अध्यात्म की पहली सीढी : अहंकार का त्याग !

राजा शूरसेन

एक नगर में शूरसेन नाम का एक राजा था । उसका राज्य बहुत बडा था । उसकी प्रजा अत्यंत सुख से रह रही थी । शूरसेन अत्यंत पराक्रमी होने के कारण उसे अपने शौर्य, राज्य, सुख-संपत्ति तथा कर्तापन का अत्यंत अहंकार था । एक दिन शूरसेन को अध्यात्म सीखने की इच्छा हुई । शूरसेन ने अपने प्रधान को बुलाकर राज्य में जो भी अध्यात्म सिखानेवाले सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी गुरु है, उनका सम्मान करने और अध्यात्म सिखाने के लिए राजमहल में लाने की आज्ञा दी ।

प्रधान बोले, ‘‘महाराज, हमारी राजधानी के निकट के वन में एक कुटिया में आत्मानंद महाराज रहते हैं । वे बहुत बडे ज्ञानी हैं; परन्तु वे राजमहल में आएंगे ऐसे नहीं लगता ।

यह बात सुनकर राजा शूरसेन ने प्रधान से कहा कि, रथ लेकर आत्मानंद महाराज के पास पहुंचे और उनका मानसम्मान कर उन्हें किसी भी प्रकार लेकर आए ।

राजा की आज्ञा से प्रधान आत्मानंद महाराज की कुटिया में पहुंचे। उन्हें प्रणाम कर प्रधान ने राजा शूरसेन का संदेश आत्मानंद महाराज को बताया ।

राजा शूरसेन का संदेश सुनकर आत्मानंद महाराज ने कहा ‘‘राजा को अध्यात्म सीखना है, तो उन्हें ही मेरी कुटिया में आना पडेगा । क्योंकि अध्यात्म सीखने की आवश्यकता उन्हें है, उसके लिए मुझे राजमहल आने की आवश्यकता नहीं हैं । यदि राजा को अध्यात्म का ज्ञान पाने की इतनी तडप है तो उन्होंने मेरी कुटिया में आना होगा ।

प्रधान ने आत्मानंद महाराज का संदेश राजा शूरसेन को बताया । वह सुनकर राजा शूरसेन अध्यात्म सिखने के लिए आत्मानंद महाराज की कुटिया में जाने के लिए तैयार हो गए। राजा शूरसेन कुटीया के निकट आए तथा उन्होंने अपने प्रधान के द्वारा ‘अपने आने का संदेश’ आत्मानंद महाराज को भेजा । राजा को लगा कि महाराज उसका स्वागत करने आएंगे । परन्तु ऐसा नहीं हुआ । महाराज ने प्रधान से कहा कि राजा को मेरे कक्ष में लेकर आए ।

आत्मानंद महाराज कुटीया के जिस कक्ष में बैठे थे, उस कुटीया का द्वार केवल ४ फूट उंचा था । इस कारण राजा शूरसेन और प्रधान को उस द्वार से झुककर आना पडा । उनके कक्ष के अंदर आनेपर महाराज ने अपने स्थान से उठकर उन दोनों का स्वागत किया । उन्हें खाने के लिए ताजे फल दिए और अधिक समय न गंवाते हुए अध्यात्म सिखाना आरंभ किया ।

अध्यात्म के अनेक पहलू जानकर राजा शूरसेन अत्यंत प्रसन्न हुए । कुटीया से जाते समय उसने आत्मानंद महाराज से नम्रता से पूछा, ‘‘महाराज, मैं तो अपने राजपाट में व्यस्त रहता हूं । मेरे मन में आपके प्रति अत्यंत आदर है । आपके राजमहल में आनेजाने की पूरी व्यवस्था सम्मान से करने के लिए मैंने प्रधान को सूचित किया था । परन्तु आपने वह न मानकर मुझे ही यहां क्यों बुलाया, इसका कृपया उत्तर दें ।

आत्मानंद महाराज प्रसन्नता से बोले, ‘‘तुमने  ‘मैं एक राजा हूं’  यह अभिमान छोडकर मेरी कुटीया में आना स्वीकार करना, कुटीया में आने के बाद ४ फूट के द्वार से झुककर मेरे कक्ष में प्रवेश करना, यही तुम्हारे अध्यात्म के पाठ की पहली सीख थी । उसमें तुम उत्तीर्ण हो गए हो । अध्यात्म सिखने के लिए तुम अपने अहंकार को त्याग सकते हो अथवा नहीं यह मुझे जांचना था । अध्यात्म सिखना हो तो स्वयं के अहंकार को त्यागना यही पहली परीक्षा होती है, जिसमें तुम उत्तिर्ण हो गए हो । कल से तुम्हें यहां आने की आवश्यकता नहीं । तुम अपना राजपाट संभालना । तुम्हारे समय के अनुसार मैं ही अध्यात्म सिखाने राजमहल आ जाउंगा ।’’

आत्मानंद महाराज की यह बात सुनकर राजा शूरसेन के ध्यान में आया कि अहंकार न हो तो ही अध्यात्म का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान मिल सकता है । उसने आत्मानंद महाराज को नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और प्रधान के साथ अपने राजमहल लौट गया ।

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