूंगा ।’

महाराज रघु ने कौत्ससे नम्रता से प्रार्थना की, आप अपने आनेका उद्देश तो बताइए ।

कौत्सने कहा कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है । अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जानेसे पहले कौत्सने गुरुदेव से गुरुदक्षिणा मांगने की प्रार्थना की । तब गुरुदेवजी ने बडे प्रेमसे कहा, ‘वत्स ! तुमने यहां रहकर जो मेरी सेवा की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं । मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गई । तुम संकोच मत करो । प्रसन्नतासे अपने घर जाओ ।’ परन्तु कौत्सने तो गुरुदक्षिणा देने के लिए हठ कर लिया । तब गुरुदेवजी को बहुत क्रोध आ गया और वे बोले, ‘तुमने मुझसे चौदह विद्या पढी हैं, अब तुम प्रत्येक विद्याके लिए एक करोड सोने की मोहरें लाकर दो ।’

इस प्रकार चौदह करोड सोनेकी मोहरें लेने के लिए कौत्स अयोध्या में आए थे ।

महाराज रघु ने कौत्स की बात सुनकर कहा, ‘जैसे आपने यहांतक आने की कृपा की है, वेसे ही मुझपर थोडीसी कृपा और करें । तीन दिनतक आप मेरी अग्निशालामें ठहरें । महाराज रघु के द्वार से एक ब्राह्मणकुमार निराश लौटे, यह तो बडे दु:ख एवं कलंक की बात होगी । मैं तीन दिनमें आपकी गुरुदक्षिणा का कोई न कोई प्रबन्ध तो अवश्य कर दूंगा ।’

कौत्सने अयोध्या में रुकना स्वीकार कर लिया । महाराज ने अपने मंत्री को बुलाकर कहा, ‘यज्ञ में सभी सामन्त राजा कर दे चुके है । उनसे दुबारा कर लेना उचित नहीं है । परन्तु कुबेरजी ने मुझे कभी कर नहीं दिया । वे देवता हैं तो क्या हुआ, कैलासपर रहते हैं । इसलिए पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को उन्हें कर देनाही चाहिए । मेरे सब अस्त्र-शस्त्र मेरे रथ में रखवा दो । मैं कल सवेरे कुबेरपर चढाई करूंगा । आज रातको मैं उसी रथमें सोऊंगा । जबतक ब्राह्मणकुमार को गुरुदक्षिणा न मिले, मैं राजमहल में पैर नहीं रख सकता ।’

उस रात महाराज रघु रथमें ही सोए । सवेरे उनका कोषाध्यक्ष उनके पास दौडता हुआ आया और कहने लगा, ‘महाराज ! खजाने का घर सोनेकी मोहरों से ऊपरतक भरा पडा है । रात में उसमें मोहरों की वर्षा हो गई ।’

महाराज रघु समझ गए कि कुबेरजीने ही यह मोहरों की वर्षा की है । महाराज ने सभी मोहरों का ढेर लगवा दिया और कौत्ससे बोले, ‘ब्राह्मणकुमार ! आप इस धन को ले जाएं ।’

कौत्सने कहा, ‘मुझे तो गुरुदक्षिणा के लिए चौदह करोड मोहरें चाहिए । उससे अधिक एक मोहर भी मैं नहीं लूंगा ।’

महाराज ने कहा, ‘ब्राह्मणकुमार, यह धन आपके लिए आया है । ब्राह्मणका धन हम अपने यहां नहीं रख सकते । आपको यह सब लेना ही पडेगा ।

कौत्सने दृढता से कहा, ‘ महाराज ! मैं ब्राह्मण हूं । धनका मुझे करना क्या है ? आप चाहे जो करें, मैं तो एक मोहर भी अधिक नहीं लूंगा ।’ कौत्स चौदह करोड मोहरें लेकर चले गए । शेष मोहरें महाराज रघु ने दूसरे ब्राह्मण को दान कर दी ।

आपके ध्यान में आया न, किस प्रकार महाराज रघु ने ब्राह्मण के लिए प्राप्त धन बिना किसी लालच के दूसरें ब्राह्मण को ही दे दिया और कौत्स ने इतना धन पाकर भी कोई लालच न रखते हुए आवश्यक उतना ही धन रख लिया । क्योंकि लालच करना अत्यंत बुरी बात होती है ।

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